tag:blogger.com,1999:blog-69421425683895930962024-03-17T23:02:09.542-04:00Setu 🌉 सेतु** ISSN 2475-1359 **<br>* Bilingual monthly journal published from Pittsburgh, USA :: पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित द्वैभाषिक मासिक *<br>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.comBlogger8184125tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-76416600923602198752024-02-29T23:49:00.003-05:002024-03-03T15:46:14.844-05:00 जीवन से संवाद<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="http://www.setumag.com/2016/06/author-shashi-padha.html"><img border="0" height="200" src="https://4.bp.blogspot.com/-Zz5ZZ56p6TY/V1xc-MRMEuI/AAAAAAAAEoU/n-qt1Bcc6Hg0xMkMq_2oWbl48aEK7QWVQCLcB/s200/Shashi-Padha-Setu.jpg" width="155" /></a></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="http://www.setumag.com/2016/06/author-shashi-padha.html">शशि पाधा</a></td></tr>
</tbody></table><div><div>अब तक कितनी उलझन झेली </div><div>झेला वाद-विवाद </div><div>करूँ जतन फिर जोडूँ अपने </div><div>जीवन से संवाद।</div><div><br /></div><div>संबंधों के प्रश्न जटीले </div><div>उत्तर कैसे सुलझे </div><div>छानी ढूँढी ज्ञान तिजोरी </div><div>लिखते-लिखते उलझे </div><div><br /></div><div>मिला न जीवन की पुस्तक का </div><div>मनचाहा अनुवाद।</div><div><br /></div><div>न तो कोई बाँह गहे </div><div>न खोले नेह किवाड़ </div><div>खुली न साँकल मन की देहरी </div><div>आर हुए ना पार।</div><div><br /></div><div>गूँगे बहरे रिश्ते हों तो </div><div>कौन सुने फ़रियाद।</div><div><br /></div><div>जंगल पर्वत मरुथल छाने </div><div>पाया न समाधान </div><div>किस बरगद की छाँव में पाऊँ </div><div>गौतम सा निर्वाण। </div><div><br /></div><div>ऐसा कोई वैद-ओषधि </div><div>हर ले पीर विषाद।</div><div><br /></div><div>जोड सकूँ मैं फिर से अपने </div><div>जीवन से संवाद।</div></div>
<hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-28844297239709353782024-02-29T23:21:00.003-05:002024-02-29T23:22:31.393-05:00ओ हिंदुस्तान, हल हैं तेरे लहूलुहान...!<blockquote>सत्यार्थी जी की कविताओं में धरती के सुख-दुख का सच्चा संगीत सुनाई देता है!</blockquote>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><span style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html"><img border="0" data-original-height="515" data-original-width="296" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3oRxJwY30aTITHvsPj9Dudl6RxHJmnqYdCtlnHe7oSbwJD1W5ECeOVKbvs_ElTgjT_EgNGouzkjha0H648OxNWXa7ibagRjrZaGVIi69wqS1RuflVT4TfB4mNGWc7Myq_TYsFkQ0bavmDLLsYbDyxqmGue7UTOz4Vyv9oGVs4_2Xdx6L49y0L-r1KpKA/w115-h200/Prakash_manu_17jpeg.jpg" width="115" /></a></span></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html">प्रकाश मनु</a></td></tr></tbody></table>
<h3>- <a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html">प्रकाश मनु</a></h3>
<div><span style="font-size: x-small;">545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008</span></div><div><span style="font-size: x-small;">चलभाष: 981 060 2327,</span></div><div><span style="font-size: x-small;">ईमेल: prakashmanu334@gmail.com</span></div>
<hr /><div><br /></div><div></div><div></div><div>“मंच पर खड़ा वह कोई अलौकिक व्यक्ति लग रहा था, जिसका व्यक्तित्व किसी विचारक, कलंदर और कवि के व्यक्तित्व का समीकरण लग रहा था। वह अपनी कविता में भारत के विभिन्न प्रदेशों की चर्चा इतनी सहजता से कर रहा था कि श्रोता अपने आपको उन प्रदेशों मे साँस लेते महसूस कर रहे थे। एक के बाद एक प्रदेश की जनता अपनी विशिष्ट संस्कृति की पृष्ठभूमि में, विशिष्ट वस्त्र धारण किए और विशिष्ट भाषा बोलती धीरे-धीरे उनकी आँखों के सामने उभरती और फिर क्षितिज के कोनों में गुम हो जाती। यह सफल चित्रण सत्यार्थी की वर्षों की साधना और भारत-भ्रमण का फल था। मुझे लगा कि भारत का कोई कवि, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, भारत की आत्मा का चित्र प्रस्तुत करने में सत्यार्थी की बराबरी नहीं कर सकता।” (साहिर लुधियानवी, नीलयक्षिणी, पृ. 372)</div><div>बरसों पहले प्रीतनगर के वार्षिक सम्मेलन में सत्यार्थी जी ने ‘हिंदुस्तान’ शीर्षक कविता सुनाई थी। उस सम्मेलन में मौजूद साहिर लुधियानवी ने मंच पर कविता पढ़ रहे देवेंद्र सत्यार्थी का यह अनोखा शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है, जिसे पढ़कर समझ में आता है कि उनकी कविताओं में कैसा खुलापन और जीवन का स्वचंछंद प्रवाह था, जो उन्हें आम जन से सीधे जोड़ता था और उनकी कविताओं की पुकार हवा में गूँज बनकर समा जाती थी।</div><div><br /></div>
<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi86MdNGjVDh_9wEU1vTPsaNzovzZilEhooozENiwk9yP6SoBpSQlTzaXAT2h7hCtb9jxUaZWRmsNLnn8V_ohQPLDl_3lJ3Xq3m3dIU6hYEd2ADpWFEj5YrYMosEFNihEeorik_fFGOS5J9mip6SEAxV7MD5RjoxXIzfw-oPG1fROCW_GCBeDOn4AMj/s981/Devendra_Satyarthi.jpg" style="clear: left; display: block; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; padding: 1em 0px; text-align: center;"><img alt="" border="0" data-original-height="981" data-original-width="666" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi86MdNGjVDh_9wEU1vTPsaNzovzZilEhooozENiwk9yP6SoBpSQlTzaXAT2h7hCtb9jxUaZWRmsNLnn8V_ohQPLDl_3lJ3Xq3m3dIU6hYEd2ADpWFEj5YrYMosEFNihEeorik_fFGOS5J9mip6SEAxV7MD5RjoxXIzfw-oPG1fROCW_GCBeDOn4AMj/s200/Devendra_Satyarthi.jpg" /></a></div>
<div>यह वह समय था, जब अपनी लोकयात्राओं के बीच-बीच में तनिक विराम लेकर वे कविताएँ और कहानियाँ भी लिखने लगे थे और अपनी अनूठी सृजन-शैली और खुली अभिव्यक्ति के कारण वे एकाएक प्रसिद्धि के शिखर पर जा पहुँचे थे। खुद सत्यार्थी जी ने उन्मुक्त पंखों के साथ उड़ानें भरती अपनी काव्य-यात्रा के बारे में बहुत विस्तार से लिखा है, जिसने उनके भीतर एक नशा-सा भर दिया था—</div><div>“कविता और कहानी की ओर मैं एक साथ आकृष्ट हुआ, वह भी सन् 1940 में। आरंभ कविता से ही हुआ और वह भी पंजाबी में। बस यों ही गुनगुनाकर कुछ लिख डाला था। वह स्वयं मेरे लिए भी कुछ आश्चर्य का विषय नहीं था, पर मन पर एक नशा-सा छा गया। जब यह कविता एक प्रसिद्ध पंजाबी मासिक में प्रकाशित हुई तो एक आलोचक ने तो यहाँ तक कहा कि इसमें ध्वनि-संगीत का अछूता प्रयोग किया गया है। ...मैंने सोचा, क्यों न कभी-कभी हिंदी माध्यम में भी लेखनी आजमाई जाए। ‘बंदनवार’ की ‘नर्तकी’ शीषक कविता इस इस प्रयास का सर्वप्रथम परिणाम है।...सौभाग्यवश, कुछ दिनों बाद दिल्ली में श्री सुमित्रानंदन पंत से भेंट हुई। उनके सम्मुख भी मैंने बड़ी सरलता से कविता सुना डाली तो उनके मुख से अनायास ही ये शब्द निकल पड़े—नर्तकी कविता नहीं एक मूति है, एक पूरी चट्टान को काटकर बनाई गई मूर्ति, कहीं कोई जोड़ तो है ही नहीं...!” (बंदनवार, दृष्टिकोण, पृ. 9)</div><div><br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7G7XMvc9vAXLZt5w26fbWZAswDpo7gNccQ7VvkWaerr2qSG72F-5S57pTigIJcCtqgucNFiXXKLfh-GI3kSXQjOcdrDmkz8kVz2XOuaH7eWkNOIWwpzC3WBRtwAFb7xzE4Ue3wLcdaQ9IdgbVoTQ3qiJ_z9AHaSCIqmk53btuZNSXzxaMkDas9Dpc/s622/Devendra-Satyarthi-51.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="418" data-original-width="622" height="215" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7G7XMvc9vAXLZt5w26fbWZAswDpo7gNccQ7VvkWaerr2qSG72F-5S57pTigIJcCtqgucNFiXXKLfh-GI3kSXQjOcdrDmkz8kVz2XOuaH7eWkNOIWwpzC3WBRtwAFb7xzE4Ue3wLcdaQ9IdgbVoTQ3qiJ_z9AHaSCIqmk53btuZNSXzxaMkDas9Dpc/s320/Devendra-Satyarthi-51.jpg" width="320" /></a></div>
<div>कविता-संकलन ‘बंदनवार’ की भूमिका के रूप में लिखी गई ये पंक्तियाँ कविता के लिए सत्यार्थी जी की दीवानगी की एक झलक पेश करती हैं। यों तो उन्होंने साहित्य की लगभग हर विधा में जमकर लिखा है और एक से एक स्मरणीय कृतियाँ दी हैं। पर सच तो यह है कि वे चाहे लोक साहित्य पर लेख लिखें या फिर कहानी, उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र और यात्रा-वृत्तांत, पर हृदय से वे कवि हैं। वे पहले कवि हैं, फिर कुछ और। इसका इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि जो कुछ उन्होंने लिखा, उसमें उनका हृदय बोलता है और उनकी गद्य रचनाएँ तक कविताओं की तरह हृदय में गहरे धँसती हैं। इसलिए साहिर ने सत्यार्थी जी की कविताओं को हिंदी में अपने ढंग की सिरमौर कविताएँ कहा था। </div><div><br /></div><div>इसी तरह मूर्धन्य कवि सुमित्रानंदन पंत उनके ‘बंदनवार’ संग्रह की कविताओं को पढ़कर अभिभूत हुए थे और बड़ा ही भावपूर्ण पत्र उन्होंने सत्यार्थी जी को लिखा था, जिसमें उनकी कई कविताओं की उन्होंने जी भरकर प्रशंसा की थी। बेशक सत्यार्थी जी की कविताओं में धरती बोलती है। वे जिंदगी के थपेड़ों से निकली ऐसी कविताएँ हैं, जो आम आदमी के दुख-दर्द और संघर्षों के साथ-साथ चलती हैं।</div><div><br /></div><div><br /></div><div>[2]</div><div>सत्यार्थी जी ने अपनी सृजन-यात्रा की शुरुआत में कविताएँ अधिक लिखीं। और यह सिलसिला कोई छठे-सातवें दशक तक चलता रहा। उसके बाद कविताएँ कम लिखी गईं और सत्यार्थी जी मुख्य रूप से गद्य साहित्य में रम गए। हालाँकि सत्यार्थी जी की कविताओं की चर्चा बहुत हुई। बंगाल के अकाल पर लिखी गई ‘रेशम के कीड़े’ कविता बहुत मार्मिक है, जो प्रेमचंद के ‘हंस’ में छपी थी। इसमें कीड़ों सरीखे मजदूरों की जिंदगी का वह सच है जिसे अकसर भद्रजनों की आँख की ओट कर दिया जाता है। विषमता की पीड़ा बयान करती इस कविता की कुछ मार्मिक पंक्तियाँ हैं :</div><div>कलकत्ते के बाजारों में अब भी रेशम मिल सकता है</div><div>उसी तरह यह बिछता-सोता</div><div>चलता-फिरता</div><div>ब्याह रचाता</div><div>टैक्सी चढ़ता</div><div>सिनेमा जाता।</div><div>फुटपाथों की सभी युवतियाँ</div><div>सखियाँ सभी उदयशंकर की</div><div>आँख के आगे आ-आ नाचें।</div><div>एक से पूछा बिन पहचाने</div><div>कहो, मरे हैं कितने कीड़े</div><div>इस साड़ी की इक सिलवट में,</div><div>अँगिया के खूनी रेशम में...? (बंदनवार, पृ. 53)</div><div><br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2lHQM9r1QPE14v30tWQ7eqruTlEi0ztr8spfj2UyJGpgW0Us9p2snwRSRNcSEDi1zSNzIEwkRcNoY2sliql3h-Eo6bVAwlzPWKvWTKROeqYTuDCv-cunoFxII5DOJGjxm_9Vz_v61SQXJQNBHT0dkKx1T0Y-BmqPShVFgn3RiiSvYeenFgD5tFRuv/s583/Devendra-Satyarthi-7.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="391" data-original-width="583" height="215" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2lHQM9r1QPE14v30tWQ7eqruTlEi0ztr8spfj2UyJGpgW0Us9p2snwRSRNcSEDi1zSNzIEwkRcNoY2sliql3h-Eo6bVAwlzPWKvWTKROeqYTuDCv-cunoFxII5DOJGjxm_9Vz_v61SQXJQNBHT0dkKx1T0Y-BmqPShVFgn3RiiSvYeenFgD5tFRuv/s320/Devendra-Satyarthi-7.jpg" width="320" /></a></div>
<div>उन्हें कलकत्ते के बाजारों में चलते-फिरते, ब्याह रचाते, टैक्सी चढ़ते, सिनेमा जाते ‘रेशम’ का खयाल आता है, तो दूसरी ओर—</div><div>फुटपाथों पर भूखों का चीत्कार,</div><div>पिल्ले हैं, आदम के बेटे</div><div>रोटी के टुकड़े को तरसे।</div><div>और सोच-सोचकर शर्म आती है, कि कितने ही कवि इन कीड़ों की तरह ‘कविता-कामिनी’ के शृंगार में मर मिटे। मगर खुद सत्यार्थी जी उनमें नहीं है, न शामिल होना चाहते हैं। </div><div><br /></div><div>एक दफा अंतरंग बातचीत में सत्यार्थी जी की ने इस कविता का जिक्र छिड़ने पर जो शब्द कहे, वे गौर करने लायक हैं, “ऐसी कविता मनु जी, मैं आज चाहूँ तो भी नहीं लिख सकता। इसलिए कि यह कविता मैंने लिखी नहीं, बंगाल का जो अकाल देखा था, उसने खुद-ब-खुद मुझसे लिखवा ली।” (देवेंद्र सत्यार्थी : एक भव्य लोकयात्री, प्रकाश मनु, पृ. 176)</div><div><br /></div><div>इसी तरह ‘एशिया’ और ‘हिंदुस्तान’ सत्यार्थी जी की बड़े केनवस की कविताएँ हैं, जिनके चित्रों में एक साथ विराटता और मोहकता है। इसलिए एशिया की बात चलते ही उन्हें सारे ऐश्वर्यलोक के बावजूद उसकी ‘फटी आस्तीं’ का खयाल आता है—</div><div>एशिया! तेरा दिल है क्यों गमगीं?</div><div>हर कलाकार के हाथ में </div><div>तूलिका अपना जादू दिखाती रही</div><div>जैसे आता है फूलों में रंग</div><div>जैसे आती शहद में मिठास</div><div>जैसे आती अतर में सुवास</div><div>जनकला में उभरती रही नंगी धरती की शान</div><div>खेत की नर्म माटी में उगता रहा प्रेम, उगता रहा जैसे धान</div><div>उगता रहा सारा सौंदर्य गेहूँ के खेतों में ही</div><div>एशिया, फिर भी तेरी फटी आस्तीं। (बंदनवार, पृ. 58)</div><div><br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiFBigCOUZqm6N6kDm3Tiw7B_7jNlpC-woFLhGjG7HqwjUwsxOnA3o9QY61tQUIr4E-y6p6bGdXeRNYhLxleH2Giiq7bKNqQk5jhLnzTwxFNYvTcvJHkIIRasxyDYWarRSJ8ad2H1oRRRLjzFs9icvfnqb746SsCsgV3bMIweaYOjk5n1Hlc6QRg4f/s1979/Devendra_Satyarthi_photo-5.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1979" data-original-width="1465" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiFBigCOUZqm6N6kDm3Tiw7B_7jNlpC-woFLhGjG7HqwjUwsxOnA3o9QY61tQUIr4E-y6p6bGdXeRNYhLxleH2Giiq7bKNqQk5jhLnzTwxFNYvTcvJHkIIRasxyDYWarRSJ8ad2H1oRRRLjzFs9icvfnqb746SsCsgV3bMIweaYOjk5n1Hlc6QRg4f/w148-h200/Devendra_Satyarthi_photo-5.jpg" width="148" /></a></div>
<div>हालाँकि दूसरे छोर पर सामंती जनों के ऐश्वर्यलोक की नग्न लीलाएँ हैं, जिनसे शोषण की बू आती है। सत्यार्थी जी ने बड़ी कड़वाहट के साथ उसका जिक्र किया है--</div><div>तेरे महलों में सोने की मोहरें लुटीं</div><div>बादशाह मुसकराते रहे और पीते रहे जाम पै जाम</div><div>कनीजों गुलामों की किस्मत में लिखी थी साकीगरी।</div><div><br /></div><div>फिर भी उम्मीद की किरण यह है कि लोग जाग रहे हैं और शिद्दत से महसूस कर रहे हैं कि उनके सुख और आशाओं के सवेरे को किसने कैद किया हुआ है। लोग जागेंगे तो यह तसवीर बदलते देर नहीं लगेगी। और नया यथार्थ एक नई कौंध और जगमगाहट के साथ सामने आएगा—</div><div>एशिया! तेरी होती रही कैसी तौहीं</div><div>आज जनमत का सूरज उगा</div><div>आज तंदूर से गरम रोटी लपककर</div><div>भूखे की झोली में आकर गिरी...</div><div>अब न खेतों में उगते रहेंगे गुलाम</div><div>अब न सोने ढली बालियों में पकेंगी कनीजें</div><div>आज धरती ने लीं फिर से अँगड़ाइयाँ</div><div>अब बिछा अपने सपनों का कालीन, ओ एशिया—विश्व की नाजनीं! (वही, पृ. 59)</div><div><br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDN6zYVL5y4m5NeacuzgO5Uz1cEH4SxHTwk14pKWsjP8uq8CnY8LYdAo7285n9wB5oyJWXoVRS2NKKLmU4LQWpAfMBseH01KWMGwN-Vl1-zlhPgZ1jgXtkHXofcSHAOEAmHJq5fyWaWBWr7jn28oJ9L0DF-uF5K2N_3k9l7eeo16_LOagWZcHvnbuE/s971/Devendra-Satyarthi-41.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="971" data-original-width="607" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDN6zYVL5y4m5NeacuzgO5Uz1cEH4SxHTwk14pKWsjP8uq8CnY8LYdAo7285n9wB5oyJWXoVRS2NKKLmU4LQWpAfMBseH01KWMGwN-Vl1-zlhPgZ1jgXtkHXofcSHAOEAmHJq5fyWaWBWr7jn28oJ9L0DF-uF5K2N_3k9l7eeo16_LOagWZcHvnbuE/s320/Devendra-Satyarthi-41.jpg" width="200" /></a></div>
<div>ऐसे ही सत्यार्थी जी की बड़े कलेवर की और बड़ी पुकार लिए हुए एक कविता है, ‘हिंदुस्तान’। प्रीतलड़ी के मुशायरे में उन्होंने यही कविता पढ़ी थी, जिस पर साहिर लुधियानवी ने कहा था कि सत्यार्थी हिंदुस्तान को जितना समझता है, उतना शायद ही कोई समझता हो। (नीलयक्षिणी, पृ. 372) वहाँ उन्होंने पंजाबी में यह कविता सुनाई गई थी। बाद में उसका हिंदी उल्था भी उन्होंने स्वयं किया। यह कविता हिंदुस्तान की ऐसी भीतरी सच्चाइयों और अँधेरों में उतरती है कि लगता है, सत्यार्थी जी के शब्दों में सारे हिंदुस्तान का गहगहा चित्र उभर आया है—</div><div>ओ हिंदुस्तान, हल हैं तेरे लहूलुहान</div><div>ओ हिंदुस्तान!</div><div>पैरों में हैं टूटे जूते</div><div>कपड़े तेरे निरे चीथड़े</div><div>पेट कबर सदियों की,</div><div>ओ हिंदुस्तान!</div><div><br /></div><div>मैं कालिदास से कहता</div><div>अब मेघदूत को छोड़ो,</div><div>विरह प्रथम या भूख</div><div>ओ हिंदुस्तान...! (बंदनवार, पृ. 55)</div><div><br /></div><div>यह कविता खुद सत्यार्थी जी की गूँजदार आवाज में सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है। कविता सुनाने के बाद सत्यार्थी जी ने बड़े पसीजे हुए स्वर में कहा था, “आप देख लीजिए, जिस हिंदुस्तान का इसमें जिक्र है, आज का हिंदुस्तान उससे कोई खास बदला हुआ नहीं है। मैं इस बात पर खुश भी हो सकता था कि मैंने ऐसी कविता रच दी, पर नहीं, मेरा दिल तो अंदर ही अंदर रोता है।” (मेरे साक्षात्कार : देवेंद्र सत्यार्थी, पृ. 179)</div><div><br /></div><div>ऐसे हिंदुस्तान में कोई परदेसी ‘हातो’ (कश्मीरी मजदूर) अपनी हूरजादी लाडली के दुलहिन रूप की कल्पना करते ही यह सोचकर उदास हो जाता है कि आखिर उसकी संतान को भी तो इसी तरह हातो बनकर देश छोड़ना पड़ेगा। ऐसे ही कवि की हिम्मत है कि वह अपनी प्रेयसी का यह ऊबड़-खाबड़ चित्र आँकने में भी शर्मिंदगी न महसूस करे—</div><div>रे मेरी प्रेयसि की नाक</div><div>है कुछ-कुछ बेडौल</div><div>झाँक रहीं हड्डियाँ गले की</div><div>साधारण-सा रूप</div><div>मुख की रेखाएँ भी हैं बस</div><div>छिन्न-भिन्न-सी</div><div>फिर भी मेरा मन उमड़ा पड़ता है</div><div>श्यामल सघन कुंतलों की छाया में</div><div>जहाँ झाँकते नयन सलोने उन्मीलित मदमाते। (बंदनवार, पृ. 106)</div><div><br /></div><div>बड़ी ही सघन संवेदना के साथ लिखी गई इस आत्मपरक कविता में सत्यार्थी जी के पथिक रूप का भी चित्रण है। जिधर भी उनके पैर मुड़ते हैं, उनकी प्रिया थके होने के बावजूद अपने प्रिय की खुशी की खातिर बिना कोई शिकायत किए, पैरों की अभ्यस्त गति से साथ-साथ चल पड़ती है। प्रेम में सीझे हुए पति-पत्नी के दांपत्य की यह एक अकथ कथा है, जो सत्यार्थी जी के इन शब्दों में उतर आई है—</div><div>मैं हूँ पथिक </div><div>पैर में चक्कर</div><div>देश-देश के लंबे पथ-संदेश</div><div>नित सुनता है मेरा मन</div><div>रहती सदा एक ही धुन।</div><div>मेरी प्रेयसि पथ-पथ की अभ्यस्त</div><div>चल पड़ती है उधर जिधर मैं हो लेता हूँ</div><div>न हँसकर, न रोकर</div><div>नयनों में प्रिय नयन पिरोकर। (वही, पृ. 106)</div><div><br /></div><div>किसी सिद्धहस्त कलाकार की तरह कुछ ही रेखाओं में समूचा चित्र उतार देने में सत्यार्थी जी को कमाल का महारत हासिल है। इसीलिए ‘संथाल कुलवधू’ कविता में मातृत्व भार से दबी, किसी सुंदर संथाल कुलवधू का रूप उन्हें ऐसा मोहक और तृप्तिदायक लगता है—</div><div>ज्यों अंडा सेने से पहले </div><div>नेह हिलोरें खाकर,</div><div>मटमैली कबूतरी का जी थर्राया!</div><div><br /></div><div>सच पूछिए तो दांपत्य संबंधों की मीठी छुअन और रागात्मकता सत्यार्थी जी की कई कविताओं में है। अद्भुत लयात्मकता में ढली सत्यार्थी जी की एक बहुचर्चित कविता ‘ब्याह के ढोल’ की उठान बड़े मधुर, अलसित वातावरण में होती है। एक हाथ में ठोड़ी टेके, एक हाथ से पर्दा थामे दुलहन से कवि मुखातिब है, “लो बजे ब्याह के ढोल और गूँजी शहनाई अलसाई-सी / जरा रेडियो को ऊँचा कर दीजो, दुलहिन!” लेकिन बाद में मशीनी मानव के मशीनी प्यार का खयाल आया तो—</div><div>छि: ये कागजी फूल और छि: वेणी सेंट से महकाई-सी</div><div>जरा रेडियो को ऊँचा कर दीजो दुलहिन।</div><div>ढोल उधर—और इधर मशीनी युग के मानव,</div><div>ढोल उधर—और इधर फौलादी युग के दानव,</div><div>प्रेम नया क्या होगा? यह वही कारबन कॉपी। (वही, पृ. 44)</div><div><br /></div><div>[3]</div><div>सत्यार्थी जी की कुछ कविताओं में प्रेम की बड़ी अछूती अभिव्यक्ति है। कुछ खुली-अधखुली सी, और मिसरी सरीखी मीठी। ‘शाल’ ऐसी ही एक सुंदर और कोमल कविता है जिसमें प्रेम की गहरी कशिश है, पर साथ ही भीतर एक द्वंद्व भी है। कविता में उनका मन दौड़-दौड़कर शाल भेंट करने वाली कशमीरी युवती की ओर जाता है—</div><div>कहती थी—सँभालकर रखियो</div><div>आगे सरक न जाए शाल।</div><div>मैंने कहा—पड़े क्या अंतर?</div><div>इन हाथों का स्पर्श रहेगा।</div><div>बोली, शाल गँवा मत देना</div><div>मधुर स्नेह का चिर प्रतीक यह।</div><div>स्नेहमयी की हँसी बन गई</div><div>प्रश्नचिह्नï-सी। (वही, पृ. 47)</div><div><br /></div><div>तभी उनका फक्कड़ रूप जागता है—यह शाल किसी को दे दूँ तो? कोई-कोई तो फटे अँगोछे को भी तरसता है। शाल मिल जाए तो खुशी से नाच न उठेगा! मगर फिर वही तरल अनुरोध याद आता है--‘आगे सरक न जाए शाल’ और वे अपनी सोच की धारा को जबरन मोड़ देते हैं।</div><div><br /></div><div>ऐसे ही एक नर्तकी पर मन की गहरी भावाकुलता के साथ लिखी गई सत्यार्थी जी की कविता सचमुच लाजवाब है। एकदम अलहदा सी भी। सत्यार्थी जी को मुजराघर के लाल फर्श पर नाचती ‘नर्तकी’ का खयाल आता है, तो कुछ ही देर में वह माँ की शक्ल ले लेती है और वे स्वयं को उसकी गोद में फूट-फूटकर रोता हुआ पाते हैं। </div><div>लंबी कविता ‘नर्तकी’ की शुरुआत में उसके विलास भरे रूप और हावभावों का वर्णन है, जो देखने वालों को व्याकुल और अधीर कर देता है और इस सुख-विलास की कीमत चुकाने के लिए खुली जेबों से सिक्के गिरने लगते हैं। हालाँकि कवि दूसरे छोर पर जाकर चीजों को देखता है, तो भीतर एक गहरी उथल-पुथल से भर जाता है। कविता का अंत मानो करुणा से भीगा हुआ सा है—</div><div>देखीं बिकती हुई नारियाँ</div><div>सब की सब घुन लगी हुई पीढ़ी की</div><div>ये पददलित बेटियाँ</div><div>सभी उर्वशी की वे बहनें</div><div>मूर्तिमान हो उठी शीघ्र</div><div>युग-युग की पीड़ा</div><div>पीडि़त यह नारीत्व</div><div>और इसकी यह प्रतिमा</div><div>बनी आज माँ मेरी</div><div>मेरी जननी यह नारी। (वही, पृ. 116)</div><div><br /></div><div>‘बंदनवार’ की बिल्कुल अलग लय-छंद वाली कविताओं में मणिपुरी लोरी भी है जिसे मानो स्नेह, वात्सल्य और ममता के तारों से जड़कर एक सुंदर, सपनीला कलेवर दिया गया है। सत्यार्थी जी अपनी लोकयात्राओं में बहुत बार मणिपुर भी गए, जहाँ का नैसर्गिक वातावरण और नए-नए रंगों में रँगी प्रकृति की अछूती छवियाँ उन्हें बार-बार अपनी ओर खींचती थीं। मणिपुर पर लिखा गया सत्यार्थी जी का बड़ा ही जीवंत और भावनात्मक रेखाचित्र पढ़ने लायक है। पर मणिपुर की इस स्वर्गिक सौंदर्य आभा के बीच ही कहीं एक मणिपुरी माँ की ममतालु छवि भी उनके जेहन में अटकी रह गई, जो इस कविता में उतर आई है—</div><div>निद्रापथ पर विजयपताका फहराओ रे माँ बलिहार,</div><div>सो जा, सो जा, सो जा रे, सो जा मणिपुर राजकुमार!</div><div>ज्यों कपास की डोंड़ी में सोता है पैर पसार,</div><div>एक कीट नन्हा-सा, श्वेत, मृदुल सुकुमार</div><div>माँ के स्नेह-विकास, सो जा,</div><div>प्यार भरे इतिहास सो जा,</div><div>सौ-सौ हाथी रोज सिधाएँ हम निद्रापथ के इस पार,</div><div>कल जब तुम जागोगे सोते होंगे हाथी पैर पसार,</div><div>सो जा मणिपुर राजकुमार! (वही, पृ. 95)</div><div><br /></div><div>और दूसरे छोर पर, सभ्यता की गोद में पल रहे कॉफी हाउस के ‘ढलके-ढलके जूड़े / उभरे-उभरे सीने / फर्श चूमते आँचल’ की असलियत भी उनकी सतर्क नजरों से छिपी नहीं हैं। वहाँ चेहरों के भीतर चेहरे छिपाए लोग कहते कुछ और हैं, बोलते कुछ और—</div><div>“धरती का सीना लाल!”</div><div>“भूखा है बंगाल!”</div><div>“थोड़ा मेरी ओर सरक आओ—मिस पाल।” (वही, पृ. 162)</div><div><br /></div><div><br /></div><div>[4]</div><div>सत्यार्थी जी ने पंजाबी में भी खूब कविताएँ लिखीं हैं और बहुत डूबकर लिखी हैं। इनमें कुछ कविताओं की वहाँ बार-बार चर्चा होती है। हिंदी में जो ‘प्रेयसी’ कविता है, वह पहले पंजाबी में ही लिखी गई थी। यह कविता उन्होंने पत्नी शांति सत्यार्थी पर लिखी थी, जिन्हें आखिरी दिनों में उन्होंने एक सुंदर सा नाम दिया था, ‘लोकमाता’।</div><div><br /></div><div>इस कविता में सत्यार्थी जी ने अपनी चिरसंगिनी के चेहरे की उलझी-उलझी रेखाओं का इतना कमाल का पोर्ट्रेट उपस्थित कर दिया है कि बार-बार इसका जिक्र किया जाता है। अमृता प्रीतम ने ‘नागमणि’ के एक अंक में इसकी बहुत तारीफ की थी। गहरी आत्मीयता के रंगों में रँगी हुई इस कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं—</div><div>मेरी नाजो नार</div><div>नहीं कोई हीर</div><div>न मैं हाँ राँझा,</div><div>फिर वी साडा प्यार</div><div>अते सुख-दुख है साँझा।</div><div>इश्क चनाब विच दूर तीकण</div><div>लंबी ताड़ी</div><div>काश, असीं वी ला सकदे,</div><div>ते ताँ गलबकड़ी पा सकदे</div><div>हे प्यारी!</div><div>भावें नक्क मेरी नाजो दा कुझ बेडौला</div><div>गल चों झाँके मुठ हड्डियाँ दी,</div><div>नख-शिख हौला,</div><div>बाकी वी मुख-मत्था सारा</div><div>मसाँ गुजारा...!</div><div><br /></div><div>(यानी मेरी प्यारी पत्नी कोई हीर नहीं है और न मैं कोई राँझा हूँ। फिर भी हमारा प्यार और सुख-दुख साझा है। काश, इश्क के चिनाब में हम भी दूर तक तैर सकते, और एक-दूसरे को उसी तरह बाँहों में बाँध पाते, हे मेरी प्यारी! भले ही मेरी पत्नी की नाक कुछ बेडौल है और गले से ढेर सारी हड्डियाँ झाँकती हैं, नख-शिख उसका बड़ा साधारण है और बाकी चेहरा भी बस कुछ ठीक-ठाक सा, गुजारे लायक ही...!)</div><div><br /></div><div>यह कविता मानो हिंदुस्तानी दांपत्य के भीतरी राग और सौंदर्य की एक गहरी तान सरीखी है, जिसमें बाहरी रूखेपन में भीतर का सच्चा अनाविल सौंदर्य लिपटा-सा चला आया है। कविता सुनाने के बाद सत्यार्थी जी मानो इसी गहन सौंदर्य की थाह लेते हुए कहते हैं—</div><div>“जिस साथी के साथ आप रहते हैं, जिसके साथ जिंदगी की धूप-छाँह सहते हुए आगे बढ़ते हैं, उससे ज्यादा सुंदर दुनिया में कोई और नहीं होता। आपको सही बताऊँ, अपनी पूरी यात्रा में जितना साथ मुझे इनका मिला है, न मिला होता तो मैं दो कदम भी न चल पाता।” (देवेंद्र सत्यार्थी : एक भव्य लोकयात्री, पृ. 177)</div><div><br /></div><div>इसी तरह सत्यार्थी जी ने एक कविता बेटी पारुल पर भी लिखी थी जो अमृता प्रीतम को बहुत पसंद थी। उसमें भी उनका स्नेह और सौंदर्यबोध एक बिल्कुल नए और अद्भुत बिंब में ढल गया है—</div><div>पारुल मेरी बच्ची</div><div>नवें तुरे बेराँ दी हाण,</div><div>दुध दी दंदी कच्ची</div><div>बिस्कुट वाँगों भुर-भुर जांदी</div><div>पारुल दी मुसकान...!</div><div><br /></div><div>(यानी पारुल—मेरी बेटी इस मौसम में बस अभी हाल में ही नए-नए आए बेरों सरीखी है। उसके दूध के कच्चे दाँत हैं। उसकी मुसकान बिस्कुट की तरह बिखर-बिखर जाती है...!)</div><div><br /></div><div>इस पर खुद सत्यार्थी जी की टीप है—</div><div>“इस कविता में यह जो सिमली है, ‘बिस्कुट वांगों भुर-भुर जांदी पारुल दी मुसकान’ इसे बहुत पसंद किया गया था। अमृता प्रीतम का कहना था कि पूरे पंजाबी साहित्य में इस तरह की उपमा इससे पहले कहीं नहीं मिलती और ये पंक्तियाँ पढ़ते ही एक खिलखिलाती हुई लड़की सामने आ जाती है।” (वही, पृ. 178)</div><div><br /></div><div>सचमुच सत्यार्थी जी के पूरे कविता-संसार में ऐसी कोई दूसरी कविता नहीं है। इससे यह भी पता चलता है कि अपनी खानाबदोशी और अलमस्ती के बावजूद पारिवारिक स्नेह की भावनाएँ कितने गहरे तक उनके भीतर धँसी थीं। भले ही वे ‘दुनियादार’ नहीं हुए, पर ‘दुनिया’ से प्यार करना उन्हें आता था। और इस दुनिया में बेशक घर-परिवार की दुनिया भी शामिल थी।</div><div><br /></div><div>सत्यार्थी जी का कवि मनमौजी कवि है, जो घर हो या बाहर, कहीं भी कुछ अलग-सा देखता है, तो वह खुद-ब-खुद उसके शब्दों में उतरने लगता है। ऐसी ही एक कविता उन्होंने चंडीगढ़ में रहते हुए चंडीगढ़ शहर के बारे में लिखी थी। हुआ यह कि एक बार चंडीगढ़ में उन्होंने एक मित्र के साथ रहते हुए काफी दिन गुजारे। उन्हीं दिनों एक मिस दास भी थीं उड़ीसा की, जो वहाँ उर्दू सीखने आई हुई थीं। सत्यार्थी जी के मन में एक अनूठा-सा बिंब बना और उन्होंने वहीं लॉन पर बैठकर कविता लिखी—</div><div>तू आप सोच मिस दास,</div><div>चंडीगढ़ दा की इतिहास?</div><div>मूर्ति विचकार त्रै बंदर—</div><div>कन्ना उत्ते, अक्खाँ उत्ते</div><div>बुल्लाँ उत्ते हत्थ उनाँ दे...</div><div>जेकर होंदा चौथा बंदर </div><div>उसदे हत्थ कित्थे हुंदे?</div><div>इस मौसम दा नाँ मधुमास,</div><div>तू आप सोच मिस दास,</div><div>चंडीगढ़ दा की इतिहास...?”</div><div><br /></div><div>(यानी, ओ मिस दास, तुम खुद ही सोचो कि भला चंडीगढ़ का क्या इतिहास है! एक मूर्ति में तीन बंदर नजर आ रहे हैं। उनमें एक ने कानों पर हाथ रखा हुआ है, दूसरे ने आँखों पर, तीसरे ने मुँह पर। भला अगर चौथा बंदर भी होता, तो उसके हाथ कहाँ होते? इस मौसम का नाम मधुमास है। ओ मिस दास, तुम खुद ही सोचो कि चंडीगढ़ का क्या इतिहास है!)</div><div><br /></div><div>यह कविता सुनाने के बाद बातों की रौ में बहते हुए सत्यार्थी जी ने बताया था, “चंडीगढ़ में लोग दीवाने थे इस कविता के।” (वही, पृ. 177)</div><div><br /></div><div><br /></div><div>[5]</div><div>सत्यार्थी जी ने पाब्लो नेरूदा की ‘स्पेन’ कविता समेत विश्व के अनेक प्रमुख कवियों की कविताओं का एकदम बहती हुई भाषा में अनुवाद किया है, जिसका एक झलक उनकी लिखी हुई ‘बंदनवार’ की लंबी भूमिका में मिल जाती है। विष्णु खरे ने एक बार सत्यार्थी जी द्वारा किए गए पाब्लो नेरूदा के अनुवाद की काफी सराहना करते हुए कहा था कि संभवतः देवेंद्र सत्यार्थी हिंदी में पाब्लो नेरूदा के पहले इतने सशक्त और अधिकारी अनुवादक हैं।</div><div><br /></div><div>यों सत्यार्थी जी के ‘बंदनवार’ संग्रह में उनकी अनूदित कविताओं का एक खंड अलग से है। यही नहीं, सत्यार्थी जी आज के कवि के लिए विश्व कविता का गंभीर अध्येता होना जरूरी समझते हैं—</div><div>“आज के कवि के लिए सचमुच यह आवश्यक हो गया है कि वह विश्व की कविता का अध्ययन करे। इससे कवि के सम्मुख नए क्षितिज उभरते हैं, उसकी आँखें अधिक देख सकती हैं, मस्तिष्क अधिक सोच सकता है। हाँ, इसमें अनुकरण प्रवृति का खतरा अवश्य है जिससे एक जागरूक कवि हमेशा बच सकता है।” (बंदनवार, दृष्टिकोण, पृ. 31)</div><div><br /></div><div>यही नहीं, वे स्पष्ट रूप से आधुनिकता की नई शैलियों के साथ खड़े हैं और कविता की नई राहों के अन्वेषियों का खुली बाँहों से स्वागत करते हैं। यहाँ तक कि पुरातनवादियों को वे अपनी सीमाओं और जकड़न से मुक्त होकर खुली दृष्टि से नए बोध की कविता को देखने की सलाह देते हैं—</div><div>“मैं यह कहने की धृष्टता तो नहीं कर सकता कि पुरानी छंदोबद्ध शैली में आधुनिक युग के अनुरूप अच्छी कविता का सृजन असंभव है। हाँ, यह अवश्य कहूँगा कि जिस प्रकार पुरानी कविता में भी निरंतर विकास हुआ है, और प्रत्येक कवि की प्रत्येक कविता काव्य की कसौटी पर एक समान बहुमूल्य साबित नहीं होती, उसी प्रकार हो सकता है कि नई शैली की भी अनेक कविताओं का साहित्यिक मूल्य बहुत अधिक न हो, पर किसी को आज यह कहने का दुस्साहस तो हरगिज नहीं करना चाहिए कि नई शैली की कविता एकदम मिथ्या प्रलाप है—एकदम मस्तिष्क का षड्यंत्र, जिसमें हृदय की जरा भी परवाह नहीं की जाती।” (वही, पृ. 12)</div><div><br /></div><div>काश, सत्यार्थी जी की कविताओं को आज नए नजरिए से देखा-परखा जाए, तो ऐसे बहुत-से आबदार मोती हाथ आएँगे, जो उनकी कवि-शख्सियत को समझने में तो मदद देंगे ही, हिंदी कविता का भी एक अलग ‘इतिहास’ उससे सामने आएगा। सचमुच सत्यार्थी जी की कविताओं में जीवन की धड़कन और उसका संगीत एक नई लय में बह रहा है जिसमें नए और पुराने के बीच संवाद का एक नया पुल बनता नजर आता है। </div><div><br /></div><div>आज जब कविता के अंत या फिर ठहराव की बात की जाती है, तो सत्यार्थी जी की कविता ‘एक नई संभावना’ के खिड़की-दरवाजे खोलती जान पड़ती है। संभवत: उससे हमें आगे की कुछ अलक्षित दिशाएँ हासिल हों। इस लिहाज से जीवन की ऊर्जा से भरपूर तथा नए बनते हिंदुस्तान की एक अलहदा पहचान लिए, सत्यार्थी जी की खुली और स्वच्छंद कविताएँ हमारे लिए किसी बहुमूल्य दस्तावेज सरीखी हैं।</div><hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-25136452439531334862024-02-29T23:06:00.001-05:002024-02-29T23:22:31.334-05:00विश्व पुस्तक मेले में प्रकाश मनु की पुस्तकों का लोकार्पण एवं परिचर्चा<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEginv-ks6gaXut_EyVurRak2WuUDDfonz7i5DmjokKkYpzY6LYJgFYVLi0RH2HJLhsCRC2VXKMxIRs8fs4oGj3iqpSVi8Yg2aJkXwxyVD8xHIzGK8WtfZ-wLv0yoq6h04iL1eiNNCKiZx8A8I2mPrFmJL-Y7i1kdhFk0LdfQKN7bFVyL5UUGIuzsXeRaNg/s222/shaheen.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="222" data-original-width="181" height="222" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEginv-ks6gaXut_EyVurRak2WuUDDfonz7i5DmjokKkYpzY6LYJgFYVLi0RH2HJLhsCRC2VXKMxIRs8fs4oGj3iqpSVi8Yg2aJkXwxyVD8xHIzGK8WtfZ-wLv0yoq6h04iL1eiNNCKiZx8A8I2mPrFmJL-Y7i1kdhFk0LdfQKN7bFVyL5UUGIuzsXeRaNg/s1600/shaheen.jpg" width="181" /></a></div><h3 style="text-align: left;">प्रस्तुति: शाहीन</h3></div><div><br /></div><div>हर बार की तरह ही इस बार भी दिल्ली में लगा विश्व पुस्तक मेला लेखकों और उनकी लिखी पुस्तकों का साहित्यिक कुंभ ही था, जिसे पुस्तक लोकार्पण के साथ ही विभिन्न परिचर्चाओं और साहित्यिक गोष्ठियों ने भी खासा संपन्न किया। पुस्तक मेले का महत्त्व और आकर्षण तो इससे बढ़ा ही। </div><div>दिल्ली में लगे विश्व पुस्तक मेले में सुप्रसिद्ध साहित्यकार, संपादक और बच्चों के प्रिय लेखक प्रकाश मनु की किताबों के लोकार्पण की धूम रही। बाल मन के चितेरे प्रकाश मनु साहित्य अकादेमी के पहले ‘बाल साहित्य पुरस्कार’ से सम्मानित लेखक हैं और उन्होंने बाल साहित्य को भारतीय साहित्य के परिदृश्य में व्यापक पहचान दिलाई है। लीक से हटकर लिखे उपन्यासों ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ के अलावा कहानियों और कविताओं में भी इनके द्वारा किए गए प्रयोग आज भी मानक की तरह लिए जाते हैं। मनु जी ने हिंदी में बाल साहित्य का पहला बृहत इतिहास ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ लिखा है, जो स्वयं में मील के पत्थर सरीखा ऐतिहासिक कार्य है। </div><div>विश्व पुस्तक मेले में 15 फरवरी 2024 को प्रकाश मनु द्वारा रचित बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचित पुस्तकों का साहित्य अकादेमी, नयी किताब प्रकाशन समूह और लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस की ओर से लोकार्पण एवं परिचर्चा का आयोजन किया गया। सर्वप्रथम साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित बाल साहित्य शृंखला के अंतर्गत प्रकाश मनु की चार नई बाल पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। इन पुस्तकों के शीर्षक हैं—‘लो नाव चली कुक्कू की’, ‘आहा रसगुल्ले’, ‘तुम भी पढ़ोगे जस्सू?’ और ‘आओ मिलकर खेलें नाटक’। इनमें ‘लो नाव चली कुक्कू की’ में बच्चों के लिए लिखी गई मनु जी की बड़ी सरस कविताएँ हैं। ‘आहा रसगुल्ले’ तथा ‘तुम भी पढ़ोगे जस्सू?’ में बच्चों के लिए लिखी गई रोचक कहानियाँ हैं तो ‘आओ मिलकर नाटक खेलें’ में मनु जी के खेल-खेल में सीख देने वाले मजेदार बाल नाटक हैं।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1c_GpfoIzsPSMOpz_GDCVC3OF0mMz9EhbCr9ZKqPSY7JkEA7YjkY2sFSQM9vDea6RIgXUyCYb7oj-j0LgpxCwblYXxDhyphenhyphenyxjy3sj6Ot3moplT1hCvNYduBMUq5VmeUKvMVVW_bM6Fenxa-ZEJccwezXnanvLLuNfhmI-PMkZam4Z57d2qZoO17UF52bI/s800/Book-Fair-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="378" data-original-width="800" height="151" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1c_GpfoIzsPSMOpz_GDCVC3OF0mMz9EhbCr9ZKqPSY7JkEA7YjkY2sFSQM9vDea6RIgXUyCYb7oj-j0LgpxCwblYXxDhyphenhyphenyxjy3sj6Ot3moplT1hCvNYduBMUq5VmeUKvMVVW_bM6Fenxa-ZEJccwezXnanvLLuNfhmI-PMkZam4Z57d2qZoO17UF52bI/s320/Book-Fair-1.jpg" width="320" /></a></div><div><br /></div><div>बच्चों के लिए लिखी गई अपनी कविता, कहानी और अन्य रचनाओं के बारे में बोलते हुए प्रकाश मनु कहते है, “सच कहूँ कि मैं लिखे बगैर रह ही नहीं सकता। जैसे आप साँस लेते हैं, वैसे ही मैं लिखता हूँ। बचपन में जो कहानियाँ मेरी माँ और नानी सुनाया करती थीं और उन कहानियों से जुड़े जो सपने मुझे आया करते थे, उन्हीं को मैंने नए रंग-रूप में ढालकर अपनी बाल रचनाओं में उतारा है।” </div><div>आज के बदले हुए समय और परिस्थितियों के मुताबिक मनु जी की बाल रचनाओं के कथ्य में बहुत बदलाव और विस्तार आया है। इस बारे में वे कहते हैं, “कहानियाँ बच्चों को खेल-खेल में बहुत कुछ सिखाती है। जो काम गूढ़ बातों और उपदेशों से भरे बड़े-बड़े पोथे नहीं कर पाते, उसे नन्ही-नन्ही रोचक कहानियाँ बड़े मजे से कर दिखाती हैं। आज के जमाने के बच्चों की समस्याओं को मैंने बहुत रोचक और कौतुकपूर्ण ढंग से सामने लाने की कोशिश की है। इन रचनाओं के बाल पात्र बिना कुछ कहे बच्चों को कहीं-न-कहीं बड़ी सीख दे जाते है।”<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghTrpDSjH2Flx6cP4b_B3r5Nee8e_rVpLAUFZNW9wsbBBZQS4_To7W3_9ElXKPyrq5hvdOfQCtyMp6uQc2tHZC96vMKI1GgAp9ttCI0amPk2pBJoBoavrxqSTFXsHO8npl1YyTMsPgAF4cgKnf0G-3pofIb_y68uxjkgJa698syT85Jq4CRMFMF9pbiAc/s800/Book-Fair-2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="378" data-original-width="800" height="151" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghTrpDSjH2Flx6cP4b_B3r5Nee8e_rVpLAUFZNW9wsbBBZQS4_To7W3_9ElXKPyrq5hvdOfQCtyMp6uQc2tHZC96vMKI1GgAp9ttCI0amPk2pBJoBoavrxqSTFXsHO8npl1YyTMsPgAF4cgKnf0G-3pofIb_y68uxjkgJa698syT85Jq4CRMFMF9pbiAc/s320/Book-Fair-2.jpg" width="320" /></a></div></div><div>इस अवसर पर वक्ता के रूप में मंच पर उपस्थित प्रसिद्ध साहित्यकार दिविक रमेश जी ने भी बाल साहित्य के क्षेत्र में प्रकाश मनु की उपलब्धियों और इन पुस्तकों की विषय-वस्तु पर बात की। सुनीता मनु, शकुंतला कालरा, श्याम सुशील, अलका सत्यार्थी तथा अनिल जायसवाल आदि अनेक सुधीजन वहाँ उपस्थित थे। कार्यक्रम का सुंदर संचालन कुमार अनुपम ने किया। </div><div>इसके बाद नयी किताब प्रकाशन समूह की ओर से दोपहर 2 बजे प्रकाश मनु की बाल पुस्तकों का लोकार्पण एवं परिचर्चा का आयोजन किया गया। इसमें प्रकाश मनु जी की बच्चों के लिए लिखी गई कहानियों के चार संग्रहों ‘जानकीपुर की रामलीला’, मुनमुनलाल ने बनाई घड़ी’, चिड़ियाघर में चुनमुन’ तथा ‘नटखट कुप्पू और दादी माँ’ का लोकार्पण हुआ। साथ ही बाल साहित्य से जुड़े मुद्दों पर रुचिकर परिचर्चा हुई। प्रकाश मनु जी के इन कहानी संग्रहों में बाल मनोविज्ञान के साथ-साथ बाल मन की निर्मल झाँकी दिखाई पड़ती है। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijkFNoEIUmYidbYG0Idd0d4mU7mI-gBPBuzk3H_7nRo4P0cwMPpeldZSDXExUINO6EtlZQdzoTCEP0gjU90KDPOC3mfq4n4jJoFVtSy33VYwE2Oj7VP55GjtffPDKsXtDAvE7VMY1dEaEoq8ELF1W-4eYm7NMrk0SIGfGuMjXpsXEbt3EfaSehJFgeqkg/s800/Book-Fair-3.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="477" data-original-width="800" height="191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijkFNoEIUmYidbYG0Idd0d4mU7mI-gBPBuzk3H_7nRo4P0cwMPpeldZSDXExUINO6EtlZQdzoTCEP0gjU90KDPOC3mfq4n4jJoFVtSy33VYwE2Oj7VP55GjtffPDKsXtDAvE7VMY1dEaEoq8ELF1W-4eYm7NMrk0SIGfGuMjXpsXEbt3EfaSehJFgeqkg/s320/Book-Fair-3.jpg" width="320" /></a></div></div><div>मनु जी ने अपनी इन कहानियों के विषय के बारे में विस्तार से बात करते हुए कहा, “कहानी के साथ मेरा एक अलग सा रिश्ता है। मन का रिश्ता। बचपन से ही मैं जो कहानी सुनता था, उस कहानी के नायक के साथ मेरा अजीब सा जुड़ाव हो जाता था। उसके दुख-तकलीफों के बार में मैं सुनता तो आँखों में आँसू आ जाते थे। और उससे जुड़ा कोई हँसी-खुशी का पल होता तो मधुरता के साथ खूब हँसी आती, मन में अजीब सा तमाशा होने लगता। जब बच्चों के लिए मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, तो पहले पहल जो बात मन में आई, वह यह कि मेरी कहानियों के नायक ऐसे ही होने चाहिए, जो बच्चों के दिल में उतर जाएँ। उन्हें बिना कुछ कहे, अच्छा और भला इनसान बनाएँ।” <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhedwNEeSgRd7FFCtal6UznAs2slXE_ohbr_TOJoToPF1QrBckRybTkT9VZ0g6xvM3kcu9UCiZcwtgyZmi7edlx3Y4xnyOqheJ6zcIlDW-RNTe3IeAKVmlnGbhujFPpY0w8duis4TsyxNIOkqyc2kyXrhusR8xwXx0zsNueWr0s7c0IkOknDPCGfsg8epg/s799/Book-Fair-4.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="449" data-original-width="799" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhedwNEeSgRd7FFCtal6UznAs2slXE_ohbr_TOJoToPF1QrBckRybTkT9VZ0g6xvM3kcu9UCiZcwtgyZmi7edlx3Y4xnyOqheJ6zcIlDW-RNTe3IeAKVmlnGbhujFPpY0w8duis4TsyxNIOkqyc2kyXrhusR8xwXx0zsNueWr0s7c0IkOknDPCGfsg8epg/s320/Book-Fair-4.jpeg" width="320" /></a></div></div><div>आगे बच्चों के विषय में मनु जी कहते है, “सच कहूँ तो मैंने कहीं ईश्वर के दर्शन नहीं किए। मैं सब जगह गया, लेकिन मुझे ईश्वर कहीं नहीं मिला। वह मिला तो बस, छोटे-छोटे बच्चों में, उनकी भोली मुसकानों में। हर बच्चा जैसे ईश्वर का ही रूप हो।”</div><div>मनु जी की इन बाल कहानियों में आज की समस्याओं के साथ-साथ बच्चों के अंतर्मन की उलझनें भी बखूबी सामने आती हैं। आसपास के वातावरण से किस प्रकार बच्चों के व्यक्तित्व में परिवर्तन आता हैं, यह भी पता चलता है। ये कहानियाँ ऐसी हैं कि बच्चे पढ़ेंगे तो पढ़ते ही चले जाएँगे, और एक बार पढ़ने के बाद कभी भूलेंगे नहीं। साथ ही बाल कहानी की ये पुस्तकें बड़े सुंदर कलेवर में छपी हैं। </div><div>इस अवसर पर प्रकाश मनु जी की शख्सियत और उनकी रचनाओं के विषय में बोलते हुए अलका सत्यार्थी जी ने कहा, “यह जो प्रकाश मनु नाम वाला भोला-भाला शख्स हमारे सामने बैठा है, अभी यह बच्चा ही है। तभी तो बच्चों के अंतर्मन तक पहुँचकर उनकी आशा, निराशा, खुशी, खिलखिलाहट और नादानी को उकेर पाता है। प्रकाश मनु बच्चों के नायक है। बाल साहित्य के प्रणेता। आज के डिजिटल युग में भी बच्चों के हाथ उनका साहित्य देने वाले हमारे इस बालनुमा भाई को सलाम!” आगे उन्होंने कहा, “मनु जी ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में कलम चलाई है। चाहे बाल साहित्य हो, संस्मरण हो, कहानी, उपन्यास हो या फिर साक्षात्कार। उनकी भाषा इतनी सरल और मधुर-मनोरंजक है, जैसे सामने बैठे बातचीत कर रहे हैं। निश्छल मन से कही गई ये बातें मनु जी को और अधिक बाल मन की ओर ले जाती हैं।” </div><div>शकुंतला कालरा, श्याम सुशील, समीर गांगुली, प्रेमपाल शर्मा, अखिलेश श्रीवास्तव चमन और अनिल जायसवाल आदि वक्ताओं ने भी प्रकाश मनु जी से जुड़े अपने अनुभवों और मधुर स्मृतियों को साझा करते हुए, उनके बाल रचनाकर्म पर दृष्टि डाली। बाल पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े प्रकाश मनु जी के अवदान को भी वक्ताओं ने प्रेम से याद किया। इस कार्यक्रम का संचालन शाहीन ने सफलतापूर्वक किया।</div><div>इसके बाद लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस के स्टॉल पर प्रकाश मनु जी की ‘यादें घर आँगन की’, ‘उस शहर में हमारा घर’, ‘बड़े साहित्यकारों के साथ’, ‘चुनी हुई कविताएँ’, ‘बच्चों के तीन उपन्यास’ तथा ‘प्रकाश मनु की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ के अलावा प्रकाश मनु एवं पुष्पेंद्र सिंह चौहान द्वारा संपादित ‘श्रीनाथ सिंह की श्रेष्ठ बाल कविताएँ’ पुस्तक का लोकार्पण किया गया। इनमें ‘यादें घर आँगन की’ पुस्तक में लेखक ने अपने बचपन के साथ-साथ लेखक होने की पूरी कहानी कही है। ‘उस शहर में हमारा घर’ उनकी पचास बरस लंबी कथा-यात्रा में से चुनी हुई ऐसी ग्यारह कहानियाँ का संकलन है जिन्हें साहित्य जगत में भूरि-भूरि प्रशंसा मिली। ‘बड़े साहित्यकारों के साथ’ पुस्तक के संस्मरणों को स्वय मनु जी ने ‘मेरी लंबी साहित्यिक यात्रा के पड़ाव’ कहा है। इसमें सत्यार्थी जी, रामविलास जी, नामवर जी, त्रिलोचन, रामदरश मिश्र, बाबा नागार्जुन, मटियानी, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, डॉ, माहेश्वर और हरिपाल त्यागी से जुड़ी मर्मस्पर्शी संस्मृतियाँ हैं। जैसे किसी बिरवे को काट-छाँट कर अच्छा खाद-पानी देकर उसे बड़ा किया जाए, वैसे ही ये सारी विभूतियाँ प्रकाश मनु के जीवन में प्रकाश स्तंभ की तरह रहीं। इसी तरह प्रकाश मनु की ‘चुनी हुई कविताएँ’ विराट आख्यान का सूक्ष्म स्पंदन हैं। ‘बच्चों के तीन उपन्यास’ और ‘श्रेष्ठ कहानियाँ’ पुस्तकें बच्चों के भावलोक से गहरे जुड़ी हैं। इनमें बाल मनोविज्ञान की सरस बयानी है और बच्चों की दुनिया का खूबसूरत इंद्रधनुष है। </div><div>‘श्रीनाथ सिंह की श्रेष्ठ बाल कविताएँ’ भी बहुत महत्त्वपूर्ण पुस्तक है, जिसमें पहली बार हिंदी के इस दिग्गज बाल साहित्यकार की श्रेष्ठ कविताएँ एक साथ सामने आ रही हैं। सन् 1901 में जनमे श्रीनाथ सिंह बच्चों के अत्यंत प्रिय लेखक हैं, जिन्होंने हिंदी जगत की कई पीढ़ियों के बचपन को सँवारा। उन्होंने हिंदी की कालजयी साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादन के साथ ही ‘शिशु’, ‘बालसखा’ और ‘बालबोध’ सरीखी बाल साहित्य की श्रेष्ठ पत्रिकाओं का संपादन किया था। पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी उनकी सौ से अधिक बाल कविताओं का प्रकाश मनु तथा पुष्पेंद्र सिंह चौहान ने अथक श्रम और तन्मयता से संचयन और संपादन किया है।</div><div>इन पुस्तकों के लोकार्पण से पूर्व लिटिल बर्ड की निदेशक कुसुमलता सिंह ने सभी उपस्थित साहित्यकारों का अंगवस्त्र से सम्मान किया। </div><div>अपनी इन पुस्तकों में विशेष रूप से ‘बड़े साहित्यकारों के साथ’ पुस्तक की भावभूमि और उसे लिखे जाने की कहानी बताते हुए, प्रकाश मनु जी ने कहा कि बचपन से ही उनके नायक तो साहित्यकार ही थे। वे उन्हें भगवान लगते थे, और उन जैसा हो पाना ही अपने जीवन का सबसे बड़ा सपना लगता था। बाद में बड़े होने पर संयोग से वे दिल्ली आए तो उन्हें हिंदी के बड़े से बड़े दिग्गज साहित्यकारों का सान्निध्य मिला। उन्हें निकट से देखने-जानने का अवसर भी। इसे वे अपने जीवन का सबसे अनमोल खजाना मानते हैं। मनु जी ने बड़े साहित्यकारों से जुड़ी कुछ अविस्मरणीय यादों का जिक्र करते हुए कहा कि ‘बड़े साहित्यकारों के साथ’ पुस्तक में हिंदी के दिग्गज साहित्यकों से जुडी उनकी ऐसी यादें हैं, जो पाठकों को भी एक नई दुनिया में ले जाएँगी। </div><div>इस अवसर पर उपस्थित वक्ताओं में शकुंतला कालरा, सुनीता मनु, अलका सत्यार्थी, प्रेमपाल शर्मा, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, श्याम सुशील आदि ने प्रकाश मनु जी के रचना-कर्म के महत्त्व और इसके विविध पहलुओं की चर्चा की तथा उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया। साथ ही वहाँ उपस्थित प्रायः सभी साहित्य प्रेमियों ने प्रकाश मनु के रचनाकर्म की इस विशेषता को लक्षित किया कि इन पुस्तकों के नाम से ही यह अंदाजा लग जाता है कि प्रकाश मनु के लेखन में बड़ी आश्चर्यजनक विविधता है।</div><div>***</div><div><br /></div><div> एफ-21, अबुल फजल, शाहीन बाग, ओखला, नई दिल्ली, 110025</div><div>चलभाष: 7678391587<hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-77487183184812961622024-02-29T22:43:00.007-05:002024-03-01T08:02:09.540-05:00कहानी: टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की सच्ची कहानी <table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><span style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><span style="clear: right; display: block; margin-left: auto; margin-right: auto; padding-bottom: 1em; padding-top: 1em;"><a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html"><img alt="" border="0" data-original-height="531" data-original-width="369" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiwrPhsW43dxxPqb5mBfad3rU5CGXl3umEhVOYPVN528y0IOJyE7Iye2SI6gsAGcMMsNeR2FnCKsHGFp_BaKV6RVBZyXpaX7dD99EyPHIMYb7vW0h-ezAeQo6cnfQSHuTmpXIF9_nJR_JiS23kkkpq82HFT5iPuYxQx5FJk8w2dcGSGPOuAlRVr1koV/s200/prakash-manu-33.png" /></a></span></span></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html">प्रकाश मनु</a></td></tr></tbody></table>
<h3>- <a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html">प्रकाश मनु</a></h3><div><span style="font-size: x-small;">545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008</span></div><div><span style="font-size: x-small;">चलभाष: 981 060 2327,</span></div><div><span style="font-size: x-small;">ईमेल: prakashmanu334@gmail.com</span></div>
<hr /><div><br /></div><div>यह एक संयोग ही था कि अपने कलकत्ते वाले भतीजे आशु की सगाई के समारोह में जिस टैक्सी से मैं सपरिवार दिल्ली गया, वह टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की थी। यह हमें बाद में पता चला कि वही उसका मालिक था और ड्राइवर भी।</div><div>यह संयोग एक सुखद संयोग इसलिए था कि वह दिन, जैसा कि हम घर से ही आशंका लेकर चले थे, हमारे जीवन के तमाम-तमाम ‘बोझिल’ दिनों में से एक था। बात शायद कुछ गड़बड़झाले में फँसी जा रही है। तो मैं साफ कर दूँ कि सगाई तो सगाई की तरह ही हुई थी और ठीक उसी ‘पंप एंड शो’ के साथ हुई थी, जैसी होती ही है हमारे जैसे मध्यवर्गीय घरों में। और जिसमें भीतर के तमाम दाग-धब्बे ऊपर की चमकदार पालिश-आलिश से छिपा लिए जाते हैं।...यों भी आशु कलकत्ते की किसी बड़ी कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, तो उसका ‘कद’ और ‘कीमत’ भी ऊँची ही हुई! फिर भला ‘शो-शा’ क्यों न होती?</div><div>तो बहरहाल जिस सगाई के लिए हम गए थे, वह हुई और वहाँ तमाम किस्म के नफीस पारिवारिक नाटकों के बीच, जहाँ हैसियतों के हिसाब से सबका अलग-अलग किस्म का स्वागत हो रहा था, ज्यादा अपमानित हुए बगैर हम किसी तरह खुद को बचाकर वापस ले आए, यही शायद उस दिन का सबसे बड़ा सौभाग्य था। अब आपको कैसे समझाऊँ कि इस काम में टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ ने हमारी काफी मदद की—मेरा मतलब उसकी कहानी ने। और कहानी की ओट में छिपे उसके संजीदा चेहरे ने, या हमारी ‘सभ्य’ दुनिया से अछूती उसकी भोली बातों ने...जिससे अगर कोई अपमान-वपमान हुआ होगा, जो हमारे जैसे ‘मिसफिट’ लोगों का होता ही है समाज में, तो हमें कुछ खास वो महसूस नहीं हुआ।</div><div>हम उसकी टैक्सी से उतरकर जब होटल के भीतर खुशबूदार फूल-फाल, लटुटुओं और झाड़-फानूसों से सजे लकदक हॉल में दाखिल हुए, तब भी उसमें और उसकी दुखभरी कहानी में इस कदर खोए रहे कि हमारे साथ क्या-कुछ हुआ...कैसे बारीक आत्मीयता में लपेटकर हमारा वध किया गया और उस फंक्शन में दूसरों के बच्चों की चटक-मटक, चुस्ती की तुलना में हमारी और हमारे बच्चों की मामूली हैसियत और मामूली कपड़ों के कारण कैसी उपेक्षा भरी नजरें हम पर पड़ीं, इस सबकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया। इसलिए कि हमारे भीतर तो ‘कुछ और’ था और हम उसमें पूरी तरह लीन थे।</div><div>रामलाल...! रामलाल दुआ की संजीदा कहानी, जिसका दर्द हमारी कहानी से कई गुना बड़ा और भीतर तक सिहरा देने वाला था।</div><div><br /></div><div>[2]</div><div>यह भी संयोग ही था कि रामलाल दुआ की उस नीली मारुति वैन में, उसकी बगल की सीट पर मैं बैठा था। </div><div>भीषण गरमियाँ थीं, पसीने से लथपथ कर देने वाली। आसमान मुहावरे में नहीं, सचमुच लपटें उगल रहा था और जमीन अंगारा बनी हुई थी। लिहाजा वह मारुति वैन भी लूओं के गरम उच्छ्वास से तप रही थी। छोटी बेटी नन्ही मेरी गोद में थी और मैं लगातार उससे बातें करता जा रहा था। ये बातें करना इसलिए जरूरी था, क्योंकि पेट्रोल की गंध उसके लिए नागवार थी। कोई बस हो, कार या फिर टैक्सी—किसी में भी उसकी यात्रा यातनादायक है। बैठते ही उसे उलटी होती है और मेरी इधऱ-उधर की गपशप शुरू, ताकि उसका ध्यान किसी तरह मेरी बातों और किस्सों में उलझ जाए। </div><div>बीच-बीच में मैं उसे सुझाव देता, “बेटी, नाक को बाहर निकालो, ऐन हवा की सीध में! और हाँ, शाबाश, लंबी साँस लो! अब धीरे-धीरे छोड़ो...!” और छुटकी कभी हँस पड़ती, कभी सीरियसली मेरी बात मानकर वैसा ही करने लगती।</div><div>रामलाल दुआ मुझे उत्सुकता से देख रहा था, तो मैंने उससे कहा कि लड़की की तबीयत खराब हो जाती है पेट्रोल की गंध से, इसीलिए इसका मन लगाना जरूरी है।</div><div>“साब, कहीं से छोटी इलायची मिल जाए, तो थोड़ी-सी ले लेंगे। उससे तबीयत खुद-ब-खुद सँभलती है।” रामलाल दुआ ने सुझाव दिया।</div><div>“छोटी इलायची...?” मुझे झटका-सा लगा, “हाँ-हाँ, इलायची! खूब याद दिलाया, इलायची घर से लेकर तो चले थे, कहाँ गई पुड़िया...?”</div><div>“शायद बुआ जी के घर रह गई।” छुटकी ने आशंका प्रकट की। मगर तब तक बड़की ने किसी जादुई कहानी की तरह पर्स में से इलायची की पुड़िया निकालकर हाथ में रख दी, “लो पापा, मिल गई!”</div><div>इलायची से सचमुच छुटकी की तबीयत कुछ सँभली। एक इलायची मैंने ली, एक रामलाल दुआ को दी...और इलायची चबाते हुए मौसम, चिलचिलाती धूप की तपिश, महँगाई, पोल्यूशन, हर मामले में सरकार की ढिल-पों और बेवकूफी...मौजूदा खराब समय और आने वाले और जयादा खराब समय की चर्चा आदि-आदि से गुजरते हुए हमारी बातचीत कब, कैसे एक अतरंग कथा की ओर मुड़ गई, इसे तो कैसे कहूँ! ये बातें कुछ तय करके तो होती नहीं! बस, चलती हैं तो चल ही निकलती हैं। </div><div>यहाँ तक कि रास्ते में पानी की जरूरत पड़ी तो रामलाल दुआ ने अपनी पानी की बॉटल मुझे पकड़ाते हुए कहा, “बहिन जी को बोलिए, इसमें से पानी ले लें। एकदम साफ पानी है। रास्ते में ठेले-वेले का पानी पीना तो खतरे से खाली नहीं है।” फिर तुरंत इसमें जोड़ा, “मैं तो जी, घर से चलने से पहले दो बार खुद से पूछता हूँ, रामलाल दुआ, पानी लिया? फिर जब तक पानी की बॉटल साथ न रख लूँ, घर से बाहर हरगिज नहीं निकलता।”</div><div>बहरहाल, इसी बातचीत में मालूम पड़ा कि रामलाल दुआ यू.पी. का है—यू.पी. के रामपुर शहर का। शायद मैंने अपने यू.पी. वासी होने की चर्चा की थी, और इसी पर रामलाल दुआ भी दौड़कर अपने गृहनगर जा पहुँचा था। और अब उसकी आँखें चमक रही थीं—कहना चाहिए, काफी असामान्य ढंग से चमक रही थीं! हालाँकि अपने घर और अपने शहर का जिक्र चलने पर उसके चेहरे—एक सीधे-सादे, गोल, शरीफ किस्म के चेहरे पर दुख की कुछ ऐसी झाँइयाँ नजर आईं, जिन्हें मैं चाहूँ भी तो अपने शब्दों में बाँध नहीं सकता।</div><div>तभी पहले-पहल पता चला कि जिस टैक्सी—यानी नीली मारुति वैन को रामलाल दुआ चला रहा है, वह असल में उसी की है।</div><div>तभी पता चला कि उसकी एक बेटी है रिंकी—छुटकी जितनी ही, जिसे वह बहुत प्यार करता है। और एक बेटा है नील, जो बेटी से शायद साल-डेढ़ साल बड़ा है।</div><div>“साब, हमें तो सब कुछ मिला जिंदगी में। हमें किसी से कोई शिकायत नहीं है। हालाँकि जो कुछ गुजरा, सो तो गुजरा...गुजर ही गया! उसका अब क्या सोचना!...किससे क्या गिला?”</div><div>रामलाल दुआ पता नहीं, खुद से कह रहा था या मुझसे? लेकिन उसके स्वर में बेहद संजीदगी थी, जो सीधे दिल में उतरती थी।</div><div>क्यों...? क्यों...? क्या...! क्या हुआ भाई रामलाल दुआ तुम्हारे साथ? मैं पूछना चाहता था, मगर कह नहीं पाया।</div><div>“जिंदगी भी एक नाटक है साब, और वह नाटक कभी खत्म नहीं होता। हमारे मर जाने के बाद भी! कितनी ही कोशिश करें, हम इस नाटक से छूट नहीं सकते। क्यों साब, आपको नहीं लगता?” उसने सवालिया निगाहें मेरी ओर उठा दीं।</div><div>इससे एक गलत ‘सिग्नल’ मेरी पकड़ में आ गया कि रामलाल दुआ का नाटक-वाटक से कोई रिश्ता है, यानी कोई ‘पुराना खिलाड़ी’ है जो कभी थिएटर वगैरह करता रहा है। मुझे अपने एक लँगोटिया यार की याद आई जो नौटंकी के लिए घर से भाग निकला था, और नौटंकी की ‘तीसरी कसम’ टाइप कोई एक साँवले बदन की दुबली-पतली-सी, तीखे नाक-नक्श वाली औरत थी, जिसके चक्कर में पड़ गया। फिर सालों बाद वह घर वालों की पकड़ाई में आया तो उसे मार-पीटकर बाल-वाल कटवाकर और शरीफजादों वाले कपड़े पहनाकर बमुश्किल बंदा बनाया गया।</div><div>मैंने गौर से रामलाल दुआ की ओर देखा। उसके जरूरत से थोड़े ज्यादा ही सेहतमंद शरीर में कोई ऐसी कला-अला नजर नहीं आती थी! फिर भी क्या कह सकते हैं! कभी ऐसी कोई ‘बीमारी’ रही होगी। आदमी का कुछ पता नहीं चलता।</div><div>पर मैंने जब इस बारे में कुछ खोलकर पूछना और दरयाफ्त करना चाहा, तो उसने साफ कहा, “जी, काहे का नाटक-वाटक? हमारी तो जिंदगी खुद एक नाटक है। आप देखेंगे कि यह जो जिंदगी का नाटक है—राम जी का नाटक, यह सारे नाटकों से बढ़कर है।” कुछ रुककर उसने फलसफाना अदाज में कहा, “यहाँ तो हर चीज नाटक है साब। जो मैं आपसे बात कर रहा हूँ, हो सकता है, वह भी कोई नाटक हो!”</div><div>इस ‘नाटक...नाटक’ की अजब-सी धुन में मैं थोड़ा ऊब गया और खिड़की से बाहर देखने लगा। छुटकी अब तक मेरे कंधे से लगकर सो गई थी। लिहाजा मन अब थोड़ी देर हवा में खुलकर उड़ना चाहता था। यों भी ‘एम्स’ पार हो जाने के बाद सड़क कुछ इस कदर खुली मिल जाती है कि मन उड़ना ही चाहता है! कभी यहाँ, कभी वहाँ। कभी अतीत का दुख भरा बीहड़, तो कभी बार-बार आकार लेता और बिगड़ता भविष्य। कभी दोस्त, कभी दुश्मन। कभी घर-परिवार।...और कभी सब कुछ इस कदर गड्डमड्ड कि जैसे कोई आर्टिस्ट तेजी से तूलिका चलाकर कोई बडी सी एब्सट्रेक्ट पेंटिंग बना रहा हो...और फिर बनाते-बनाते अचानक खुद भी उसी पेंटिंग में समा गया हो</div><div>अजूबा...!</div><div>जी, हाँ...! दुनिया में ऐसे तमाम अजूबे होते हैं, और किसकी जिंदगी में नहीं होते। क्या यह जो रामलाल दुआ इस समय गाड़ी चला रहा है, इसकी जिंदगी में न होंगे? जरूर होंगे भाई, जरूर...इसी का नाम तो जिंदगी है!</div><div>जैसे चलती का नाम गाड़ी, ऐसे ही रुक-रुककर तमाम धचके और झपाटे खाकर चलती का नाम जिंदगी!</div><div>क्यों, आप ऐसा नहीं मानते क्या?... </div><div><br /></div><div>[3]</div><div>अलबत्ता, इस बीच रामलाल दुआ ने फिर एक-दो बार मेरा ध्यान आकर्षित किया। और घर-परिवार की कुछ ऐसी बातें छेड़ दीं, जिन्हें मैं चाहते हुए भी अनसुना नहीं कर सका।</div><div>मालूम पड़ा कि वह अपने बच्चों को बेहद प्यार करता है। रात दस-ग्याह बजे भी पहुँचे, तो बच्चे इंतजार करते हुए मिलते हैं कि देखें, पापा आज उनके लिए क्या लाए हैं? फिर शुरू होती हैं पापा से बातें और फरमाइशों का लंबा सिलसिला कि पापा, आज तो कोफ्ते बनाओ। पोहा बनाओ, चीला बनाओ। और रामलाल दुआ तब टैक्सी ड्राइवर का बाना छोड़कर, झट फुर्ती से एक शानदार ‘कुक’ का बाना पहने लेता है और वो-वो लजीज आइटम बनाकर पेश करता है कि बच्चों के चेहरे खिल जाते हैं।</div><div>“क्यों, मम्मी से नहीं कहते वे?” मैं चौंका।</div><div>इस पर रामलाल दुआ के चेहरे पर जो कुछ अजीब-सी आड़ी-तिरछी रेखाएँ उभरीं, उन्हीं में उसकी पूरी जीवन-कथा पढ़ी जा सकती थी।</div><div>“मम्मी...? उहँ, एक तो वह इतनी दिलचस्पी नहीं लेती, फिर वह पापा जैसा लजीज खाना भी नहीं बना सकती! बच्चों को तो ऐसा आदमी चाहिए न साब, जो बगैर चिढ़े हुए उनके मन की सारी फरमाइशें पूरी करे और उन्हें खुश रखने की हरचंद कोशिश करे। तभी तो बच्चे सोते नहीं मेरे बगैर। खाना खाने के बाद रात बारह बजे तक उनकी बातों का पीरियड चलता है, और तब कहीं उन्हें नींद आती है।” रामलाल दुआ की आँखों में झप से एक चमक कौंध गई।</div><div>फिर उसके स्वर में एक अजीब-सी आर्द्रता नजर आने लगी, “मुझे तो अपनी जिंदगी में कोई खुशी नहीं मिली साब। पर अब नहीं मिली, तो नहीं मिली। उसका तो क्या किया जाए? पर मैं अपने बच्चों को दुनिया-जहान की सारी खुशियाँ देना चाहता हूँ—जी हाँ, सारी! मेरा बस चले तो मैं आसमान के चाँद-तारे तोड़कर उनकी झोली में डाल दूँ।” कहते-कहते उसकी आँखें छलछला आईं। चुपके से हथेली के पार्श्व से उसने उन्हें पोंछ लिया।</div><div>अब तक हमारी टैक्सी वजीरपुर डिपो के आसपास जा पहुँची थी। वह फैशनेबल और आधुनिक साज-सज्जा से पूर्ण ‘सूर्या मड हाउस’ जिसे सगाई के लिए चुना गया था, यहाँ से कोई डेढ़-दो किलोमीटर दूर था। पर जब गंतव्य का पता चला रामलाल दुआ को, तो उसके चेहरे पर खिंचाव सा हो गया, “होटल!...होटल क्यों चुना साब आपने? घर की तो बात ही कुछ और है। घर पर जो खाना बन सकता है, साफ-सुथरा और जायकेदार और किफायती भी, होटल वाले क्या खाकर मुकाबला करेंगे उसका? फिर—माफ कीजिए—होटल में फंक्शन हो, तो मन में कोई छाप नहीं पड़ती साब! ऐसा लगता है, बाहर-बाहर गए और बाहर-बाहर से आ गए। घर में चाहे थोड़ी-बहुत दिक्कत हो, पर घर की बात कुछ और है। आदमी जो एक बार आता है, कभी भूलता नहीं। इसीलिए तो साब, उसे घर कहते हैं।”</div><div>फिर वह उसी धुन में लहक-लहककर बताने लगा, “अभी साब, मेरे साले की शादी की सालगिरह थी। पच्चीस साल हो गए साब उसकी शादी को। खूब धूम-धड़ाका हुआ। बड़ा-सा फंक्शन उन्होंने रखा। मैं भी पहुँचा अपनी वाइफ और बच्चों के साथ तो मालूम पड़ा, किसी होटल-वोटल में चलने का प्रोग्राम है। तो मैंने कहा—मारो झाडू होटल को! मुझे आप बताइए क्या बनना है और बेफिकर हो जाइए!...और साब, मैंने सब सँभाल लिया। खुद मैं गया मंडी में और आलू से लेकर बैगन, गोभी, मटर, पनीर सब कुछ खरीद लाया, इसी गाड़ी में रखकर जिसमें आप बैठे हैं।...</div><div>“अब तो जी, रात में मैंने शाही पनीर बनाया, और उड़द की धुली हुई दाल। सुबह गोभी के शानदार पराँठे और आलू-मटर की सब्जी। दोपहर को कोफ्ते, पुलाव, रायता। रात में आलू-बैगन ऐसे कि चाटते रह जाओ हाथ! और आप यकीन नहीं करेंगे, सबके सब उगलियाँ चाटते रह गए कि वाह रे रामलाल दुआ, तेरी वजह से तो हमने जश्न मना लिया, जश्न! वरना तो क्या होटल, क्या होटल का सड़ा हुआ घासलेटी खाना। सबमें जैसे मोबिलाइल डाल रखा हो। हर चीज में एक जैसी बू-बास। एक ही-सा स्वाद, मरे हुए चूहे जैसा! और रोटियाँ ऐसी चिबड़ी कि दाँतों को कुश्ती लड़नी पड़े। लोगबाग कैसे खा लेते हैं साब, हमसे तो खाया नहीं जाता।...”</div><div>रामलाल दुआ ने बात बीच में छोड़कर, एकाएक टैक्सी साइड में खड़ी की। झट गाड़ी से केन निकालकर इंजन में थोड़ा पानी डाला, फिर अपनी सीट पर जमते हुए कहा—</div><div>“...घर की चीज में एक और अच्छाई है साब, जिसे आप भी मानेंगे कि घर के लिए आप कोई खराब चीज लेकर नहीं आओगे। न खराब गोभी, न आलू, न मटर-पनीर। ऐसा कुछ भी जिसमें गड़बड़ हो, आप उसे हाथ नहीं लगाओगे। मगर होटल वाले को क्या फर्क पड़ता है? वो तो ऐसी सारी चीजें बटोरकर ले जाएँगे। बस, सस्ती मिलनी चाहिए। सड़ा हुआ गोभी या सड़ा हुआ आलू—तो ग्राहक निपटेगा, हमें क्या! जबकि अच्छा खाने वाले इन चीजों की चिंता करते हैं। हर औरत इस चीज को जानती है। गरीबनी से गरीबनी औरत भी सड़ी हुई चीज नहीं लेकर जाएगी सब्जी मंडी से, चाहे जो हो! और मैं तो साब, मसाले भी साबुत खरीदता हूँ, उन्हीं को पीसकर काम चलाता हूँ। पता नहीं हल्दी या गरम मसाले के नाम पर बाजार में क्या चीज मिल जाए! और आप ये मत सोचो कि उसमें पैसा ज्यादा लग जाता है। अजी, जो दावत हमने अपने साले के घर दी, उसमें पैसा एक चौथाई भी नहीं लगा और चीजें टनाटन। आदमी अगर खुद को थोड़ी तकलीफ दे ले, तो...!” </div><div>“कौन करे भई रामलाल दुआ, ये सारे झंझट?” मैंने उसके लंबे भाषण से थोड़ा परेशान होकर कहा, “पहले शादी-ब्याह हो या कोई और फंक्शन, तो बिरादरी के लोग आ जाते थे और सब सँभाल लेते थे। तब चाहे तंदूर ता लो या मिठाइयाँ बना लो, सब हो जाता था। मगर अब कोई किसी के घर झाँकने नहीं जाता। सब ऐन टाइम पर पहुँचते हैं टाई-सूट पहनकर...बन-ठनकर! तो अकेला बंदा क्या-क्या करे, क्या-क्या न करे!”</div><div>“यही तो...यही तो...यही तो मुश्किल है साब! आदमी ने बिरादरी को छोड़ दिया और बिरादरी ने आदमी को। इसका असर अभी तो नहीं, मगर आगे जाकर जरूर कहीं न कहीं नजर आएगा साब। और तब हमारे हाथ में पछतावे के सिवा कुछ नही रहेगा। हुआ यह कि आदमी ने पहले खुद को औरों से काटा, फिर औरों ने उसे काट दिया। अब तो हर आदमी अकेला है, साब। बड़ी जल्दी ही वह समय आने वाला है कि किसी के मरने पर कंधा देने और रोने को चार आदमी भी नहीं जुटेंगे। किराए के लोग लाने पड़ेंगे! याद रखना रामलाल दुआ की बात साब, यह मैं कोई झूठ नहीं कह रहा!...”</div><div>वैन एक झटके के साथ रुकी, सामने ‘सूर्या मड हाउस’ था। मैं बच्चों को सँभालने में व्यस्त हो गया और रामलाल दुआ की बात अधूरी रह गई।</div><div><br /></div><div>[4]</div><div>‘सूर्या मड हाउस’ में पहुँचे तो उम्मीद के मुताबिक खासी गहमागहमी थी। और वहाँ लरजती हुई साड़ियों, क्रीजदार पैंटों, रेडिमेड शर्टों, स्कर्टों, नकली हँसियों और नफीस ठहाकों का एक भरा-पूरा जंगल था, जिसमें हम थोड़ा झिझकते और परेशान होते हुए घुसे और एक कोने में जाकर अँट गए।</div><div>थोड़ी देर में ‘ठंडा’ सर्व किया गया तो मैं गिलास लेकर बाहर गया। रामलाल दुआ ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, “इसकी क्या जरूरत थी, साब?”</div><div>“अरे भाई, ले लो। ऐसा कैसे हो सकता है कि हम अदर ठंडा पीते रहें और तुम बाहर गरमी और लूओं में अपनी टैक्सी में प्यासे पड़े रहो।” मैंने प्यार से कहा।</div><div>रामलाल दुआ ने धन्यवाद के साथ गिलास थाम लिया और मैं अदर आ गया।</div><div>थोड़ी देर बाद खाने की बारी आई तो मैंने बैरे से कहा, “एक प्लेट हमारे टैक्सी ड्राइवर के लिए भेजिए। वह बाहर ही है, नीली वाली मारुति वैन में।”</div><div>बैरा थाली लेकर बाहर गया और लौट आया, “वहाँ तो कोई नहीं है, साब।” </div><div>“अरे...!” हैरान होकर बैरे के साथ मैं बाहर गया तो सचमुच रामलाल दुआ नजर नहीं आया, वैन लॉक्ड थी। परेशान होकर इधर-उधर ताका, तो वह एक पान वाले की दुकान पर नजर आ गया। वह उससे लहक-लहककर बातें कर रहा था और खूब खुश था।</div><div>मैंने बैरे से प्लेट लेकर पास जाकर उसे पकड़ानी चाही, पर वह लगातार ‘न-न’ कर रहा था, “नहीं साब, मैं तो सुबह घर से खाना खाकर निकलता हूँ और रात को घर पर जाकर ही खाता हूँ। मेरे लिए लंच-वंच का कोई चक्कर नहीं। और फिर बाहर का खाना...बुरा न मानिए, मैं तो अवॉइड ही करता हूँ।’</div><div>“अब ले लो भाई! हम भी कोई होटल-वोटल का खाना खाने वाले जीव नहीं। मगर कभी-कभार तो नियम तोड़ना ही पड़ जाता है।”</div><div>मेरे बहुत आग्रह पर उसने प्लेट पकड़ ली और धीमे से अपनी मारुति वैन की ओर बढ़ गया। उसकी आँखों में एक ऐसी नमी थी, जिसने क्षण भर के लए मुझे बाँध-सा लिया।</div><div>इसके बाद कोई घंटा-डेढ़ घंटा और लगा उस पार्टी के निबटने में, जिसमें लोग खाने पर बुरी तरह टूट पड़ने के बाद अब उसे पचाने के लिए बातों का ‘हॉट’ सिलसिला चलाए हुए थे। और इतना मुसकरा रहे थे कि मैं खुद को हँसी और मुसकानों के ‘सुगंधित दलदल’ में फँसा हुआ महसूस कर रहा था।</div><div>हम चले तो रामलाल दुआ कुछ और आत्मीय ‘सुर’ में अपनी कथा के गर्भगृह में प्रवेश कर चुका था।</div><div>अब वह बता रहा था—</div><div>“मेरी माँ ग्रेट औरत थी साब, एकदम ग्रेट! कितना प्यार करती थी मुझे, यह मैं आपको बता नहीं सकता।...और मुझे लगता था, बस, मैं अपनी माँ के लिए जान दे दूँ तो हो गया मेरे जीवन का मकसद पूरा!”</div><div>“और पिता...?” मैंने औचक ही पूछ लिया।</div><div>“उलटे—माँ से एकदम उलटे! आप यकीन नहीं करेंगे साब, मेरी कहानी सुनकर कि ऐसा भी कोई पिता होता है या कि हो सकता है! आप कहेंगे, झूठ बोल रहा है रामलाल दुआ! पर मेरी कहानी का एक शब्द भी झूठ हो तो हे प्रभु, जो कातिल को सजा मिलती है, बड़े से बड़े पापी को सजा मिलती है, वह सजा मुझे मिले।”</div><div>“मगर...तुम्हारे पिता ऐसे क्यों थे रामलाल?” मैंने बात की तह में उतरने की कोशिश में, जैसे एक बेवकूफी भरा सवाल पूछ लिया।</div><div>“क्या कह सकते हैं साब, क्या कह सकते हैं?” रामलाल दुआ ने जैसे दुख से सिर धुनते हुए कहा, “मुझे तो कई बार लगता है, ईश्वर एक बनिया है। हिसाब बराबर रखता है साब, एकदम बराबर। इतनी अच्छी माँ उसने मुझे दी, तो बाप ऐसा जल्लाद कि उसे बाप कहते शर्म आए। हालाँकि आपको यकीन नहीं आएगा कि मैं अब भी अपने पिता की इज्जत करता हूँ। इसलिए कि जो कुछ उन्होंने किया सो किया, मगर बाप तो एक ही होता है। साब, उसकी जगह तो कोई नहीं ले सकता न!...</div><div>“हाँ तो साब, माँ मेरी गुजर गई और मेरी जिंदगी तो उसी दिन फीकी पड़ गई जिस दिन माँ गई इस दुनिया से। कितना भर-भरकर प्यार करती थी मुझे। मझे तो कितने लाड़ से खिलाती-पिलाती, पुचकारती थी। मुझे एक जरा-सा काँटा भी चुभ जाए, तो तड़पती थी। मैं जब तक रोटी न खा लूँ, उसके गले में रोटी जा नहीं सकती थी। और आज...? आप यकीन नहीं करेंगे साब, आप जब प्लेट में मेरे लिए खाना लेकर आए और मेरी ‘ना...ना’ के बावजूद मेरे हाथ में थमा गए, तो मुझे अपनी माँ की याद आ गई। आपमें अपने लिए वही प्यार देखा, साब। आपकी आँखों में ठीक वही भाव था, जो मेरी माँ की आँखों में हुआ करता था, जब वह मेरे लिए थाली लेकर आती थी और पुचकारकर कहती थी, ‘ले, खा ले रामलाल।’ आज इतने बरस बाद लगता है, आपमें अपनी माँ को देख लिया।...”</div><div>कहते-कहते रामलाल दुआ की सिसकियाँ चालू हो गईं। वह फूट-फूटकर रो पड़ा।</div><div><br /></div><div>[5]</div><div>संयोग से उस समय वैन रुकी हुई थी और उसमें मेरे और रामलाल के सिवाय और कोई नहीं था। सुनीता और दोनों बेटियाँ छुटकी और बड़की सामने मेरे बड़े भाई साहब के घर मिलने गई थीं। और वैन में मैं और रामलाल अकेले थे। भाभी की जिद थी कि मैं भी एक बार ऊपर आऊँ! बार-बार संदेश आ रहे थे, पर रामलाल दुआ को ऐसे गहरे भावोद्रेक के क्षणों में अकेला छोड़कर जाने का मेरा मन नहीं हुआ। लिहाजा उसे फूट-फूटकर रोते देख, मैंने खींचकर गले से लगा लिय। उसे भरसक दिलासा दिया कि नहीं, तमाम मुश्किलों के बावजूद उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई है...कि दुनिया अभी बची हुई है।</div><div>कुछ ही देर में सुनीता और दोनों बेटियाँ लौटकर आ गई थीं और गाड़ी चल पड़ी थी।</div><div>“लेकिन क्यों, तुम्हारे पिता ऐसे क्यों हो गए रामलाल दुआ?” मैं जैसे समझ नहीं पा रहा था और बार-बार किसी अटकी हुई जिद्दी सूई से इसी चीज को खोलने में लगा था।</div><div>“शायद इसलिए कि...मेरे पिता पहले बिजनेसमैन हैं, बाद में पिता।” रामलाल दुआ ने संजीदा स्वर में कहा, “उन्होंने अपने जीवन में किसी चीज को माना या उसकी पूजा की तो पैसे की, सिर्फ पैसे की! पैसे से ज्यादा कीमती इस दुनिया में उन्हें कुछ और नहीं लगा साब, न कोई आदमी न रिश्ता। इसी चीज से खुंदक खाकर तो मैं घर से निकला था साब।”</div><div>“अरे, क्यों? किसलिए?...यह चीज तो तुमने मुझे बताई ही नहीं।” मेरे मुँह से खुद-ब-खुद मुड़े-तुड़े-से शब्द निकले, “क्या कोई खास घटना हुई थी।”</div><div>“अजी, खास तो क्या!...यों खास कह भी सकते हैं।” साफ लग रहा था कि रामलाल दुआ अपनी जीवन-कथा के इस चैप्टर को खोलना नहीं चाहता। जबरन उसे इधर आना पड़ा था, “खास तो यही था साब, कि हमारी एक बड़ी भाभी थी, जरा तेजतर्रार। थोड़े पैसे वाले घर की थी। तो हमारा बड़ा भाई भी उससे दबता था और पिता भी! तो ऐसे में उसका दिमाग तो खराब होना ही हुआ, साब। उसने माँ से भी कुछ उलटा-सीधा बोल दिया। एक दिन मेरे सामने ही ज्यादा आँय-बाँय की तो मैंने कहा—खबरदार, आज तो मैंने सुन लिया। मगर आइंदा से मेरी माँ से कुछ कहा तो इस घर में या तो तू नहीं या मैं नहीं!</div><div>“बस, वो तो जी लगी फूँ-फाँ करने, रोने-गाने, चिल्लाने! बड़े भाई को पकड़कर ले गई अलग कोने में। कुछ उलटा-सीधा पढ़ाया। दोनों ने साब, घर में आफत मचा दी। इधर मैंने पिता से कहा, ‘या तो इन लोगों को घर से अलग करो या फिर मैं निकलता हूँ। बड़ी भाभी ने माँ से जो बातें कहीं, मैं उन्हें हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता।’</div><div>“तो इस पर बाप ने कहा, ‘ये तो यहीं रहेंगे, तुझे घर में नहीं रहना तो निकल जा।’</div><div>“मैंने कहा, ‘ठीक है, मैं निकल जाऊँगा।’</div><div>“बाप बोला, ‘तो फिर देर क्यों करता है, अभी निकल...!’</div><div>“मैं बोला, ‘लो, अभी निकलता हूँ।’</div><div>“मैंने साब, आप यकीन करोगे—घर से कोई कपड़ा-लत्ता नहीं लिया! दो पैसे तक नहीं लिए और जिस हाल में था, उसी में घर से बाहर आ गया। बस, माँ रोती-कलपती, आँसू बहाती रही मेरे लिए। उसकी धाड़ें बाहर तक आ रही थीं। बाकी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा।...”</div><div>एक क्षण के लिए होंठ भींचकर रामलाल दुआ ने अपनी भावनाओं को जैसे काबू में किया। फिर थोड़े पसीजे हुए स्वर में बोला—</div><div>“तो खैर! वो रात मैंने रेलवे स्टेशन पर गुजारी। कैसे गुजारी? कैसे आग रात भर मेरे भीतर जलती रही और कैसे खून का घूँट मैंने पिया, यह सब मुझसे मत पूछो, साब। मगर हाँ, रात भर मैंने एक फैसला कर लिया। और उसके बाद अगले दिन से उसी स्टेशन पर कुलीगीरी का काम शुरू कर दिया। ईश्वर की कृपा से शरीर तो ठीक ही था, मेहनत करने लायक। दिल में वलवला भी था कि बाप को कुछ बनकर दिखाना है। तो जी, मैंने जमकर कुलीगीरी शुरू कर दी। और एक-दो दिन नहीं, कोई साल-डेढ़ साल तक यही सिलसिला चालू रहा। लोग जो भी देखते थे, हैरान होते थे। अब कोई बड़ा शहर तो है नहीं रामपुर। वहाँ जान-पहचान वाले भी खूब मिलते थे और हैरान-परेशान होकर पूछते, ‘अरे, रामलाल, तू तो लाला खरैतीलाल दुआ का बेटा है ना? बाप ने क्या घर से निकाल दिया? कुलीगीरी की नौबत कैसे आ गई?’</div><div>“मैं कहता, ‘देखो भाई, मैं किसी खरैतीलाल का बेटा नहीं। मैं तो खुदा का बंदा हूँ और उसके अलावा मेरा कोई बाप नहीं।’</div><div>“तो खैर साब, मेरी मेहनत सच्ची थी तो रंग लाई। मैं ढाबे का मोटा-झोटा खाता था, खूब मेहनत-मजूरी करता और स्टेशन पर ही सो जाता। डेढ़-एक साल में जेब में कुछ पैसे जमा हो गए। अब कपड़े का काम तो मैं शुरू से जानता था। बाप की कपड़े की दुकान थी, सो यह मेरे खून में था। तो मैं कपड़े के एक व्यापारी माणिकलाल मनचंदा के पास गया और बोला, ‘सेठ साब, मैं कपड़े का काम शुरू करना चाहता हूँ। मुझे थोड़ा-सा कपड़ा उधर चाहिए। जैसे-जैसे बिकेगा, मैं देता जाऊँगा। हाँ, मेरे पास एक हजार रुपए हैं। ये आप सिक्योरिटी के रख लो अपने पास!’</div><div>“सेठ ने मेरा कंधा थपथपाया, ‘तू चिंता न कर रामलाल। मैं जानता हूँ, तू मेहनती लड़का है। मैंने तेरे बारे में खूब सुना है। तू जितना मर्जी कपड़ा ले ले। और पैसे जब हों, तो देना। न हों तो मत देना।’</div><div>“देख लो साब, कोई अपना न हो तो विपदा में कैसे-कैसे मदद करने वाले मिल जाते हैं।” रामलाल दुआ ने कहा, “तो साब, मैंने कपड़े का काम चालू कर दिया। दुकान तो कोई थी नहीं। कपड़ों की खूब बड़ी-सी गठरी बाँधकर निकलता और देहात में रोजाना तीन-चार सौ की बिक्री करके लौटता था। चालीस-पचास रुपए रोज के कमा लेता था। कुछ रोज बाद तो हालत यह हो गई साब, कि मेरे ग्राहक इंतजार में रहने लगे, रामलाल आएगा, हमारे मनमाफिक डिजायन का कपड़ा लेकर। तो अब तो बिक्री और बढ़ गई, महीने के दो-तीन हजार रुपए बचने लगे। होते-होते दो साल में इतने बचे कि मैंने एक छोटी-सी दुकान किराए पर ले ली और कपड़े का बिजनेस शुरू कर दिया।”</div><div>“यहाँ एक छोटी-सी बात और! मैं भूल न जाऊँ, इसलिए सुन लो, साब। जिस दिन दुकान का मुहूर्त था, मैंने घर पर संदेश भिजवाया, ‘मुझे पाँच हजार रुपए की सख्त जरूरत है। अगर मिल जाएँ तो मैं एक साल के भीतर मय सूद लौटा दूँगा।’...”</div><div>“अच्छा...!” मुझे हैरानी हुई।</div><div>पर रामलाल दुआ रुका नहीं, बहता गया, “अब मैं कोई बेवकूफ तो था नहीं! मैं अच्छी तरह जानता था, साब कि मुझे क्या जवाब सुनने को मिलेगा। फिर भी दिल नहीं माना। मैं एक दफा टैस्ट करना चाहता था कि देखें उनका दिल कितना बड़ा है। तो साब, मेरे बाप ने साफ-साफ कह दिया कि ‘रामलाल, इस घर में तेरे लिए एक पैसा नहीं है। तू जी या मर, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता!’ तो जी, जो थोड़ा-बहुत भरम कह लो या गलतफहमी बनी हुई थी मन में, वह उस दिन खत्म हो गई। उस दिन घर आकर मैं कितना फूट-फूटकर रोया हूँ, यह किसको बताऊँ? बताया भी तो कौन समझेगा? मुझे लग रहा था, लोगों के बाप मर जाते हैं। पर मेरा बाप तो जिंदा होकर भी मर गया...!”</div><div>उत्तेजना के मारे उसका स्वर काँपने लगा था।</div><div><br /></div><div>[6]</div><div>खुद मेरी हालत अच्छी नहीं थी। मैं कोशिश करके भी यकीन नहीं कर पा रहा था कि कोई पिता ऐसा हो सकता है, ऐसा! और यकीन न करूँ, यह भी कैसे हो सकता था, जब कि रामलाल दुआ मेरे सामने ही बैठा था, जिसने अभी-अभी मुझे यह सब बताया था।</div><div>“उफ! यकीन नहीं होता, इतना सख्त भी कोई बाप हो सकता है।” मैंने विचलित होकर कहा।</div><div>“क्या कह सकते हैं?” रामलाल दुआ अचानक दार्शनिक हो गया, “हो सकता है, इसी में कुछ भला हो मेरे लिए! हो सकता है, कुछ सोचा हो मेरे बाप ने कि अपने आप ठोकर खाकर घर आएगा, और मैंने तय कर लिया था कि नहीं जाऊँगा। जान दे दूँगा लेकिन घर नहीं जाऊँगा। और मैंने अपना कौल निभाया, नहीं गया साब, आज तक नहीं गया।”</div><div>“तो काम चल निकला तुम्हारा?...मेरा मतलब कपड़े की दुकान?” मैंने फिर से उसी ‘किस्से’ पर लौटते हुए कहा।</div><div>“हाँ साब, खूब चल गई दुकान। बाजार में अच्छी-खासी इज्जत हो गई। थोक के दुकानदार दिल खोलकर मुझे उधार देते थे और मैं माल बेचकर टाइम से पैसा वापस कर देता था। ग्राहक की संतुष्टि, बस यही मेरा ‘एम’ था। तो साब, लोग पूछ-पूछकर मेरी दुकान पर आते थे। और कहते थे कि रामलाल दुआ, तेरी दुकान छोड़कर हमने कहीं नहीं जाना, भले ही कोई मुफ्त में माल क्यों न देता हो! लेकिन साब, शुरू-शुरू में दिक्कतें भी बहुत आईं! मैंने आपको बताया ना वो किस्सा कि मेरे बाप ने सूखी ना कर दी थी। तो एक दिन मैं अपनी दुकान पर बैठा था और रो रहा था कि मेरे जैसा अभागा भी कोई होगा, जिसका बाप जिंदा होते हुए भी मर गया।... </div><div>“अब चांस देखो साब, मेरी दुकान के ऊपर ही एक बैंक था। तो बैंक का एकाउंटेंट कोई कपड़ा खरीदने आया। मुझे रोता देखकर बोला, यार, तू रोता क्यों है? मैंने रोते-रोते कहा, बाप मर गया है, इसलिए...! और पूरा किस्सा सुना दिया। उसने कहा, तू चिंता न कर, मैं कुछ करता हूँ। तो साब जी, उस एकाउटेंट ने, कमलकिशोर सक्सेना उसका नाम था—पाँच छोड़, दस हजार रुपए मुझे लोन दिला दिया, अपनी जिम्मेदारी पर! वह लोन, साब, मैंने ढाई साल में पूरा चुकता कर दिया किस्तों में, ब्याज समेत!...तो साब, अब एक और चांस देखो! बैंक में जिन साब ने लोन दिलाया था—सक्सेना साब, वो बड़े भले आदमी थे। एकदम देवता। उन्होंने एक दिन पूछा कि रामलाल दुआ, तुम्हारी शादी हो गई? मैंने कहा—नहीं साब, मैं अकेला बंदा हूँ। कोई मेरा कुछ करने वाला नहीं है। कौन करेगा मुझसे शादी?</div><div>“इस पर उन्होंने कहा—इससे क्या! अच्छे तदुरुस्त आदमी हो। नेक खयाल हैं तुम्हारे। कमाते-धमाते भी ठीक-ठाक हो। फिर क्या मुश्किल है?</div><div>“मैंने कहा, आपकी जान-पहचान में कोई लड़की हो तो देखना साब।</div><div>“कुछ रोज बाद सक्सेना साब आकर बोले, रामलाल, मेरी एक छोटी साली है। सुंदर है, अच्छे स्वभाव की है। बस, थोड़ी साँवली है और एक आँख में थोड़ा डिफेक्ट है। तुम कहो तो बात करूँ?</div><div>“मैंने कहा, ठीक है साब। मैंने शक्ल थोड़े ही देखनी है। बस, लड़की ऐसी हो कि मेरा साथ निभा सके!</div><div>“कुछ रोज बाद हमने एक-दूसरे को देखा, पसंद कर लिया और शादी हो गई।”</div><div>“अच्छा! शादी में क्या तुम्हारे घर वाले भी आए। माता-पिता, भाई-भाभी...?” मैंने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा।</div><div>“हाँ साब, मैंने तो सबको खूब आदर से बुलाया था और जितना भी जिसका आदर-सत्कार कर सकता था, किया! मगर मेरे बाप ने, आप यकीन नहीं करेंगे, शादी में एक फूटी कौड़ी नहीं खर्ची। बहू तक को जेब से निकालकर आशीर्वाद के ग्यारह रुपए नहीं दिए। हाँ, मेरी माँ ने जरूर चोरी से कोई साढ़े अट्ठानवे रुपए की रेजगारी और एक पुरानी सोने की अँगूठी दी थी ट्रंक से निकालकर। मैंने साब, उसे ले तो लिया। मगर उसे छाती से लगाकर देर तक रोता रहा। आज तक माँ के दिए हुए वो साढ़े अट्ठानवे रुपए मेरे पास ज्यों के त्यों पड़े हैं। उन्हें खर्च नहीं किया साब मैंने, और वह अँगूठी भी पहनी नहीं गई। रखी हुई है आज तक माँ की निशानी के तौर पर! हर साल बैसाखी वाले दिन निकालता हूँ और सिर पर लगाता हूँ।...बैसाखी मेरी माँ का जन्मदिन है साब!”</div><div>“तो माँ कब गुजरीं? कब हुआ उनका इंतकाल...?” बेसुधी में उसकी ‘कहानी’ के साथ बहते-बहते मैंने पूछा।</div><div>“हाँ जी, माँ गुजर गईं, उस घर में बहुत-बहुत दुख पा के! और मैं तो कहता हूँ, अच्छा हुआ जो उनकी जल्दी मुक्ति हो गई, वरना और जीतीं तो और दुख उठातीं।” कहते-कहते उसका गला भर आया। क्रोध और करुणा का एक ऐसा उफान उसके भीतर उमड़ा कि चेहरा तमतमा गया।</div><div>उसी आवेश में बहते हुए रामलाल दुआ ने पतियाए हुए स्वर में कहा, “किसी ने घर में उसकी इज्जत नहीं की, साब। एक देवी थी, जो आई थी हमें प्यार का पाठ पढ़ाने। पर दुखी दिल लेकर चली गई। इसीलिए आज हमारे घर की यह हालत है। पूरा घर जैसे भूतों का डेरा बना हुआ है।...आप उस घर में साँस नहीं ले सकते पाँच मिनट। मैं ठीक कहता हूँ साब! दम घुटने लगता है।”</div><div><br /></div><div>[7]</div><div>उसने कातर निगाहों से मुझे देखा। फिर एक ठंडी साँस लेकर बोला, “और यही वजह है साब, कि मुझे रामपुर छोड़ना पड़ा। मुझसे देखा नहीं जाता था साब, घर की जो हालत थी और बाप को जिस तरह बेइज्जत किया जाता था। अब जैसा बोओगे, सो तो काटोगे ही। मगर मुझसे नहीं देखा गया तो रामपुर छोड़कर चला आया दिल्ली। मन कहता था—भाग...भाग! कहीं भी चल, कहीं भी जा, मगर यहाँ नहीं। सो सब टाँडा-टीरा बटोरकर चला आया दिल्ली। एकाध बिजनेस जमाने की कोशिश की ट्रांसपोर्ट वगैरह का, पर जो पार्टनर था, वह बेईमानी कर गया साब। पूर डेढ़ लाख उसने खा लिए और भाग गया।...</div><div>“तो अब क्या रास्ता था? बाकी जो पैसे थे, बटोर-बटारकर और बीवी के गहने बेचकर यह मारुति वैन खरीदी और टैक्सी ड्राइवर बन गया। दिल्ली में गुजारा मुश्किल से होता था। किसी भले आदमी ने कहा कि फरीदाबाद में हुडा के फ्लैट मिल रहे हैं आसान किस्तों पर। तो जैसे-तैसे अपने रोजाना के खर्चे और जरूरी चीजों में थोड़ी खींचतान करके एक फ्लैट ले लिया, और यहाँ आ गया।... </div><div>“अब जिंदगी चल रही है साब। बहुत ज्यादा नहीं है। मगर ऐसा भी नहीं है कि रोटी-पानी का कोई झंझट है। जो मिला, काफी मिला। मुझे तो किसी से शिकायत नहीं है, साब।”</div><div>रामलाल दुआ कह रहा था, तो साफ लग रहा था, उसके अंदर कोई है, जो जार-जार आँसुओं में रो रहा है। रो रहा है, पर अपने आँसुओं को सामने आने भी नहीं देना चाहता। ताकि कोई उसे बेचारा न समझे।...</div><div>न, न, न, दया नहीं। किसी की दया नहीं। कतई नहीं!—जैसे बिन कहे, उसका आविष्ट चेहरा बोल रहा है।</div><div>आखिर वह जैसा भी है, एक भरापूरा बंदा है, और जी रहा है अपने ढंग से। अपनी भरपूर खुद्दारी के साथ। और भला क्या चाहिए आदमी को?</div><div>एक अजब सी कशमकश। एक युद्ध अपने आपसे।...जी हाँ, इसी का नाम शायद रामलाल दुआ है।</div><div><br /></div><div>[8]</div><div>कुछ देर की चुप्पी। शायद अपने आवेग को सँभालने के लिए उसे यह जरूरी लगा हो। फिर थोड़े हलके ‘सुर’ में संजीदगी से बोला, “माँ तो अब रही नहीं, पर बाप के बारे में जरूर सोचता रहता हूँ अब भी। बाप चाहे कुबाप हो, पर है तो बाप। मैं सोचता हूँ, मैं उनका बेटा होकर उनके लिए कुछ नहीं कर सकता? वहाँ रामपुर में तो साब, बड़ी दुर्दशा है। अब तो हालत यह है कि भाई-भाभी, जिनके पास वो रहते हैं, बात-बात में उनकी बेइज्जती करते हैं और यहाँ तक कि उनके बच्चे भी!...</div><div>“अभी पिछले साल की बात है। मेरे बड़े भतीजे ने उन्हें इतनी बुरी तरह धक्का दे दिया कि जमीन पर जा गिरे। कूल्हे की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया। पूरे साल भर तक इलाज हुआ, अच्छे से अच्छे डॉक्टरों को दिखाया, मगर हड्डी ठीक से जुड़ने में नहीं आती। यों भी बुढ़ापे का शरीर है, हड्डियों में भी अब जान कहाँ रही। अब थोड़ा-थोड़ा लँगड़ाकर तो चल लेते हैं मगर वो बात नहीं रही। और पूरे शहर में बेइज्जती अलग हुई कि लाला खरैतीलाल दुआ के पोते ने उनको मारा।...देख लो साब, कैसा वक्त आ गया है!”</div><div>रामलाल ने एक पल रुककर अपने आप को सँभाला, फिर बोला, “आपको इस घटना की असली वजह बताऊँ तो आप भी ताज्जुब करोगे। मेरे भतीजे बबलू ने जो दिन भर दोस्तों के साथ आवारागर्दी करता है और लड़कियाँ छेड़ता है, पिता जी से मोटर साइकिल खरीदने के लिए पच्चीस हजार रुपए माँगे थे। अब ये पुराने आदमी हैं साब, किफायत से खर्च करने वाले, तो उन्होंने मना कर दिया। बस इसी बात पर बबलू ने—आप देखिए, उनके सगे पोते ने गुस्से में उन्हें धक्का दे दिया। और कोई साल भर वे हाय-हाय करते खाट पर पड़े रहे। अब जैसे-तैसे लाठी लेकर डगमगाते, लगड़ाते हुए दुकान पर जाते हैं, मगर इज्जत घर में दो पैसे की नहीं है। और शहर में भी लाला खरैतीलाल दुआ के पुराने दिल लद गए। जिंदा रहकर भी मुर्दे के समान है साब, वो आदमी।...</div><div>“और घर की हालत...? अब मैं आपको तफसील से बताऊँ। आप इससे अंदाजा लगाइए कि मुझे जब पता चला कि ऐसी-ऐसी बात हो गई तो मैं यहाँ से गया टैक्सी लेकर कि उन्हें अपने साथ फरीदाबाद लेकर आऊँगा। गाड़ी में उन्हें आने में कोई मुश्किल नहीं होगी। पर आप देखिए, मेरे साथ क्या बर्ताव हुआ!...यानी मैं उनसे मिलने तो गया, पर मैं उस घर में एक दिन नहीं रुका। मैंने उस घर में एक वक्त का खाना तक नहीं खाया। चाय तक नहीं पी। मैं सीधा रामपुर में होटल में रुका था और कोई पंद्रह दिन वहीं रहा।...</div><div>“तो रोजाना होटल में नहा-धोकर, खाना खाकर जाता था। बाप के पास बैठता दो-चार घंटे, फिर लौटकर होटल में आकर टिक जाता। और मुझसे—यह हकीकत है, साब—अगर मैं झूठ बोल रहा होऊँ तो जो गाय का मांस खाने की सजा होती है, वह सजा मुझे मिले—कभी किसी ने एक वक्त की रोटी या चाय के लिए नहीं पूछा। जबकि किस मुश्किल से मैं वहाँ पहुँचा था। वैन चाहे अपनी है, पर यहाँ से वहाँ तक जाने का पेट्रोल का खर्जा तो लगता है कि नहीं? होटल में रुकने का, खाने का, चाय-पानी का खर्चा अलग से। और फिर पूरे पंद्रह दिन तक काम का हर्जा! यह सब काहे के लिए? उसी बाप के लिए न, जिसने चाहे कितने ही दुख दिए, धक्का मारकर घर से निकाला, मगर फिर भी मेरे मन में उसके लिए इज्जत बची हुई है। मैं तो खुद से एक ही बात कहता हूँ कि रामलाल दुआ, अगर तेरे बाप ने खुद को आदर के योग्य साबित नहीं किया, तो क्या! तुझे तो अपना फर्ज पूरा करना ही है।...”</div><div>कहते हुए रामलाल दुआ रुका, तो उसके चेहरे पर कुछ ऐसी मासूमियत और संजीदगी थी कि भीतर मन भर आया। आँखें भीग सी गईं। मेरे लिए समझ पाना मुश्किल था कि यह कैसा आदमी है, जो अपने आप और हालात से इतनी बड़ी लड़ाई ल़ड़ रहा है, चुपचाप। बिना किसी से कुछ कहे। यह क्या छोटी बात है?</div><div>कहने को रामलाल दुआ एक साधारण आदमी ही तो है। एक निहायत मामूली आदमी। लेकिन एक मामूली आदमी के पास भी कितना कुछ असाधारण और अद्भुत होता है, समझ पाना मुश्किल है।...मुझे लगा, इस आदमी को तो प्रणाम करना चाहिए!</div><div>पर मैंने किसी तरह अपनी भावुकता पर विराम लगाया और निगाहें फिर से रामलाल दुआ के चेहरे पर गड़ा दीं, जहाँ पता नहीं कितने दुख-दाह, द्वंद्व और बेचैनी की झाँइयाँ थीं।</div><div>“हाँ भई रामलाल, तुम कुछ कह रहे थे न पिता जी के बारे में...?” मैंने चुपचाप निगाहों से उसके चेहरे को टटोलते हुए पूछा।</div><div>“हाँ, जी...जी हाँ!” रामलाल दुआ ने फिर से सुर पकड़ते हुए कहा, “पिता को लेकर चिंता मेरे भीतर इतनी थी कि अकसर मैं रात को सो नहीं पाता था।...और एक दफा नहीं, मैं बहुत दफे उनसे मिलने जा चुका हूँ, साब। कोई दस-बारह बार। पर भाई-भाभी के घर में मेरी इतनी भी इज्जत नहीं, जितनी कि घर में घुस आए खजैले कुत्ते की! वो भी जानते हैं कि कितनी ही दुर-दुर करो, फिर भी आएगा, क्योंकि इसका बाप यहाँ है। और मजे की बात देखो साब, जिस बाप के लिए मैं धक्के खाता वहाँ पहुँचता हूँ, वह अभी तक इस उमर में भी माया-मोह के चक्कर में इस कदर फँसा है कि उसे लिए बेटा-वेटा कोई चीज नहीं है पैसे के आगे! मैं कहता हूँ, पिता जी, छोड़ो यह सब। क्या ले जाना है आपको अपने साथ? मेरे पास आकर रहो सुख से चार दिन। मेरे भी दिल को शांति पड़ेगी!...पर उनका मन तो साँप की तरह पैसे की कुंडली मारकर बैठा है। मैं, आपको यकीन नहीं आएगा, पंद्रह दिन तक लगातार रट लगाता रहा कि आप चलिए...चलिए...चलिए मेरे साथ! पर वे नहीं आए। टस से मस नहीं हुए।’</div><div>“उन्हें कोई गलतफहमी न रहे, इसलिए मैंने साफ-साफ कहा कि मुझे आपका एक पैसा नहीं चाहिए। बस, मेरी एक ही इच्छा है कि कुछ आप हमारे घर चलकर रहिए, ताकि हमें भी लगे कि हमारा घर भी घर है। जरा अपनी छोटी बहू को, पोते-पोतियों को भी देखिए। वो तरसते हैं आपके लिए।...मगर मजाल है जो उनके कानों पर जू भी रेंग जाए!</div><div>“आखिर में जब मैं लौट रहा था, निराश होकर मैंने कह ही दिया कि देखिए पिता जी, आप माया के चक्कर में पड़ गए हैं। अब इस उम्र में आप माया का जंजाल छोड़िए। एक बेटे को आपने देख लिया, अब दूसरे बेटे को भी आजमाकर देख लीजिए। हमें भी सेवा का मौका दीजिए।...मगर नहीं साब, माया तो बेड़ी बनकर उनके पाँवों में पड़ी है।”</div><div>“क्यों? क्या वहाँ दुकान तुम्हारे बड़े भाई के जिम्मे नहीं है?...क्या इस उम्र में भी पिता जी ही उसे देखते हैं?”</div><div>मेरे सवाल ने उसे खासा उत्तेजित कर दिया। बड़े ही तमतमाए चेहरे के साथ उसने कहा, “अरे, राम भजिए! किसी और को भला कैसे जिम्मा दे सकते हैं वे? बयासी साल के हो गए, लेकिन चाबियाँ अभी तक उन्हीं के हाथ रहती हैं। कोई लाख माथा पटक ले, उनसे एक पैसा ले नहीं सकता।...आप मानेंगे साब, जितने दिन वे बिस्तर पर रहे, रोजाना बेटे से दुकान का पूरा हिसाब लेकर तब सोते थे। ऐतबार उन्हें किसी का नहीं है, चाहे उनके सगे पिता जी स्वर्ग से नीचे उतर आएँ, तो भी नहीं।”</div><div>“यानी दुकान अभी तक उन्हीं के अंडर है? वही सँभालते हैं सब कुछ...?” मैंने हैरान होकर पूछा।</div><div>“बिल्कुल! बड़े भाई को तो सिर्फ महीने का घर चलाने का खर्चा देते हैं, बाकी सब कुछ अपनी मुट्ठठी में! और मुट्ठी इतनी सख्त है कि कोई एक निक्की पाई तो ले ले उनसे!...”</div><div>“ऐसा क्यों?” मैंने भौचक होकर कहा, “आखिर आदमी परिवार के लिए ही तो करता है सब कुछ!”</div><div>“इसलिए कि किसी पर उनका विश्वास नहीं है। आपको बताया तो है साब, पैसा ही उनका प्राण, मित्तर, प्यारा है...वही खुदा, वही ईश्वर! बस, पैसा ही दुनिया में एक ऐसी चीज है जिसके लिए वे मजे से जान दे सकते हैं।”</div><div>रामलाल दुआ के होंठ व्यंग्य से शायद कुछ ‘टेढ़े’ हो गए।</div><div>“खैर, मैं वहाँ से लौट तो आया।” फिर से उसी घटना-क्रम पर लौटते हुए उसने कहा, “घर आकर मैंने उन्हें चिट्ठी लिखी। अपने अल्प ज्ञान के बावजूद मैंने कोशिश कर-करके ऐसी भाषा लिखी, चुन-चुनकर एक-एक ऐसा शब्द...कि सीधा मन में उतरता जाए। मैंने उन्हें लिखा कि पिता जी, अब इस उम्र में तो आपको समझना चाहिए। आप ‘नीति’ भूलकर ‘नीयत’ के चक्कर में फँस गए हैं...!”</div><div>“तो खूब लंबा-सा पत्र मैंने लिखा साब, जिसमें दिल का पूरा दर्द उड़ेल दिया। पर उन्होंने उसका जवाब तक नहीं दिया।...एक लाइन तक नहीं!”</div><div>“अब मैं फिर से एक और चिट्ठी लिख रहा हूँ। आधी लिख ली है, बाकी आधी और पूरी करनी है। उसमें हो सकता है, महीना-डेढ़ महीना लग जाए। मुझे इतनी अच्छी भाषा कहाँ आती है! पर लिखना ऐसा चाहता हूँ कि उन्हें महसूस हो कि उन्होंने किया क्या है और क्या उन्हें करना चाहिए था। अभी तक सही अल्फाज ढूँढ़ने में लगा हूँ। रोजाना कुछ-कुछ वाक्य लिखता हूँ। सारे दिन गाड़ी चलाता हुआ सोचता रहता हूँ, तब मुश्किल से दो-चार पंक्तियाँ लिख पाता हूँ। जिस दिन पूरी हो जाएगी चिट्ठी, आपको दिखाऊँगा। मुझे कविता तो नहीं आती, पर कोई कवि भी क्या ऐसी चिट्ठी लिखेगा, जो मैंने अपने पिता को लिखी है...!</div><div>“पहले भी जो दो-तीन चिट्ठियाँ भेजी थीं, मेरे पास उनकी रफ कापी होगी साब! आप देखना कभी, आप मान जाएँगे कि रामलाल दुआ, तुझमें कुछ बात है।”</div><div><br /></div><div>[9]</div><div>रामलाल दुआ ने थोड़ी आत्मकरुणा से भरी निगाहों से मुझे देखा, और फिर उसने एक दूसरी ही पगडंडी पकड़ ली—</div><div>“और दिल में कोई बात न होती या कोई आग, कोई तड़प न होती अंदर, तो मैं घर से भागता ही क्यों साब! शुरू से ही लगता था कि रामलाल दुआ, तुझे सच्चाई का पक्ष लेना है...और एक भला और नेक बंदा बनना है। कितना बन सका हूँ साब, कह नहीं सकता, मगर अंदर तड़प तो वही है।</div><div>“आपको वो किस्सा सुनाऊँ साब, जब मैं रामपुर रेडियो स्टेशन जाया करता था। आपको पहले बताया था न? अच्छा, नहीं बताया।...वो ऐसा है जी, मैं बचपन में गाने का बहुत शौकीन था। मुकेश के, रफी के गाने तो हू-ब-हू बिल्कुल उन्हीं की आवाज में गा लेता था। कोई पहचान नहीं सकता था माई का लाल कि ये मुकेश की आवाज नहीं, रामलाल दुआ की आवाज है...या कि ये रफी साब नहीं गा रहे हैं, अपना यार रामलाल दुआ मौज में आकर अलाप ले रहा है!</div><div>“तो साब, मैं बहुत छोटा-सा था, तभी से रामपुर रेडियो स्टेशन वाले मुझे गाने के लिए बुला रहे हैं, युववाणी में! उन दिनों वहाँ के स्टेशन डायरेटर थे शाद साब! वो तो साब, इस कदर मुझे प्यार करते थे कि पूरे रेडियो स्टेशन पर यह बात फैल गई थी और हर शख्स की जुबान पर थी कि रामलाल दुआ शाद साब का खोया हुआ बेटा है जो बचपन में तीन साल की उमर में उनसे बिछुड़ गया था, जब वे किसी मेले में गए थे, और फिर उसका कुछ पता नहीं चला। बहुत खोजा, बहुत तलाशा, मगर कहीं कोई निशानी तक नहीं! तो इसी दर्द ने साब, शाद साब को भी एक मशहूर म्यूजीशियन बनाया! और क्या एक से एक कमाल की धुनें बनाया करते थे साब वो! सितार और बाँसुरी तो उनके हाथ में आते ही जादू-मंतर...बस जादू-मंतर हो जाती थी एकदम!”</div><div>“मुझे भी कहा करते थे कभी-कभी साब वो, कि रामलाल दुआ, तुझे मैं सिखाऊँगा ये सब और अपने पास रखूँगा बेटा बनाकर। खुद ब्याह-शादी करूँगा तेरी, नौकरी दिलवाऊँगा। लाइफ बन जाएगी तेरी! पर मैं कहता, नहीं साब, अपन मौज में गा लेता, इतना काफी है। अपन बैठकर छह-छह घटे म्यूजिक वगैरह का, सितार-बाँसुरी का रियाज नहीं कर सकता। यह सब अपने बस की बात नहीं! मूड में आया तो गाया, नहीं तो नहीं। अपना तो बस ये शौक है। व्यापारी का बेटा हूँ सो बिजनेस आता है। म्यूजीशियन की लाइफ अपन को सूट नहीं करेगी, सो यह शौक चलेगा नहीं साब!</div><div>“बाद में शाद साब का लखनऊ तबादला हो गया। जाते समय वो भी और उनकी घरवाली भी, सादिया बेगम नाम था जी उनका—मुझे छाती से चिपकाकर आँखों में आँसू भर-भरकर रोए। मनाते रहे कि तू चल, चल हमारे साथ! और रुलाई तो मेरी भी साब, बहुत छूट रही थी। मैं फूट-फूटकर रो पड़ा कि मेरे असली माँ-बाप तो छूट ही गए, और ये जो नए माँ-बाप मिले, तो ये भी अब बिछुड़ रहे हैं। फिर जाने कभी मुलाकात हो न हो!...पर साब, मैं चाहते हुए भी उनकी बात मान नहीं सका। ऐसे मामलों में तो साब, अंदर से मन जो बात कहे, सो ही माननी चाहिए। मेरा पक्का यकीन है! क्यों साब, आपका क्या खयाल है?”</div><div>उसकी आँखों में सवाल कम, एक उमड़ती-घुमड़ती हुई वेदना ही ज्यादा थी, जो न जाने कब आँसुओं में तब्दील हो गई।</div><div><br /></div><div>[10]</div><div>“चलो खैर, जो गुजरी सो गुजरी! भूलो अब बीती बातें।” मैंने कंधे पर हाथ रखकर उसे दिलासा देते हुए कहा, “अब, बीवी-बच्चे तो खूब प्यार करते होंगे?”</div><div>इस पर रामलाल दुआ का चेहरा थोड़ा खिंच-सा गया। थोड़े तंज के साथ बोला, “हाँ, बीवी तो ठीक है, वैसी ही जैसी और बीवियाँ होती हैं। पत्नी का धर्म निभा देती है, लेकिन बच्चे सच में ऐसे हैं जो बहुत प्यार करते हैं। जानते हैं कि हमारे बाप ने बहुत कष्ट सहे हैं हमारे लिए...इस घर को बनाने के लिए! इसीलिए वे दूना-चौगुना प्यार लुटाकर मेरे दुख को कम करते रहते हैं। और साब, बच्चों से बात करने से ज्यादा खुशी मुझे किसी और चीज में नहीं मिलती!...”</div><div>“और ससुराल वाले...? वहाँ से तो खूब प्यार मिलता होगा?” पूछने पर रामलाल दुआ फिर उदास हो गया। बोला, “हाँ, साब, ठीक ही है! सब पैसे की माया है। ससुराल वाले भी जानते हैं कि जो थोड़ा कमजोर है औरों से, उसे दबा लो। अब मेरी ससुराल में सभी तो अफसर हैं, सिवाय मेरे। साले खूब अच्छी सरकारी नौकरियों में हैं!...एक साढ़ू तो बैंक मैनेजर ही है। उसका किस्सा तो आपको बताया था कि मेरी शादी उसी ने कराई थी। बाकी एक साढ़ू रेलवे में स्टेशन मास्टर, एक सेक्शन ऑफीसर है उद्योग मत्रालय में। सभी एकसे एक पहुँचे हुए हैं। और अपन तो साब, टैक्सी ड्राइवर होकर ही रह गए!...तो साब, टैक्सी ड्राइवर की खातिर तो टैक्सी ड्राइवर जैसी ही होगी न, कोई अफसर जैसी तो हो नहीं सकती। और यह बात कोई और नहीं, खुद मेरी बीवी कहती है। जिस दिन मेरी बीवी ने कहा था पहली दफा, तभी से मेरे माथे पर मोटे-मोटे हर्फों में खुद गया है—‘टैक्सी ड्राइवर’! और अब तो मुझे भी इसमें इतना मजा आने लगा है कि मैं चाहूँ भी तो इस पेशे को बदल नहीं सकता!”</div><div>कहते-कहते, रामलाल दुआ की आँखें फिर से पनीली हो गईं। कहीं मेरी पकड़ में उसकी यह कमजोरी न आ जाए, इसलिए होशियारी से नजरें बचाकर वह बाहर देखने लगा था। फिर अचानक जैसे पूरा साहस बटोरकर उसने मेरी ओर देखा और पनीली, बेहद पनीली आवाज में कहा, “पत्नी?...बस पत्नी ही तो मेरी हार है। वही अगर मुझे इस कदर न दागती तो मैं...मैं पूरी दुनिया से लड़ सकता था साब, पूरी दुनिया से!...”</div><div>रामलाल दुआ रो तो नहीं रहा था, पर उसका पूरा शरीर थरथरा रहा था।</div><div>उसकी उदास नजरों का पीछा करते-करते मैंने एक निगाह बाहर डाली। हमारी बातों के साथ-साथ वैन तेजी से भागी जा रही थी। हवा में थोड़ी ठंडक घुल चुकी थी। मुद्रिका का रास्ता पार करके अब हम ‘अपर्णा आश्रम’ पर थे।</div><div>जल्दी ही गाड़ी मथुरा रोड पर आ गई। यानी फरीदाबाद अब काई पचीस मिनट दूर था...</div><div>“मैं जरूर कभी तुम्हारी कहानी लिखूँगा रामलाल दुआ। तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं?” मैंने उसे टोहते हुए पूछा।</div><div>“आप...अच्छा, आप राइटर हैं। तभी तो...मैं खुद भी सोच रहा था कि आप जरूर कुछ न कुछ हैं, कोई बिल्कुल अलग किस्म के आदमी...वरना तो कौन हमसे इस तरह बात करता है!” कहते-कहते उसकी आँखों में चमक भर गई, “ठीक है साब, आप...आप लिखिए, जरूर लिखिए! मैं आपको और भी चीजें बताऊँगा।”</div><div>कुछ रुककर उसने झिझकते हुए कहा, “कभी आप खाली हों साब, तो मैं आपको अपना घर भी दिखाना चाहता हूँ। आप देखिएगा आकर कभी! आपको इस गाड़ी में बिठाकर ले जाऊँगा। हमारे घर के पास ही सूरदास जी की जन्मस्थली है—सीही गाँव में, वहाँ अभी एक कवि-सम्मेलन भी करवाया था सरकार ने...आप चाहोगे तो आपको वहाँ भी ले चलूँगा।”</div><div>“तो ठीक है, अगले इतवार को! एकदम पक्का रहा।” मैंने उसके प्रस्ताव पर खुशी जताते हुए कहा।</div><div>कोई साढ़े नौ बजे उसने हमें घर पर छोड़ा। तब तक छुटकी मेरे कंधे पर लगी-लगी सो चुकी थी। पीछे वाली सीट पर सुनीता और बड़की तंद्रा में थीं। पैसे लेकर अगले इतवार को आने का वादा करके ‘नमस्कार’ करके उसने विदा ली।</div><div><br /></div><div>[11]</div><div>अगले इतवार को वह शायद किसी जरूरी काम से उलझ गया। और उसके कुछ रोज बाद, शनिवार की सुबह उसका फोन आया तो मैं एक दिलचस्प उपन्यास पढ़ रहा था। जाहिर है, मैं तीव्रता से किसी और भावधारा में बहने लगा था। रामलाल दुआ की कहानी याद थी, पर नाम उसका विस्मृति के हलके कुहासे में चला गया था...</div><div>उसने फोन पर संकोचभरी आवाज में कहा, “प्रकाश जी, मैं दुआ...पहचान रहे हैं न!”</div><div>“हाँ-हाँ!” मैंने असमंजस में पड़कर कहा। मैं वाकई पहचान नहीं पाया था, पर यह कहना शायद बदतमीजी होती! इस बीच मैं लगातार उसकी आवाज के सहारे पहचानने की कोशिश कर रहा था।</div><div>“असल में पिछले इतवार को तो मैं आ नहीं सका। कुछ काम था...कल अगर आप कहें तो मैं आ जाऊ!”</div><div>“हाँ-हाँ, ठीक...!”</div><div>मैंने कह तो दिया, पर पहचान अब भी नहीं पाया था। मेरे एक मित्र दुआ साहब एयरफोर्स में बड़े अधिकारी रहे हैं। मुझे लगा कि कहीं वही तो नहीं बोल रहे? हालाँकि आवाज थोड़ी बदली हुई थी...</div><div>लेकिन फोन रखते ही मुझे अपनी गलती पता चल गई। यह तो रामलाल दुआ था, टैक्सी ड्राइवर...!</div><div>उसी समय मैं समझ गया—रामलाल दुआ कह भले ही रहा हो इतवार को आने के लिए, पर वह नहीं आएगा। हरगिज नहीं आएगा। मेरी आवाज का अनुत्साह उससे छिपा न रह गया होगा।</div><div>मैंने सुनीता से कहा, “गलती हो गई! उसने भी सिर्फ ‘दुआ’ कहा और मैं पहचान नहीं पाया। अगर उसने पूरा नाम रामलाल दुआ ही कहा होता तो...”</div><div>“नहीं, तुम्हारी क्या गलती है!” सुनीता ने मेरे जख्म पर फाहा रखते हुए कहा, “इतने लोग रोजाना मिलते हैं, हर किसी का नाम थोड़े ही याद रखा जा सकता है! कोई लंबी पहचान तो थी नहीं। या फिर वह पूरी बात बताता कि मैं टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ बोल रहा हूँ, आप उस दिन मेरी टैक्सी में बैठकर...!”</div><div>“यही तो...यही तो तुम नहीं जानतीं सुनीता। यही तुम नहीं समझोगी!” मैं एकाएक चिल्ला पड़ा, “वह टैक्सी ड्राइवर के रूप में मेरे पास नहीं आ रहा था, एक व्यक्ति रामलाल दुआ के रूप में...एक दोस्त। तुम समझीं, समझीं कुछ?”</div><div>सुनीता अचकचाकर मुझे देख रही थी कि अचानक मुझे हुआ क्या है! और मेरी गलती सचमुच ऐसी ‘अक्षम्य’ थी कि रामलाल दुआ फिर नहीं आया—आज तक नहीं आया। </div>हो सकता है, अपना अपमान करने वाले ‘हृदयहीन’ लोगों में उसने एक नाम और जोड़ लिया हो! और यों भी, इसमें झूठ गया है? मेरा खयाल है, आप मुझसे सहमत होंगे।<hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-37542515638879368272024-02-29T22:36:00.002-05:002024-02-29T23:22:31.521-05:00पाँच कविताएँ: प्रकाश मनु<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html"><img border="0" data-original-height="810" data-original-width="1080" height="150" src="https://1.bp.blogspot.com/-0ug3YB7Z0j4/YS7kZ1Jr2MI/AAAAAAAASF0/KJ7KCt_MQA03-4awgbsUX28f1p-vfBScACLcBGAsYHQ/w200-h150/Prakash_manu_3.JPG" width="200" /></a></span></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html">प्रकाश मनु</a></td></tr></tbody></table>
<h3>- <a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html">प्रकाश मनु</a></h3><br /><div><b>(1) </b><b>चिड़िया का घर</b></div><div><br /></div><div></div><div><div>चिड़िया को घर बनाना है</div><div>चिड़िया के पास कुछ खास नहीं,</div><div>मगर क्या नहीं है चिड़िया के पास?</div><div><br /></div><div>तिनके हैं घास है</div><div>जरा सी कला-कला ढेर सा उछाह</div><div>और एक बड़ी जिजीविषा</div><div>धूप और पानियों और सादा आसमानों</div><div>की तरह फैली दूर तलक</div><div>आखिर क्या नहीं है चिड़िया के पास!</div><div><br /></div><div>सूतली?</div><div>हाँ, सूतली...</div><div><br /></div><div>चिड़िया परेशान!</div><div>महानगर में सूतली...?</div><div>मगर डर क्या</div><div>अगले ही पल वो उड़ी</div><div>और उड़ के गई वहाँ जहाँ ढीली खटिया पर बैठा कवि</div><div>लिखने के बाद कविता पढ़ रहा है कोई किताब</div><div><br /></div><div>चिड़िया देखती है कवि की कविता, किताब, चेहरा</div><div>और भरपूर दृष्टि फैला देती है चारपाई पर,</div><div>उसकी चौकन्नी नजरें देख लेती हैं</div><div>चारपाई का कौन सा कोना है उसके काम का!</div><div><br /></div><div>एक निर्भीक दृष्टि डाल कवि के चेहरे पर</div><div>चिड़िया शुरू करती है अपना काम</div><div>आराम से</div><div><br /></div><div>चोंच की ठूँग मार-मारकर निकालती है</div><div>मूँज, निकालती है सूतली</div><div>दस मिनट, मुश्किल से दस मिनट</div><div>और अब दुनिया उसकी है</div><div>उसका है जहान</div><div>चिड़िया चोंच में भर लेती है उतना</div><div>जितना भी उसके बस में है</div><div><br /></div><div>और यल्लो, चिड़िया पंखों पर</div><div>नहीं, चिड़िया पर-पर है</div><div>चिड़िया है घर की रानी, चिड़िया है सोनपरी</div><div>बिटिया है लाडली सूरज की</div><div>घास, तिनके, धूप, उत्साह के साथ मिलाकर सूतली</div><div>अपनी अचूक कला से</div><div>रचेगी वह घर</div><div>जरूर रच लेगी कल तलक!</div><div><br /></div><div>कैसा भी हो माहौल</div><div>कैसा भी युद्ध या अकाल</div><div>चिड़िया को घर बनाने से भला कौन</div><div>रोक पाएगा?</div><div>***</div><div><br /></div><div><br /></div><div><b>(2) फतेहपुर सीकरी से लौटकर</b></div><div><br /></div><div>धन्यवाद भाई भगवान सिंह</div><div>याद रहेगा तुम्हारा हर वक्त कुछ न कुछ कहता</div><div>किसी पुरानी खस्ताहाल सुर्री जैसा खिंचा माथा</div><div>तुम्हारा उत्साह, तुम्हारी बातें!</div><div><br /></div><div>पहली बार पत्थरों को जीवित</div><div>होकर बोलते सुना तुम्हारी बातों में</div><div>पहली बार पत्थरों में देखी एक समूची दुनिया</div><div>जो इतिहास के लंबे गलियारे पार कर</div><div>सन् अट्ठानबे की जून की लपटदार गरमियों</div><div>तक चली गई</div><div><br /></div><div>यहाँ बादशाह अकबर का आरामकक्ष था साहब</div><div>यहाँ बिछती थी उनकी शैया</div><div>भीनी-भीनी खुशबुओं वाला पानी छोड़ा जाता था उसके चौगिर्द </div><div>इधर वाले ताल से</div><div>यहाँ मंत्रणागृह था यहाँ घुड़साल यहाँ अस्पताल</div><div>यहाँ चौसर खेली जाती थी बड़े ही अजीबोगरीब तरीके से</div><div>आप गौर करें साहब,</div><div>गोटियों की जगह बैठती थीं सजी हुई बाँदियाँ</div><div><br /></div><div>यहाँ दीवानेखास था जहाँ विराजते थे अगल-बगल बादशाह के</div><div>मंत्री सलाहकार अपने-अपने आसन पर</div><div>यहाँ दीवाने-आम...आम जनता के लिए</div><div>यहाँ जोधाबाई का महल यहाँ रुकैया बेगम</div><div>यहाँ मरियम का!</div><div><br /></div><div>आपको मालूम ही होगा बाबू साहब</div><div>अकबर की रानियाँ थीं तीन, तीनों अलग-अलग</div><div>धर्मों की</div><div>सबसे बड़ी जोधाबाई, सबसे छोटी मरियम—बिचली रुकैया बेगम,</div><div>दीने इलाही चलाया था न उसने बाबू साहब!</div><div>इस विशाल खंभे का खूबसूरत आर्किटैक्चर देखिए साहब</div><div>दंग रह जाएँगे आप</div><div>यहाँ हिंदू, मुसलिम, क्रिश्चियन तीनों की झलक</div><div>है एक साथ</div><div><br /></div><div>यह आलीशान हवामहल एक सौ छयत्तर खंभों वाला</div><div>देख रहे हैं न,</div><div>यह बादशाह और रानियों की हवाखोरी के लिए बना था</div><div>यहाँ थी बगल में जोधाबाई की रसोई</div><div>यहाँ खाना बनता था बड़े-बड़े कड़ाहों में</div><div>और इधर शाही डाइनिंग रूम</div><div>पास ही खुशबूदार पानी के फव्वारे चलते थे।</div><div><br /></div><div>और इधर देखिए, बीरबल का महल</div><div>इधर हाथी की समाधि...!</div><div>आपको बताया था न किस्सा हाथी का बाबू साहब,</div><div>जो आया था अकबर की ससुराल से!</div><div>भरी सभा में पाक साफ और गुनहगार का</div><div>सही-सही फैसला करता था वही हाथी</div><div>बड़ा कमाल का था साहब</div><div>क्या खूब था उसका दिमाग,</div><div>पैरों से कुचल डालता था देखते ही पापी</div><div>अनाचारी को—एक झपाटे से!</div><div><br /></div><div>यह थी बावड़ी यहाँ गुस्ल करती थीं रानियाँ</div><div>और जोधाबाई का मंदिर, जरा गौर फरमाएँ</div><div>और यहाँ तुलसी का चौरा हुआ करता था</div><div>जी साहब, इसी घेरे में</div><div>यहीं हुई थी त्योरस बरस फिल्म की</div><div>शूटिंग...</div><div><br /></div><div>प्यारे भगवान सिंह!</div><div>लौटा तो आज कोई हफ्ते भर बाद भी</div><div>फतेहपुर सीकरी के पत्थर, खूबसूरत जालियाँ</div><div>बेल-बूटे और पुरानी-धुरानी खुशबुओं में लिपटी हवाएँ तक</div><div>कर रही हैं रुक-रुककर संवाद</div><div><br /></div><div>और तुम्हारे मुँह से झर रहे थे जो किस्से</div><div>बेशुमार किस्से और आख्यान तब</div><div>वे झर रहे हैं अब भी</div><div>मेरी स्मृति में टप-टप फूलों की तरह!</div><div><br /></div><div>वे कितने सही थे, कितने मिथ्या...?</div><div>कितने प्रतिशत थी उसमें तुम्हारी अपनी</div><div>मौलिक कल्पना की उड़ान—</div><div>यह दुनिया जाने!</div><div>मगर मैंने तो तुम्हारी आँखों से देखी थी जो फतेहपुर सीकरी</div><div>आज भी है मेरा वही अंतिम सत्य</div><div>फतेहपुर सीकरी के बारे में।</div><div><br /></div><div>तीस रुपए...!</div><div>कुल तीस रुपए लेकर एक लंबे सलाम</div><div>के साथ</div><div>तुमने समेट लिया अपना तिलिस्म,</div><div>आगे कभी आएँ तो भगवान सिंह को पूछिएगा साहब!</div><div><br /></div><div>तीस रुपए—और एक पूरी छलछलाकर</div><div>जी गई जिंदगी</div><div>एक पूरा इतिहास आँखों के आगे...</div><div>काल के वक्ष पर वे जो तमाम हैरतअंगेज</div><div>चलचित्र देखे मैंने</div><div>उनके लिए मेरा झिझकता हुआ सलाम लो भगवान सिंह!</div><div>***</div><div><br /></div><div><br /></div><div><b>(3) विज्ञापन में छपी औरत</b></div><div><br /></div><div>वह थी किसी नए ब्लेड की तरह</div><div>तेज, खूंखार और नंगधड़ंग</div><div>सिर से पैर तक</div><div>किसी रंगीन उत्तेजना के तार में पिरोई</div><div>बेसबब कसी हुई प्रत्यंचा की तरह </div><div>मुँहफट</div><div>लाल-गुलाल और आदिम</div><div><br /></div><div>वह थी किसी अनहोने अचरज की तरह</div><div>पास गया उसके तो उसने समझा वही</div><div>जो उसके धंधे की माँग थी</div><div>बेहद बाजारू किस्म की गद्देदार मुसकान परोसते</div><div>स्वागत किया—आओ!</div><div><br /></div><div>और फिर उघाड़ा—जिस पर उसे गर्व था</div><div>नंगी पीठ का चर्म!</div><div>ऊँची एड़ी से कुचलती</div><div>मेरा स्वत्व</div><div>देखा कनखियों से, कितना नशा!</div><div><br /></div><div>मेरी आँखों में था शायद कोई झिझकता सवाल</div><div>कोई परेशानी भरा आलम</div><div>पसंद न था उसे, कतई पसंद न था</div><div>उसकी आँखें तरेरती हिंसा को</div><div>कोई भी ढीठ सवाल</div><div><br /></div><div>गुस्से में लाल बगूला हो</div><div>वह पलटी मेरे देखते-देखते</div><div>बदबूदार बंबइया गाली उगल</div><div>इकदम अपने चिकने खोल में जा छिपी</div><div>विज्ञापन में छपी औरत!</div><div><br /></div><div>भौचक मैं</div><div>सिर झुका जाने लगा अपने रस्ते</div><div>तो लगा है, है कोई इनसानी चीज</div><div>जो टनों मैल की परतों के बीच</div><div>भी जिंदा है जिंदा</div><div>कुड़बड़ा रही</div><div><br /></div><div>कुछ और कदम चला होऊँगा चार-पाँचेक</div><div>तो सुनाई दीं सिसकियाँ</div><div>देखा, आह! जार-जार रो रही थी</div><div>विज्ञापन में छपी औरत</div><div><br /></div><div>और उसका नंगधड़ंग जिस्म</div><div>गरम आँसुओं के</div><div>लिबास</div><div>में</div><div>छिप गया था!</div><div>***</div><div><br /></div><div><br /></div><div><b>(4) लिखूँ?</b></div><div><br /></div><div>कविता लिखूँ, न लिखूँ?</div><div>कविता के अलावा और भी हैं बहुत काम</div><div>और भी हैं बहुत काम परिणाम कुहराम</div><div>उस दुनिया में जिसमें जीता हूँ</div><div>जिसमें नहीं है कविता बाकी सब है</div><div><br /></div><div>रोटी चावल चीनी की पुकार—जवाब में डैश है लंबा</div><div>और फटे झोले नदारद जेब की कातरता</div><div>हर बार</div><div><br /></div><div>हर बार प्रश्नास्पद आँखें। क्षमा-याचना। उधार</div><div>पत्नी का पीला, उदास अधपका चेहरा</div><div>और भूख और भूख और अँधेरे की मार</div><div>और दिन और रात का निरंतर अपमान का सौदा</div><div>निरंतर रौंदा हुआ सुख जिंदगी का</div><div><br /></div><div>कागज-पत्तर प्रमाण-पत्रों की निरर्थक उपलब्धि</div><div>एक भार—साभार!</div><div><br /></div><div>दफ्तरों की हिंसक जड़ता दोस्तों की दया</div><div>बीते होने का असमय अहसास : मृत्युमय जीवन</div><div>और खुर जैसे पैरों रूखे चेहरे की</div><div>हास्यास्पदता</div><div><br /></div><div>तो फिर कविता...</div><div>कविता लिखूँ, न लिखूँ?</div><div>***</div><div><br /></div><div><br /></div><div><b>(5) पुरस्कार पाने वाले एक युवा कवि के लिए</b></div><div><br /></div><div>तुम तो कहाँ से कहाँ चले गए अखिलेश भादुड़ी</div><div>और अभी कहाँ-कहाँ नहीं जाओगे</div><div>कि पूरी एक दुनिया पूरा जहाँ तुम्हारे सामने है</div><div>तुम्हारे पैर सभा भवनों की सीढ़ियों पर हैं</div><div>और रंगमहलों की ओर बढ़ना सीख रहे हैं</div><div><br /></div><div>और हम तो कुछ भी नहीं</div><div>हम तो कहीं भी नहीं</div><div>हम तो अभी तक वहीं के वहीं हैं अखिलेश भादुड़ी</div><div>उसी घूरे पर</div><div>जहाँ हमें देखकर</div><div>तुमने कभी तल्खी से चीखती हुई कविता में कहा था</div><div>ये सूअरों में आदमी हैं</div><div>आदमियों में सूअर...!</div><div><br /></div><div>किसी नागयज्ञ की चिरचिराती गंध वाली कविता से</div><div>यह हमारा पहला परिचय था</div><div>घबराए हुए शब्दों वाली कविता</div><div>हड़बड़ाए हुए शब्दों वाली कविता</div><div>मुट्ठियाँ ताने, लपलपाते शब्दों वाली कविता</div><div>और तुम...!</div><div><br /></div><div>और अब जबकि तुम चले गए हो</div><div>हम अकसर तुम्हें याद करते हैं</div><div>राजधानी से लौटते हर आदमी से पूछ ही लेते हैं हालचाल</div><div>अखबारों में पढ़ते हैं हर साल </div><div>कहाँ से कहाँ चले गए तुम</div><div><br /></div><div>क्या हुआ अगर तुम्हारी चिट्ठी नहीं आती अखिलेश भादुड़ी</div><div>तो क्या हुआ</div><div>तुम तो हमारे दिल में हो न</div><div>जब चाहा बात कर ली</div><div><br /></div><div>अकसर कहीं से चोट खाकर आते हैं</div><div>तो पहले-पहल तुम्हीं से बतियाते हैं अखिलेश भादुड़ी</div><div>पता नहीं हमारी बातें</div><div>तुम तक पहुँचती भी हैं या नहीं!</div><div><br /></div><div>वैसे भी सुना है, काफी व्यस्त रहते हो</div><div>सुना है, राजधानी में खासी धाक है तुम्हारी</div><div>साहित्यिक जगत के दादा हो माने हुए</div><div>सुना है, अकादमी भवन में तुम्हारी कविता पर</div><div>बैठकें होती हैं, बहसें होती हैं</div><div>कोई पुरस्कार का चक्कर है</div><div><br /></div><div>सुना है, वहाँ जब भी जाते हो आम आदमी पर</div><div>अंग्रेजी में सहानुभूति जताते हो</div><div>वे भाषण तुम्हारी आधुनिका बीवी रात-रात भर</div><div>जागकर तैयार करती है</div><div>सुना है, आजकल गर्दिश के दिनों पर</div><div>किताब लिखने में बिजी हो</div><div><br /></div><div>वो जब भी छपेगी</div><div>कम से कम ढाई सौ रुपए में बिकेगी</div><div>सभी लाइब्रेरियाँ दस-दस कापियाँ खरीदेंगी</div><div>दस-बीस हजार से कम मत छपाना अखिलेश भादुड़ी</div><div>रायल्टी तगड़ी मिलेगी</div><div><br /></div><div>एक किताब तो हमें भी भेजोगे न,</div><div>भेजोगे मुफ्त...?</div><div>आखिर इतना तो हमारा भी हक है बरखुरदार!</div><div><br /></div><div>हम तो जब भी सुनते हैं</div><div>खुश बहुत होते हैं अखिलेश भादुड़ी</div><div>कि चलो अपने बीच से कोई तो उठा</div><div>और तुम्हें भी ज्यादा नहीं, तो थोड़ा-बहुत तो गर्व होगा ही</div><div>कि चलो बाप के घर से विद्रोह कर</div><div>इन मरभुक्खों के बीच गया तो कुछ तो मिला</div><div><br /></div><div>गर्व हमें भी है</div><div>कि हम गरीब सही</div><div>मगर हम गरीबों की तकलीफें बेचकर</div><div>कमाई तो अच्छी-खासी होती है।</div><div><br /></div><div>यह कोई अचरज है शायद</div><div>कि जब भी तुम याद आते हो</div><div>कविता में खोए होते हो</div><div>तुम्हारे तमतमाए गाल, होंठों पर पाश की लाइन—</div><div>कि दोस्तो, ये कुफ्र हमारे ही वक्त में होना था!</div><div><br /></div><div>तुम तो चले गए हो तो जाने क्यों</div><div>यही एक लाइन छूट गई है</div><div>हमारे तुम्हारे बीच किसी पुल की तरह</div><div>मगर जाने क्यों इसके अर्थ बदल गए हैं,</div><div>इस लाइन के अर्थ क्यों बदल गए हैं अखिलेश भादुड़ी</div><div>कि दोस्तो, ये कुफ्र हमारे ही वक्त में होना था!</div><div><br /></div><div>(दो)</div><div><br /></div><div>हाँ, एक बात तो छूट ही गई</div><div>कल एक लड़का हमारे गाँव आया था</div><div>यही कोई बीस-बाईस बरस का</div><div>संग में और भी थे दो चार, सभी में जोश, हाहाकार!</div><div>उसने भी तुम्हारी तरह नुक्कड़ नाटक किया था</div><div>और फिर आखिर में कविता पढ़ी थी सुलगते हुए</div><div>बिल्कुल तुम्हारी तरह</div><div><br /></div><div>और जब वह कविता पढ़ रहा था</div><div>मैं पूरे वक्त धुआँ ही निगलता रहा</div><div>और सोचता रहा इसका ढंग</div><div>तुमसे इतना मिलता-जुलता क्यों है</div><div>अचानक उसकी शक्ल में एक काइयाँपन उभरा था</div><div>काइयाँपन और तुम्हारा चेहरा एक साथ</div><div>और मैं काँप गया था</div><div><br /></div><div>मैं काँप क्यों गया था अखिलेश भादुड़ी</div><div>मैं काँप क्यों गया था अगर उसकी शक्ल तुमसे</div><div>मिलती थी तो ऐसी क्या बात थी</div><div>लोगों की लोगों से शक्ल मिलती ही है</div><div>लोग तो लोगों की तरह ही होते हैं</div><div>लोगों के रस्ते ही जाते हैं</div><div>चाहे वे लड़ाका मार्क्सवादी हों या गोलमोल</div><div>अध्यात्मवादी, गांधी-अरविंदवादी</div><div>या तबलावादी चम्मचवादी गिरगिटवादी साँप-छछूँदरवादी</div><div>आँसूवादी प्यारवादी लिंगलकारवादी हँसिया तलवारवादी</div><div><br /></div><div>दरअसल वाद तो सिर्फ वाद होते हैं</div><div>ये सब तो लेबल हैं न, सुविधा की मौज-मस्तियाँ</div><div>सफल आदमी इन्हें चिपकाता है उतारता है</div><div>फिर चिपकाता है ठहर-ठहरकर</div><div>असल बात तो यही है न कि</div><div>सारे सफलतावादी एक ही राह जाते हैं</div><div>कितनी ही विरोधी क्यों न हो यात्राएँ</div><div>आखिर वे पहुँचेंगे एक ही धुर!</div><div><br /></div><div>हमारी छोड़ो...</div><div>हमारी भी क्या बात करते हो अखिलेश भादुड़ी?</div><div>हम तो कुछ हैं ही नहीं</div><div>हम तो कहीं नहीं हैं</div><div>तुम्हारे ही शब्दों में—</div><div>सूअरों में आदमी</div><div>आदमियों में सूअर...!</div><div><br /></div><div>यह पुरानी कविता</div><div>अब भी पढ़ते हो क्या सभामंचों पर?</div><div><br /></div><div>एक जिज्ञासा है, बुरा मत मानना</div><div>पढ़ते हो तो</div><div>तुम्हारी आवाज हकला नहीं जाती</div><div>और तुम्हारी आधुनिका बीवी कुढ़कर</div><div>नाक पर रूमाल नहीं रख लेती...!</div><div><br /></div><div>अब चलूँगा अखिलेश भादुड़ी</div><div>चलता हूँ...</div><div>ज्यादा बोलकर तुम्हारे बेशकीमती वक्त की</div><div>हत्या क्यों करूँ?</div><div>याद आया, तुम तो गर्दिश के दिन</div><div>लिखने में बिजी हो न!</div><div><br /></div><div>वैसे एक बात कहना,</div><div>ये कविता और गद्द-पद्द की छोड़ो,</div><div>असल में भी कभी हमारी याद आती है</div><div>ठीक वैसे जैसे हम पनीली आँखों से</div><div>तुम्हें याद करते हैं अखिलेश भादुड़ी</div><div>उँगलियों के पोरों पर तुम्हें याद करते हैं...</div><div><br /></div><div>चलो न भी करो</div><div>मगर हम तो तुमसे चिपक ही गए बहुत भीतर तक</div><div>और यह कितना दिलचस्प है कि</div><div>चाकू से छीलो तो भी छूटेंगे नहीं हम</div><div>ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारी घरवाली</div><div>सेंट की कितनी ही शीशियाँ छिड़के</div><div>हम पर लिखी कविता में</div><div>हमारे पसीने की बदबू आएगी ही</div><div><br /></div><div>और अकेले में</div><div>तुम्हारी हथेलियों से छूटेगा जो पसीना</div><div>उसके पाप-संताप की दुर्गंध तुम्हारे नथुनों में जाएगी ही</div><div>क्योंकि वह तुम्हारी जिंदगी का जरूरी हिस्सा है</div><div>तुम्हारी रंग-रोगनदार कोठी की तरह</div><div>तुम्हारी सस्ती महफिलों की रौनक,</div><div>मांस और बोटी की तरह!</div><div><br /></div><div><br /></div><div>(तीन) </div><div><br /></div><div>चलते-चलते </div><div>एक-दो छोटी-मोटी सूचनाएँ कहो तो सुनाऊँ</div><div>शायद उनमें तुम्हारी दिलचस्पी बची हो</div><div>या फिर तुम्हारे किसी काम ही आ जाएँ</div><div><br /></div><div>याद है अखिलेश भादुड़ी, सरदारीलाल की</div><div>अरे वही दीवाना सा लड़का</div><div>जो दिन-रात भर तुम्हारे साथ शहरों, कसबों,</div><div>जंगलों की खाक छानता था</div><div>क्रांति के सपने बाँटता था</div><div>सोचता था क्रांति आएगी</div><div>तो कहीं न कहीं हाथ भर जमीन उसकी भी होगी</div><div>तुम यही तो बार-बार उसे समझाते थे</div><div><br /></div><div>अब वो नहीं रहा</div><div>कल सुबह</div><div>भगवानदास की बगीची में लटका देखा गया</div><div>था उसका शव...</div><div><br /></div><div>वैसे भी तो मरगिल्ला हो गया था पूरा, उसे मरना ही था</div><div>और सरबतिया</div><div>जो पूरी आँखें खोलकर तुम्हें पीती थी</div><div>अब तुम बातें करते थे गाँवों के सुधार की</div><div>अब गूँगी सी भटकती है</div><div>वह किससे बोलती और क्यों,</div><div>तुम तो उसके पास अपना पता तक नहीं छोड़ गए।</div><div><br /></div><div>करीब छह महीने हुए</div><div>उसके साथ क्या-क्या हुआ उस बगीची में</div><div>सब जानते हैं कोई नहीं कहता</div><div>कि फिर कैसे वो फेंकी गई कुएँ में</div><div>कैसे निकली</div><div>तब से पैर घसीटते चलती है न रोती न हँसती</div><div>बस आसमान को घूरती है, घूरे चली जाती है...</div><div><br /></div><div>खैर, तुम्हें इस सबसे क्या लेना</div><div>मैंने तो यों ही चलते-चलते जिक्र किया</div><div>शायद इसमें भी तुम्हें कुछ काम का दिख जाए</div><div>मोटा उपन्यास बन सकता है</div><div>पुरस्कार मिलेगा तो आमदनी भी क्या मोटी न होगी?</div><div><br /></div><div>हम तो</div><div>जो हैं सो है अखिलेश भादुड़ी</div><div>सूअर की दुम...गधे की लीद...</div><div>जाहिल, अनपढ़ उजबकों की औलाद</div><div>बुरा लगा—चलो कामरेड कह लो</div><div>यह तो तुम्हारा सिखाया हुआ शब्द है न!</div><div>मगर इतना तो हम भी जानते हैं</div><div>कि कामरेड और कामरेड भी तो एक नहीं होते</div><div>क्यों, मैंने कुछ गलत कहा?</div><div><br /></div><div>बहरहाल हम तो जो हैं सो हैं</div><div>मगर खुशी है</div><div>कि चलो कोई तो आगे गया</div><div>जिसे हम छूते, पहचानते, नाम ले-लेकर पुकारते थे</div><div>और फिर मंजिल तक पहुँचने के लिए</div><div>कित्ती तो मेहनत करनी पड़ती है तुम्हें</div><div>कित्ती तो मेहनत कर रहे हो</div><div>गर्दिश के दिन लिखने के लिए</div><div><br /></div><div>कुछ हैं जो आगे जाने के लिए ही होते हैं</div><div>तुम्हारी मंजिल तो शुरू से तय थी अखिलेश भादुड़ी</div><div>गलती हमारी ही थी</div><div>जो तुम्हें अपने बीच का आदमी समझे थे</div>**</div><div><br /></div><div><span style="font-size: x-small;">545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,</span></div><div><span style="font-size: x-small;">चलभाष: 09810602327,</span></div><div><span style="font-size: x-small;">ईमेल: prakashmanu333@gmail.com</span></div>
<hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-62419686158130000652024-02-29T22:28:00.003-05:002024-02-29T23:22:31.698-05:00हिंदी के शिखर साहित्यकारों की अंतरंग बातें<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhemktUsupecRih-HbOPXuJMSbdz-GnT2zpxHKyQUZCB0PEpjFSOsvUc2gV2Z7Dh7-uVEKYnpQlrOnGiULaIpqJ_YmttZaFRq0TwFqY3o-Weq15jyHg-oTBv9ukK89xakpcsuFYbnm4owDV1sfLpCcnJT_eWxqYSfdTDDgeUNcXf9A0GCE1__8Qt31En0A/s751/Bade-Sahityakaron-Ke-Sath.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="530" data-original-width="751" height="226" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhemktUsupecRih-HbOPXuJMSbdz-GnT2zpxHKyQUZCB0PEpjFSOsvUc2gV2Z7Dh7-uVEKYnpQlrOnGiULaIpqJ_YmttZaFRq0TwFqY3o-Weq15jyHg-oTBv9ukK89xakpcsuFYbnm4owDV1sfLpCcnJT_eWxqYSfdTDDgeUNcXf9A0GCE1__8Qt31En0A/s320/Bade-Sahityakaron-Ke-Sath.jpg" width="320" /></a></div><h3 style="text-align: left;">समीक्षक:सुरेश्वर त्रिपाठी</h3><br /><div>पुस्तक: बड़े साहित्यकारों के साथ</div><div>लेखक: प्रकाश मनु</div><div>प्रकाशक: लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली</div><div>संस्करण: 2024</div><div>पृष्ठ: 271</div><div>मूल्य: ₹ 499 रुपए</div><div><br /></div><div><br /></div><div>प्रकाश मनु हमारे समय के चर्चित कवि-कथाकार हैं। पर इसके साथ ही वे हिंदी में बड़े साहित्यकारों के एकदम अलग ढंग के विशिष्ट साक्षात्कार लेने वाले लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं। उनके साक्षात्कार साहित्यिक दुनिया के सूक्ष्म से सूक्ष्म और गंभीर से गंभीर प्रश्नों का उत्तर हमारे सामने प्रस्तुत कर देते हैं। बहुत से भेंटकर्ता बड़े साहित्यकारों से जिन प्रश्नों को पूछने का साहस नहीं कर पाते, प्रकाश मनु गहरे पैठकर उन प्रश्नों का भी उत्तर ले आते हैं। इस पर कभी-कभी विवाद भी हुए हैं, पर मनु जी पर इन बातों का कोई असर नहीं होता। वे धुनी हैं और लेखकों की दुनिया के आत्मीय क्षणों को अपने साक्षात्कारों के जरिए बड़े जीवंत रूप में प्रस्तुत करने का पूरा जतन करते हैं। इसीलिए उनके द्वारा लिए गए साक्षात्कारों की बहुत चर्चा भी हुई है।</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html"><img border="0" data-original-height="810" data-original-width="1080" height="150" src="https://1.bp.blogspot.com/-0ug3YB7Z0j4/YS7kZ1Jr2MI/AAAAAAAASF0/KJ7KCt_MQA03-4awgbsUX28f1p-vfBScACLcBGAsYHQ/w200-h150/Prakash_manu_3.JPG" width="200" /></a></span></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.setumag.com/2021/03/Author-Prakash-Manu.html">प्रकाश मनु</a></td></tr></tbody></table>
<div>इन विशिष्ट साक्षात्कारों की तरह ही प्रकाश मनु ने कई बड़े साहित्यकारों के साथ बिताए पलों के आधार पर बड़े ही अंतरंग संस्मरण भी लिखे हैं, जिन्हें पढ़ने का अलग आनंद है। उनके ये संस्मरण कुछ इस अंदाज में लिखे गए हैं कि आप उऩ्हें किसी रोचक किस्से-कहानी की तरह पढ़ सकते हैं। साथ ही हिंदी के बड़े साहित्यकारों पर लिखे गए ये संस्मरण पढ़कर आप उनके जीवन, रचनाकर्म और शख्सियत के बारे में कुछ अनजानी बातों को पढ़कर हैरान भी हो सकते हैं। मनु जी के ऐसे ही अंतरंग और आत्मीय संस्मरणों की पुस्तक है, ‘बड़े साहित्यकारों के साथ’। लिटिल बर्ड पब्लिकेशन, दिल्ली ने अभी हाल में ही यह पुस्तक प्रकाशित की है। इसमें हिंदी के ग्यारह शिखर साहित्यकारों के संस्मरण हैं। इस पुस्तक को पढ़ने पर हम इन बड़े साहित्यकारों के अंतरंग जीवन की झाँकी के साथ ही, कुछ ऐसी बातों को भी जान लेते हैं, जिनका उनकी साहित्यिक शख्सियत की बुनावट में बड़ी भूमिका है, लेकिन हम उनसे परिचित न थे।</div><div>पुस्तक में प्रकाश मनु सबसे पहले देवेंद्र सत्यार्थी को याद करते हैं, जिन्हें वे अपना कथागुरु मानते हैं और वे उन्हें लोकगीतों का ऐसा फरिश्ता कहते हैं, जिसने उनका जीवन ही बदल दिया। सत्यार्थी जी ने प्रकाश मनु के मन पर कितना प्रभाव छोड़ा था, यह उनके शब्दों से ही पता चल जाता है—</div><div>“.....हुआ यह कि कहीं भी जा रहा होऊँ, कदम मुड़ जाते सत्यार्थी जी के घर की ओर। सच कहूँ, उनका जादू चल गया था मुझ पर। जब भी अकेला होता, मैं उनके बारे में सोच रहा होता। वे मेरे लिए एक ऐसे ‘महानायक’ थे, जैसा होना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना था। बहुत व्यस्त होता तो भी सप्ताह में एक बार तो पहुँच ही जाता। और जाते ही सत्यार्थी जी की मुक्त हँसी का स्पर्श, आ गए, मनु! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था...।” तात्पर्य यह कि केवल प्रकाश मनु ही सत्यार्थी जी से प्रभावित नहीं थे, बल्कि सत्यार्थी जी भी प्रकाश मनु से प्रभावित थे।</div><div>प्रकाश मनु जब सत्यार्थी जी की बात करते हैं, तो वे उनके जीवन के कोने-अंतरे तक प्रवेश करते हैं। सत्यार्थी जी की छाती तक झूलती लंबी सफेद दाढ़ी, सत्यार्थी जी के नंगे पैर, सत्यार्थी जी की घुमक्कड़ी, सत्यार्थी जी की लोकगीतों के प्रति आसक्ति आदि बातें बड़े अनोखे ढंग से सामने आती हैं। इसलिए जो शख्स सत्यार्थी जी से इतनी गहराई से परिचित नहीं होता, वह चौंक जाता है कि ‘अरे वाह! सत्यार्थी जी ऐसे थे....?’ प्रकाश मनु के लिए बड़े साहित्यकार केवल कुछ लिखने के विषय भर नहीं हैं, अपितु वे उन लेखकों से इस तरह जुड़ते हैं कि उन्हें भी बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है। पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं—</div><div>“...सत्यार्थी जी ने बहुत कुछ सिखाया। उनकी यह बात नहीं भूलती कि अरे, जिंदगी कोई सजा थोड़े ही है। जिंदगी तो जीने के लिए है भई मनु, पूरी मस्ती से जीने के लिए! इसे डर-डरकर नहीं जीना चाहिए।”</div><div>*</div><div><br /></div><div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEit0D8kp13XfoZhx3KZcKx12hEWhHS3bs8s2k2hq8NxLHReOrIuTtQ8itiMcL3FIsFJpUc5Qb41vVgii6Kvt8aUk4lKCdLNxIeDDRHqqzwT5NQs-Ew0a5xwq4C6EmFT7Cc8C_sMUn2d0tTnimwJtgNAsJvWqjk2kDDdqyQc1UzTzgC3hJ4RFM3iI5niz_c/s259/Sureshwar-Tripathi.jpg" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="259" data-original-width="190" height="259" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEit0D8kp13XfoZhx3KZcKx12hEWhHS3bs8s2k2hq8NxLHReOrIuTtQ8itiMcL3FIsFJpUc5Qb41vVgii6Kvt8aUk4lKCdLNxIeDDRHqqzwT5NQs-Ew0a5xwq4C6EmFT7Cc8C_sMUn2d0tTnimwJtgNAsJvWqjk2kDDdqyQc1UzTzgC3hJ4RFM3iI5niz_c/s1600/Sureshwar-Tripathi.jpg" width="190" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सुरेश्वर त्रिपाठी</td></tr></tbody></table>प्रकाश मनु जी ने प्रख्यात आलोचक, चिंतक और ऋषि पुरुष डॉ. रामविलास शर्मा के साथ भी बहुत समय बिताया है। वे जितना रामविलास जी को जानने का प्रयास करते हैं, उतना ही रामविलास जी के साथ-साथ महाकवि निराला के जीवन की भी कुछ और परतें खुलने लगती हैं। रामविलास जी निराला के बहुत करीब थे और निराला के दुख-दर्द और भीषण संघर्ष के दिनों को उन्होंने बहुत पास से देखा है। इसीलिए जब रामविलास जी निराला के बारे में कुछ लिखते या बोलते हैं तो हमें एक अलग ही निराला नजर आते हैं। प्रकाश मनु इस संस्मरण में रामविलास जी से जुड़ी स्मृतियाँ उकेरते हैं, पर साथ ही रामविलास जी के जरिए निराला के जीवन की कुछ महत्वपूर्ण बातें भी सामने लाते हैं—</div><div>“....पुत्री सरोज की मृत्यु की सूचना पाकर निराला की अवसन्न हालत! उनका रात-रात भर कमरे में चक्कर लगाना, बड़बड़ाना। फिर कागज की छोटी-छोटी पर्चियों पर ‘सरोज स्मृति’ का लिखा जाना।...उन टुकड़ों को जोड़कर निराला द्वारा उसे एक पूरी कविता का रूप देना। निराला बुरी तरह टूट रहे थे, लेकिन भीतर उन्होंने कहीं अपने आपको बड़ी कठिनाई से साधा भी था।” </div><div>मनु जी लिखते हैं कि “‘सरोज स्मृति’ की यह रचना-प्रक्रिया सुनकर मुझे याद है कि मैं भीतर तक थरथरा गया था।”</div><div>इस संस्मरण के बहाने प्रकाश मनु रामविलास जी के जीवन और शख्सियत से जुड़े कुछ अजाने प्रसंगों को भी हमारे सामने लाते हैं, “मैं भूल नहीं पाता कि अपने अंतिम दिनों में जब रामविलास जी हिल-डुल भी नहीं पाते थे, तो भी वे अपनी बीमारी के बारे में नहीं, बल्कि अपनी अधूरी पुस्तक ‘तुलसीदास और उनका सौंदर्य-बोध‘ के बारे में सोचते रहते थे। उन्होंने मुझे बताया था, मैं तो उसे पूरा करने के लिए मन ही मन नक्शे बनाता रहता हूँ।” </div><div>प्रकाश मनु रामविलास जी के असाधारण व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। रामविलास जी ने एक और काम किया, जो शायद ही और कोई कर सकता है। प्रकाश मनु लिखते हैं—</div><div>“ऐसे ही पुरस्कार और सम्मानों के लिए उनकी घोर विरक्ति ने मेरी आँखें खोल दीं, और बिन कहे समझा दिया कि एक सच्चा लेखक क्या होता है। एक लेखक का स्वाभिमान क्या होता है! बहुत से लोग और संस्थाएँ उन्हें आदर से बुलाती थीं, सम्मानित करना चाहती थीं। पर रामविलास जी के लिए उनका काम ही सब कुछ था। अपना काम बीच में छोड़कर, यहाँ-वहाँ सम्मानित होने चल देना उन्हें बड़ा ही हेय, बल्कि हास्यास्पद लगता था। उनका मानना था कि किसी लेखक का सच्चा सम्मान तो उसका साहित्य पढ़ना है। इसलिए कोई उन्हें सम्मानित करने के लिए आमंत्रित करता, तो उनका जवाब होता था, आप मेरा लिखा हुआ पढ़ लीजिए। बस, यही मेरा सम्मान है।” </div><div>आज के समय में छोटे-बड़े सभी साहित्यकार इस बात को लेकर लालायित रहते हैं कि उन्हें कोई बड़ा पुरस्कार मिल जाए, जिसके साथ बड़ी धनराशि भी हो, तो शायद जिंदगी सँवर जाए। पर रामविलास जी को पुरस्कारों से और उनके साथ मिलने वाली बड़ी से बड़ी धनराशि से ऐसी विरक्ति थी, जो उन्हें अन्य सभी साहित्यकारों से अलग और महान बनाती है। उनकी इस खुद्दारी के आगे बड़े से बड़ा साहित्यकार भी अपने को छोटा अनुभव करने लगता था। उसके मन में कहीं न कहीं यह बात जरूर आती होगी, कि कितना अच्छा होता, अगर मैं भी रामविलास जी की तरह सम्मान-लालसा और धनराशि से विरक्त हो पाता! </div><div>रामविलास जी से सभी कुछ न कुछ सीखने को तत्पर रहते थे। प्रकाश मनु भी स्वीकार करते हैं कि उन्होंने रामविलास जी से बहुत कुछ प्राप्त किया, उनसे सीखा है, “...आज समझ में आता है कि रामविलास जी केवल मेरे सवाल का जवाब ही नहीं दे रहे थे, बल्कि बड़े बेमालूम ढंग से काम करना क्या होता है, यह भी उन्होंने सिखाया।”</div><div>*</div><div><br /></div><div>मनु जी ने पुस्तक में जिन साहित्यकारों के संस्मरण लिखे हैं, उनमें से लगभग सभी साहित्यकारों के बहुत लंबे और विस्तृत साक्षात्कार भी उन्होंने लिए हैं। साक्षात्कार लेते समय उनमें कहीं-कहीं असहमति भी दिखाई देती है। नामवर सिंह वाले संस्मरण में वे लिखते हैं कि रामविलास शर्मा जैसे साहित्यकार का साक्षात्कार लेते समय मुक्तिबोध के प्रसंग पर उनके और रामविलास जी के विचारों में भिन्नता इतनी अधिक थी कि रामविलास जी कुछ क्रोधित भी हो गए—</div><div>“यह चर्चा इतनी तीखी हो गई थी कि रामविलास जी कुछ खीज उठे थे। उन्होंने गुस्से में कहा कि अगर आपने अब एक भी सवाल कविता पर पूछा तो मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दूँगा। मेरे लिए यह स्तब्धकारी स्थिति थी। इसलिए कि मैं रामविलास जी का बहुत सम्मान करता था। उनसे कोई बहस करने तो मैं गया नहीं था, पर मुक्तिबोध को जिस तरह वे नकारते हैं, वह मुझे स्वीकार्य न था, और इससे इंटरव्यू में स्वभावतः थोड़ी अतिरिक्त गरमी आ गई थी।”</div><div>नामवर सिंह की बहुत सी बातों से भी प्रकाश मनु सहमत दिखाई नहीं देते हैं। नामवर जी के बारे में वे बड़े स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, “फिर बरसों बाद, दिल्ली आने पर नामवर जी की पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ पढ़ी, जिसे एक तरह से उन्होंने अपने गुरु आचार्य द्विवेदी को ट्रिब्यूट के तौर पर लिखा था। पर पता नहीं क्यों, इसे पढ़कर मैं ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ। शायद पुस्तक मेरी उम्मीदों से कमतर थी। बहुत आश्वस्त करने वाली भी नहीं। मेरे लिए यह बड़े आश्चर्य की बात थी कि एक आलोचक की हैसियत से नामवर जी का कद तो बड़ा था, पर उनकी कृति शायद उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी थी, जिसकी मुझ सरीखे पाठक उम्मीद करते हैं। और जाहिर है, ‘दूसरी परंपरा की खोज’ पुस्तक मुझे अपने साथ उस तरह नहीं बहा सकी, जैसे कभी ‘कविता के नए प्रतिमान’ के जादुई आकर्षण में मैं बहता चला गया था।” </div><div>प्रकाश मनु जब साक्षात्कार ले रहे होते हैं तो वे सामने वाले के व्यक्तित्व से प्रभावित तो जरूर होते हैं, पर वे सख्त से सख्त प्रश्न पूछने में कोई संकोच नहीं करते हैं। कई बार उनके प्रश्नों से लेखक असहज हो जाते हैं, चाहे वे रामविलास शर्मा या फिर नामवर सिंह हों। इससे प्रकाश मनु के इंटरव्यूकार की हिम्मत और हौसले को तो समझा ही जा सकता है, जो उनके साक्षात्कारों को भी विशिष्ट बना देता है। </div><div>त्रिलोचन जी पर लिखा गया मनु जी का संस्मरण काफी अलग सा है, जिसमें कहीं-कहीं त्रिलोचन जी का विनोद भाव भी सामने आता है। इस संस्मरण में त्रिलोचन जी के अलावा कई अन्य लोग भी उपस्थित हैं। फिर हरिपाल त्यागी, देवेंद्र सत्यार्थी आदि की चर्चा तो बार-बार की गई है। जिस तरह सत्यार्थी जी वाले संस्मरण मनु जी उनकी दाढ़ी के बारे में बहुत खुलकर बात करते हैं, कुछ उसी तरह त्रिलोचन जी वाले संस्मरण में भी उनकी दाढ़ी बड़े रोचक प्रसंग में ढलकर हमारे सामने आती है। </div><div>इस प्रसंग में प्रकाश मनु ने लिखा है कि कैसे वह जिन सज्जन को त्रिलोचन जी के भाई के रूप में जान रहे थे, वे और कोई नहीं, बल्कि स्वयं त्रिलोचन जी ही थे। यह भ्रम, असल में, उनकी दाढ़ी पैदा कर देती है—</div><div>“अब समझ में आया, जिन्हें मैं त्रिलोचन जी का भाई समझ रहा था, वे कला, साहित्य और शास्त्र में इतनी गहरी रुचि और इतना ज्यादा दखल क्यों रखते थे, और उनका बात करने का अंदाज त्रिलोचन जी से इस कदर मिलता क्यों था? और क्यों ‘दाढ़ीदार’ त्रिलोचन जी की जगह सफाचट चेहरे वाले ‘त्रिलोचन जी के भाई’ नाटक की अध्यक्षता कर रहे थे!” </div><div>इस संस्मरण मे सादतपुर में रहने वाले कई अन्य साहित्यकारों की तरह-तरह की गतिविधियों की भी बड़े रोचक ढंग से चर्चा की गई है। इनमें रामकुमार कृषक और विष्णुचंद्र शर्मा जैसे लेखकों का खासकर जिक्र किया जा सकता है, जो इस संस्मरण में बड़े प्रमुख रूप में उपस्थित हैं।</div><div>*</div><div><br /></div><div>हिंदी के वरिष्ठतम साहित्यकार रामदरश मिश्र का एक गीत बहुत ही चर्चित हुआ था, ‘जहाँ लोग पहुँचे छलाँगें लगाकर, वहाँ मैं भी पहुँचा, मगर धीरे-धीरे’। इसी गीत की एक पंक्ति को प्रकाश मनु ने उन पर लिखे गए संस्मरण का शीर्षक बनाया गया है, ‘बनाया है मैने यह घर धीरे-धीरे!’ हिंदी का कोई ऐसा पुरस्कार-सम्मान नहीं है, जो अपनी आयु के शतक लगाने जा रहे इस सहज, सरल और गंभीर स्वभाव वाले समर्पित लेखक को न मिला हो। दिल्ली जैसे महानगर में रहने वाले रामदरश जी अपने गाँव, अपनी माटी को कभी नहीं भूलते। उनकी रचनाओं में उनका गाँव भी रहता है और गाँव के लोग भी। प्रकाश मनु लिखते हैं—</div><div>“कोई अस्सी बरस पहले जब उन्होंने लिखना शुरू किया था, तो प्रेमचंद की तरह आम आदमी को उन्होंने साहित्य और अपने हृदय के सिंहासन पर बैठाया, जिसके दुख-दर्द, अभाव और मुश्किलों की अनंत कथाएँ उन्होंने अपने गाँव और आसपास देखी, सुनी थीं, भीतर की अफाट विकलता के साथ महसूस की थीं। ये निपट साधारण लगते आम जन उनकी कविता, कहानी, उपन्यासों के नायक थे, और हैं भी। उसे बदलने की आज तक उन्हें जरूरत नहीं महसूस हुई।”</div><div>प्रकाश मनु जिन वरिष्ठ साहित्यकारों के बारे में लिखते हैं, उनमे से लगभग सभी को वे अपने मार्गदर्शक और गुरु की तरह देखते हैं। रामदरश जी को भी वे गुरु मानते हैं—</div><div>“रामदरश जी मेरे गुरु हैं। उनसे बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया। उनका बहुत निकट सान्निध्य मुझे मिला है। दिल्ली आने पर जिन लेखकों ने अपने स्नेह का संबल देकर मुझे टूटने नहीं दिया और मन में आत्मविश्वास जगाए रखा, उनमें रामदरश जी अन्यतम हैं।” </div><div>सच पूछिए तो प्रकाश मनु रामदरश जी के जीवन के कई नई पन्ने खोलने में सफल हुए हैं। एक बहुत ही गंभीर प्रश्न वे रामदरश जी से पूछते हैं कि अन्य कई साहित्यकारों की तुलना में आप पिछड़ क्यों गए? इस पर रामदरश जी का उत्तर लेखक के रूप में उनके आत्मविश्वास और स्वाभिमान से हमारा परिचय कराता है—</div><div>“जो-जो ये तथाकथित बड़े लेखक हैं, उनके साथ कोई न कोई बड़ी पत्रिका या लेखक-संगठन जुड़ा रहा और उनकी जो भी अच्छी रचनाएँ हैं, वे इस कदर उछाले जाने से पहले की हैं। बाद मे तो वे लेखक के रूप में चुक ही गए, जबकि मैं लगातार एक लेखक के आत्मविश्वास के साथ अपनी राह पर आगे बढ़ता गया। और मुझे इस बात का मलाल नहीं है कि मुझे इतना उछाला क्यों नहीं गया। मुझे अपने पाठकों का बहुत प्यार मिला है और वही मेरी शक्ति है। जबकि इस तरह से बहुत उछाले गए लेखकों की रचनाएँ शायद पढ़ी ही नहीं जातीं।”</div><div>बाबा नागार्जुन के बारे में प्रकाश मनु लिखते हैं कि बाबा के कारण ही सादतपुर साहित्यकारों की कर्मस्थली बन गया था— </div><div>“....इसीलिए बाबा के होने से सादतपुर एक तरह की साहित्य नगरी या साहित्यपुर ही बन गया था। बाबा केवल सादतपुर में रहते ही न थे, बल्कि वे पूरे सादतपुर में सबके अपने कवि, सबके अपने चहेते कवि बन चुके थे। छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष सबके। वे सादतपुर के हर घर-परिवार के सदस्य और सुख-दुख के सहचर थे। सबके परिवारी कवि भी। इसलिए किसी बड़े से बड़े आदमी के रोब में वे नहीं आते थे। जिसे मिलना हो, वह दौड़-दौड़कर सादतपुर आए और सिर झुकाए उस बीहड़ कवि के आगे, जो सादतपुर के बच्चों-बड़ों सबके अपने बाबा हैं।”</div><div>जब भी किसी बड़े साहित्यकार के विषय में प्रकाश मनु लिखते हैं तो उसकी विशेषताओं के बखान के साथ ही उसकी बहुत सी अनुकरणीय बातों की वे भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। लेकिन यदि कहीं किसी बड़े लेखक की कमजोरी उन्हें दिखाई देती है तो बिना हिचके उसकी भी चर्चा करते हैं। बाबा के बारे में वे खूब अच्छी बातें लिखते हैं, पर एक जगह वे उनकी आलोचना भी करते हैं—</div><div>“...हालाँकि आगे चलकर गाँव और गाँव की आंचलिक पृष्ठभूमि पर लिखे गए उपन्यासों में एक गड़बड़ भी हुई। कहीं-कहीं रसमयता के नाम पर रसीलापन इतना बढ़ा कि लगा कि असली आदमी ओट हो गया है और गाँव और गाँव के आदमी के नाम पर कोई और ही लीला रची जा रही है।” </div><div>साहित्यकारों पर लिखे गए अपने कई और संस्मरणों की तरह ही बाबा नागार्जुन के संस्मरणों में भी प्रकाश मनु इस बड़े लेखक के जीवन की कई परतें खोलते नजर आते हैं।</div><div>*</div><div><br /></div><div>इन संस्मरणों में प्रकाश मनु के ज्यादातर नायक ऐसे ही लेखक हैं, जिनमें खुद्दारी है और जिन्होंने जीवन में बहुत दंश झेला है। इस लिहाज से जिस लेखक से बेहद प्रभावित दिखाई देते हैं, वे हैं शैलेश मटियानी। यहाँ तक कि एक जगह वे बड़े कद के लेखक शैलेश मटियानी की तुलना महाकवि निराला से करते हैं—</div><div>“मैं अपने जीवन में निराला से तो नहीं मिला, पर अगर किसी लेखक में निराला को देखा, निरालापन देखा, तो वे मटियानी जी ही थे। और अफसोस, जैसे इलाहाबाद में रहते निराला के हिस्से उपेक्षा और विक्षिप्तता आई, वैसे ही मटियानी भी अंत में मानसिक विक्षेप और विचलन के शिकार हुए और एक अंतहीन त्रासदी से घिर गए। और अंत में इसी हालत में दिल्ली में उनका निधन हुआ, तो भी उनकी जीवन-त्रासदी का मानो अंत नहीं हुआ। उनकी जीवन-कथा का आखिरी अध्याय तो शायद अभी लिखा जाना बाकी था।” </div><div>मटियानी जैसा लेखक अपने जीवन में जितने उतार-चढ़ाव से गुजरा, शायद ही उनका कोई समकालीन लेखक गुजरा हो। प्रकाश मनु के अनुसार मटियानी जी कभी संकटों से घबराए नहीं, पर कभी-कभी वे इसे अनुभव जरूर करते थे—</div><div>“हालाँकि मटियानी जी ने कभी इसकी बहुत ज्यादा परवाह नहीं की, पर कभी-कभी बड़े विषादपूर्ण स्वर में वे इसका जिक्र करते थे, तो मेरे भीतर कहीं कुछ टूटता था। इतना बड़ा लेखक, जिसे पढ़ते हुए गोर्की का सा यथार्थ-चित्रण और तुर्गनेव सी विलक्षण कला, दोनों एक साथ आँखों में कौंधते हैं, हिंदुस्तान के घर-घर में जिसे आज भी इतने प्यार और आदर से पढ़ा जाता हो, उसके हिस्से आई यह अक्षम्य आलोचकीय उपेक्षा क्या यों ही थी? मैं याद करता हूँ तो मर्माकुल हो जाता हूँ।”</div><div>प्रकाश मनु ने मटियानी जी के जीवन के कुछ ऐसे पलों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है, उन्हें जानकर हम दुख के सागर में डूब जाते हैं। मटियानी जी इतने बड़े लेखक होते हुए भी अपने जीवन में ऐसे संकटों का सामना करते हैं कि उन्हें जानने-पढ़ने वालों को अपने मनुष्य होने पर ही लज्जा आती है। प्रकाश मनु उनके जीवन की कुछ ऐसी ही घटनाओं का वर्णन करते हैं—</div><div>“मुबा देवी के मंदिर के सामने भिखारियों की कतार है और अन्न की प्रतीक्षा है। चर्च गेट, बोरिवली या बोरीबंदर से कुरला थाना तक की बिना टिकट यात्राएँ हैं और अन्न की प्रतीक्षा है। और इस अन्न की तलाश में भिखारियों की पंगत में बैठने से लेकर जान-बूझकर ‘दफा चौवन’ में भारत सरकार की शरण में जाना और जूते-चप्पलों तक का चुराना ही शामिल नहीं, राष्ट्रीय बेंतों और सामाजिक जूते-चप्पलों से पिटना भी शामिल है।”</div><div>मटियानी जी के आत्मस्वीकार से जुड़ी ये पंक्तियाँ पढ़ते हुए, मन थरथरा उठता है। लेखक बनने के लिए ऐसी कठिन तपस्या भला कितने लेखकों ने की होगी!</div><div>मटियानी जी के जीवन में जो दुखों के पहाड़ समय-समय पर अवरोध उत्पन्न करते थे, उनका अंत नहीं था। उनके बेटे की इलाहाबाद में हत्या हो जाना भी एक ऐसी ही मर्मांतक घटना थी। कहा जाता है कि हत्यारे किसी और की हत्या के लिए आए थे और भ्रमवश उन्होंने मटियानी जी के बेटे को मार दिया। पहले से ही कई अन्य विपदाओं को झेल रहे मटियानी जी अपने बेटे की हत्या से एकदम टूट से गए थे।</div><div>*</div><div><br /></div><div>रघुवीर सहाय भी प्रकाश मनु के प्रिय लेखकों में रहे। मनु जी अपने संस्मरण में उनके बारे में बहुत विस्तार से लिखते हैं और कई घटनाओं के माध्यम से उन्हें स्मरण करते हैं। सहाय जी हिंदी में अपने ढंग के एक बड़े और खुरदरे लेखक थे। औरों से अलग। बहुत अलग। एक जगह प्रकाश मनु रघुवीर सहाय के बारे में लिखते हैं—</div><div>“नहीं-नहीं, रघुवीर सहाय को पाना इतना आसान नहीं। इसलिए कि हर बार वे आपकी बनाई हुई हदों को फलाँग जाते हैं, किसी भी बड़े कवि की तरह। किसी भी भाषा में हर दौर में ऐसे कुछ ही कवि होते हैं जो एक मूर्ति बनाते, एक ढहाते हैं। और जो सिर्फ ‘ढहाते’ हैं या जो सिर्फ बनाए चले जाने का भ्रम पाले बैठे हैं, उनका तो कहना ही क्या। रघुवीर सहाय हमारे युग के उन थोड़े-से लेखको में से थे, जिन्होंने सत्ता के आगे ‘हें-हें’ करने वाले लेखकों से अलग लेखक की इमेज बनाने की चिंता में जीवन भर संघर्ष किया। सत्ताप्रिय ‘गद्गदायमान’ लेखकों की भीड़ में वह ‘एक भयानक बात कहकर बैठ जाने वाले’ लेखक थे। शायद इसीलिए उन्होंने प्यार नहीं, नफरत को भी एक रचनात्मक अर्थ दिया...!”</div><div>इसी तरह विष्णु खरे को याद करते हुए प्रकाश मनु उन्हें ‘एक दुर्निवार बेचैनी के कवि’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे मानो अभिभूत होकर कहते हैं—</div><div>“यों विष्णु खरे हिंदी के दुर्जेय कवि हैं। अद्वितीय, और एक दुर्निवार बेचैनी के कवि, जिनके साथ यात्रा खासी असुविधाजनक हो सकती है। इसलिए भी कि विष्णु खरे सिर्फ कविता लिखते ही नहीं हैं, वे कविता के साथ-साथ बहुत कुछ तोड़ते और रचते हैं। कभी अनायास तो कभी सायास भी। और उनकी कविता कभी कविता होने की कोशिश नहीं करती। बल्कि जैसी वह है, कुछ खुरदरी, सख्त और दूर तक फैली-फैली सी—अपनी असाधारण रुक्षता के बावजूद वह कविता है—वही कविता है, इस धमक के साथ सामने आती है और देखते ही देखते एक पूरी आदमकद शख्सियत हमारे सामने आ खड़ी होती है।”</div><div>हिंदी में अकविता और अकवियों की बहुत बात की जाती है। पर प्रकाश मनु का कहना है कि सही मायने में तो विष्णु खरे की कविताओं को ही एंटी-पोएट्री कहा जा सकता है—</div><div>“....वह कविता का सरलीकरण था। एक राजकमल चौधरी को छोड़ दें तो अकविता में सचमुच खतरे उठाने वाले कितने कवि थे, जबकि विष्णु खरे इस मानी में मुझे एंटी-पोएट या अकवि लगते हैं कि वे बड़ी से बड़ी सत्ता या राजनीतिक, सांप्रदायिक, फासिस्ट ताकतों के खिलाफ खतरनाक ढंग से कविताएँ लिखने वाले खतरनाक कवि हैं।” </div><div>यही नहीं, प्रकाश मनु के अनुसार, “विष्णु खरे शायद हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं, जिनकी कविताओं में काफी ज्यादा आत्मकथा है। हो सकता है, कविता में इतनी आत्मकथा लिख पाने वाला कोई दूसरा कवि हमारे यहाँ हो ही नहीं...!”</div><div>इस पुस्तक में शामिल संस्मरण-माला की अगली कड़ी हैं डॉ. माहेश्वर, जिनके साथ बिताए गए पलों के साथ ही, उन्हें बिल्कुल अलग ढंग से जानने-समझने का प्रयास प्रकाश मनु ने किया है। हालाँकि प्रकाश मनु स्वीकार करते हैं कि उन्होंने डॉ. माहेश्वर पर बहुत कम लिखा है और यह बात उन्हें अपराध की तरह लगती है। फिर भी वे पूरे अधिकार के साथ कहते हैं— </div><div>“एक वाक्य में कहूँ तो डॉ. माहेश्वर का होना प्रगतिशील विचारों और प्रगतिशील साहित्य की दुनिया में उस ठोस इनसानी तत्व का होना था, जो उसे विश्वसनीयता और प्रामाणिकता देता है और एक उदार मानवीय चेहरा भी। वे ऐसे लेखकों में थे, जिन पर हमें भरोसा होता था, और फिर वही भरोसा खुद अपने आप पर भी होता। वह हमें हिम्मत और आत्मविश्वास देता था। इसीलिए डॉ. माहेश्वर को पढ़ना और सुनना हमेशा ही अच्छा लगता था। उनकी बातें दिल के करीब लगती थीं और सीधे दिल में उतरती थीं। इस मानी में वे एक सच्चे मनुष्य और सच्चे लेखक थे।”</div><div>*</div><div><br /></div><div>लेखकीय स्मृतियों से महकती इस पुस्तक के अंत में प्रकाश मनु ने अपने गहरे मित्र साहित्यकार और चित्रकार हरिपाल त्यागी को याद किया है। त्यागी जी ने वैसे तो बहुत अच्छी कविता और कहानियाँ भी लिखीं, परंतु वे मूल रूप से तो एक चित्रकार ही थे। अनेक उत्कृष्ट कलाकृतियों की सृष्टि के साथ ही उनके रेखाचित्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। उनकी अनेक चित्र-प्रदर्शनियाँ भी लग चुकी थीं। उनके चित्रों के बारे में प्रकाश मनु ने लिखा है—</div><div>“....त्यागी जी द्वारा बनाई गई चित्र-शृंखला ‘सादतपुर की स्त्रियाँ’, जिसमें सादतपुर के हाट-बाजार और गलियों में बड़े घरेलू लहजे में बतियाती स्त्रियों के चित्र हैं। मैंने बड़े से बड़े चित्रकारों द्वारा निर्मित वीनस....और न जाने कौन-कौन सी जमाने भर की सुंदरियों के बनाए एक से एक कलात्मक चित्र देखे हैं। वसनाएँ भी, निर्वसनाएँ भी।...पर आपसे सच्ची कहता हूँ, जो सुंदरता मुझे त्यागी जी की सादतपुर सीरीज की स्त्रियों में नजर आई, वह कहीं नहीं थी।” </div><div>प्रकाश मनु ने त्यागी जी से पुरानी मित्रता और उनके साथ बड़े ही घरेलू संबंधों की बात तो बताई ही है, पर उन्होंने त्यागी जी को कैंसर हो जाने और फिर शनैः-शनैः उनकी मृत्यु होने का जिक्र बहुत ही मार्मिक ढंग से किया है। जब निगम बोध घाट पर त्यागी जी का अंतिम संस्कार किया जा रहा था, तब प्रकाश मनु के मन में उनके साथ बिताई गई घड़ियाँ उमड़-घुमड़ रही थीं—</div><div>“हरिपाल त्यागी, लाल सलाम....! लाल सलाम!! की आवाजें हवा में गूँज रही थीं, और हमारा वह कड़ियल दोस्त, प्यारा साथी—सबसे बाँहें खोल, धधाकर मिलने वाला जन कलाकार अपनी अंतिम विदाई लेकर, प्रयाण कर रहा था।”</div><div>पुस्तक में बड़े साहित्यकारों की बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी स्मृतियों को प्रकाश मनु ने बड़े सुंदर ढंग से सजा दिया है। जब भी हम पुस्तक में उपस्थित किसी बड़े साहित्यकार के बारे में पढ़ते हैं तो कई ऐसी बातें भी हमारे सामने आती हैं, जिनसे पहल हम परिचित न थे। या शायद हम उसकी कल्पना ही न कर सकते थे। पर साक्षात्कार लेने में माहिर प्रकाश मनु बड़े आत्मीय लहजे में ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछते हैं कि बड़ा साहित्यकार भी अपने जीवन के गूढ़ रहस्य खोलने को बाध्य हो जाता है। </div><div>कुछ मिलाकर प्रकाश मनु के संस्मरणों की पुस्तक ‘बड़े साहित्यकारों के साथ’ हमें कई बड़े साहित्यकारों से मिलवाने के साथ-साथ उनके बारे में छोटी-बड़ी बहुतेरी बातों को भी जानने का अवसर प्रदान करती है। यही कारण है कि इन संस्मरणों को पढ़ते हुए, हिंदी के बड़े और दिग्गज साहित्यकारों की जीवनगाथा के साथ-साथ उनका सृजनकर्म और समूचा व्यक्तित्व एकाएक हमारी आँखों के आगे कौंध जाता है।</div><div>***</div><div><br /></div><div>281, सेक्टर 19, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121002, </div><div>चलभाष: 0987146957<hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-91696417205870987072024-02-29T22:14:00.008-05:002024-03-07T22:24:37.423-05:00Boudhayan Mukherjee<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZwEk49X6UzAemxs4y9kMs31u9aI5NSj0P1QyccNO3Vmsj_Z6r1889Qv7FaalCUI6agF2WY5OTEzFQ7BiWtomYNHbG5o7WqmB5P__Sbnn2kLZ8td4I8hhvYN0yu0unttu5WW302ShYLEkcIQNFBDObhFqaGx16D2Ku8HvtLM9ZXQe-1rXYKhMm-HMj/s308/Boudhayan-Mukherjee.jpg" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="308" data-original-width="276" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZwEk49X6UzAemxs4y9kMs31u9aI5NSj0P1QyccNO3Vmsj_Z6r1889Qv7FaalCUI6agF2WY5OTEzFQ7BiWtomYNHbG5o7WqmB5P__Sbnn2kLZ8td4I8hhvYN0yu0unttu5WW302ShYLEkcIQNFBDObhFqaGx16D2Ku8HvtLM9ZXQe-1rXYKhMm-HMj/w179-h200/Boudhayan-Mukherjee.jpg" width="179" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Boudhayan Mukherjee</td></tr></tbody></table>
Boudhayan Mukherjee, a bilingual poet, author and translator started as student editor
and literary secretary of Tagore's Visva Bharati University. He has been published
extensively in journals and newspapers since the mid seventies. First book of verse
'Black Milk' followed by five poetry anthologies, a collection of short-stories and books
of translations. Has represented Sahitya Akademi , the prime literary institution of India,
at various poetry readings and taught 'Creative Writing in English' at Indira Gandhi National
Open University. He is a founder member and poetry co-coordinator of Srijan, one of the
most renowned literary platforms of Kolkata. Editor of several literary magazines. He has
been awarded the Swaymagata Literary Prize
in 2021.
<hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2016/06/authors-poet.html#B">Authors A-Z</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-2154650484298520412024-02-29T21:43:00.139-05:002024-03-12T22:48:05.755-04:00अनुक्रमणिका, फ़रवरी 2024<div style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; background: url("https://1.bp.blogspot.com/-DEOrVV6PDJw/V1yrKqQ3iuI/AAAAAAAAEo0/9A3EN0YnSN0b2uxeQEALasDTRRPJiiEvwCLcB/s1600/Setu-Hindi-Light.jpg"); padding: 10px;"><h2 style="text-align: left;"><span face=""verdana" , sans-serif" style="color: #073763; font-size: small;">सेतु <i>वर्ष 8, अंक 9, फ़रवरी 2024</i></span></h2>
<div>
<hr />
<b><a href="http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A5%81_%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE">सेतु के पीडीएफ़ (PDF) डाउनलोड, कविता कोश पर</a></b><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/-Yyv9CgBJ3oA/V3hy-KLUIkI/AAAAAAAAE3E/eoNYIXRhyEEQgGrSYl7Lsk2S_VT89wS1QCKgB/s1600/Setu-Logo-Tr-E.gif" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="103" src="https://3.bp.blogspot.com/-XaOfPWVcNnc/V3hy-bvURiI/AAAAAAAAE28/ouXDQQjdMnEsIhRAwYtSXaZMw7QCLNevwCKgB/s200/Setu-Logo-Tr-H.png" width="200" /></a></div>
<h3>सम्पादकीय: अनुराग शर्मा</h3>
<ul style="text-align: left;">
<li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Anurag-Sharma-Hindi-Editorial.html">विनम्र श्रद्धाञ्जलि</a></li>
</ul>
<h3>कथा-कहानी</h3>
<ul><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Deepak-Sharma-Fiction-Kahan-Sunan.html">कहन-सुनन: दीपक शर्मा</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Deepak-Sharma-Fiction-Atut-Gheron-Mein.html">अटूट घेरों में: दीपक शर्मा</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Vijay-Sandesh-Fiction-Mukhautalal.html">मुखौटालाल के छह तुक्के: विजय संदेश</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Prakash-Manu-Fiction-Taxi-Driver.html">टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ: प्रकाश मनु</a></li></ul>
<h3>साक्षात्कार</h3><ul><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Interview-Dr-Dinash-Pathak-Shashi.html">दिनेश पाठक 'शशि' से प्रियंका खण्डेलवाल की वार्ता</a></li></ul><h3>दृश्य-श्रव्य</h3>
<ul><li><a href="https://www.youtube.com/watch?v=j0gTbJxrUI4" target="_blank">खोपड़ेचंद, रेडियो रूपक (क़िस्साठेल के सौजन्य से)</a></li></ul>
<h3>समीक्षा</h3><ul><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Toh-Anita-Saini-Deepti.html">टोह (अनीता सैनी 'दीप्ति'): विजय कुमार तिवारी</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Meri-Kahaniyan-Ramakant-Sharma.html">मेरी कहानियाँ (रमाकांत शर्मा): अवधकिशोर प्रसाद</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Bade-Sahityakaron-Ke-Sath-Prakash-Manu.html">बड़े साहित्यकारों के साथ (प्रकाश मनु): सुरेश्वर त्रिपाठी</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Pili-Mand-Udas-Sanjh.html">पीली मंद उदास साँझ (अरविंद कुमारसम्भव): अतुल्य खरे</a></li></ul>
<h3>आलेख, विमर्श, व शोध</h3><ul><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Indian-Jamaican-Lumsden-Family.html">चुनार की गुमनाम महिला: प्रवीण कुमार मिश्र</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Remembering-Devendra-Satyarthi.html">ओ हिंदुस्तान, हल हैं तेरे लहूलुहान: प्रकाश मनु</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Jayasi-Prabhat-Upadhyay.html">सूफ़ीवाद की चौहद्दी और जायसी: प्रभात उपाध्याय</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Freedom-Fighter-C-Subramania-Bharati.html">बहुआयामी रचनाकार, सुब्रमण्यम भारती: मंगला रामचंद्रन</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Rakesh-Khandelwal-Gulshan-Rai-Madhur.html">गीतों के राजकुमार एवं आवाज़ के जादूगर कविद्वय को विनम्र श्रद्धांजलि: शशि पाधा</a></li></ul>
<h3>दृश्य-श्रव्य</h3><ul><li><a href="https://youtu.be/SMSqwu4Zasc" target="_blank">काव्य पाठ (शशि पाधा)</a></li></ul><h3>अनुवाद</h3><ul>
<li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Devi-Nangrani-Tr-Fiction.html">क्या यही ज़िंदगी है (नइमत गुलची) - देवी नागरानी</a></li></ul><h3>स्तम्भ</h3><ul><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Ahinsa-Kanhaiya-Tripathi.html">अहिंसा (कन्हैया त्रिपाठी)</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Bindaas-Dharm-Jain.html">बिंदास (धर्मपाल महेंद्र जैन)</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/VigyanKu-SC-Lakhera.html">विज्ञानकु (सुभाष चंद्र लखेड़ा)</a></li></ul><h3>साहित्यिक समाचार</h3><h3><ul style="font-size: medium; font-weight: 400;"><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/World-Book-Fair-2024.html">विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पण एवं परिचर्चा: शाहीन</a></li></ul>काव्य-गीत-पद्य</h3><ul><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Shashi-Padha-Poetry.html">शशि पाधा</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Lily-Mitra-Poem.html">लिली मित्रा</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Prakash-Manu-Poetry.html">प्रकाश मनु</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/sudhir-kewaliya-poem.html">सुधीर केवलिया</a></li><li><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Arun-Kumar-Prasad-Poetry.html">अरुण कुमार प्रसाद</a></li></ul>
<hr />
<div style="text-align: center;"><span face=""helvetica neue" , "arial" , "helvetica" , sans-serif" style="color: #0c343d; font-size: large;"><b><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Lit-Art-Culture-Journal.html" target="Setu-English-Current">Setu, English, February 2024</a></b></span><br />
<span face=""helvetica neue" , "arial" , "helvetica" , sans-serif" style="color: #0c343d; font-size: large;"><b><a href="http://www.setumag.com/">Setu Home</a> - <a href="http://www.setumag.com/p/hindi-home.html" target="Setu-Hindi-Archive">हिंदी मुखपृष्ठ</a></b></span></div>
</div>
</div>
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<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;">
<tbody>
<tr><td><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B08X3RLZS2" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" target="Ps-Fs-Fiction-Sunil-Sharma"><span style="font-size: x-small;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgVXTOlKrocRdB4FMYXLmeyIavGeaJcx-xu1ZJLW7q5GvVxq_teBp8y4Wt5v-8wW3Vi2s7yptiewdhfwCIOxai8ZkKBIMpgChpn8FAn92jHOkLPpLIR_Yza0tQ3IUnfE86KrXMwQRKqIIDVimalMUsqA5MJF-aCymRnpUV0dFNzm544Mpf6PiZfCR2t=w126-h200" width="126" /></span></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B08X3RLZS2" target="Setu_Publication"><span style="font-size: x-small;">अम्मा बोली (राजेंद्र कृष्ण)<br />(हिंदी: गीति त्यागी)</span></a></td></tr>
</tbody></table><br />
</td><td>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B0BHSGWG3L" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;" target="Minotaur"><img alt="Voices Within" border="0" data-original-height="263" data-original-width="166" height="190" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCVMDN3BdFhskYOmemVIcQkcZpqR52sZxxgpA5uZNVqCMlGnb_OP6xLTQmuxmsv047bgRqKBpNw3PxymBJ69VlVafnDuvXOtzKK8vUt0nnDq3ilkYrxCTMBJluDnokpndI-lo16kMgCJPeSzLxXDU9w-qH11snwIZIgiLoEzuAP2IjHf1cNwmkJbtE/s399/Adhi-Sadi-Ka-Qissa-Th.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B0BHSGWG3L" target="Adhi-Sadi-Ka-Qissa-Anurag-Sharma"><span style="font-size: x-small;">आधी सदी का किस्सा<br />अनुराग शर्मा</span></a></td></tr>
</tbody></table>
</td></tr>
<tr><td><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B0BMTNKRYQ" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" target="Ps-Fs-Fiction-Sunil-Sharma"><span style="font-size: x-small;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg069TRNJzEeu42chyEtJIOk80Ss2Vrf43JXSMFVigYDjgq0moJAXHebjObzm7KQcIWVMueXVjxBd9e4ReedoXOC7bJgZSdMDXgAh-iadiOIiOiblJilaR3n5OQusMtDFU1xCaDGe-KKPuq0_ZlMoKZdAtkiNDA-InuAnI9346HQGIkDaeTYvi67bOQ/s200/Aajichi-Vachne-Marathi-th.jpg" width="126" /></span></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B08X3RLZS2" target="_blank"><span style="font-size: x-small;">आजीची वचने (राजेंद्र कृष्ण)<br />(मराठी: सतीश बेंडीगिरी)</span></a></td></tr>
</tbody></table><br />
</td><td><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B082NKGZN1/" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" target="Chhotee-See-Baat-"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjbg6vnibZQXbM64k_1uNkMwL6tgxKXNQ2du_R9a5X9TBF_gYs2dCASiFC-OkjnZzasm6UI_tZ9LqLqKfuuFT8XuRq7FimFMUYnzzCOqUFNEWvIkLsjhr2wNBFhJIaYNMFVr10u2DJ_EeIF-QdIXgvsxgKYPdKE83YCJN62kinf6xxRK868zCKK8nP8=w126-h200" width="126" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/Chhotee-See-Baat-%E0%A4%9B%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A5%80-Hindi-ebook/dp/B082NKGZN1/" target="_blank"><span style="font-size: x-small;">छोटी सी बात (लघुकथा संग्रह)<br />(लेखक: अनुराग शर्मा)</span></a><br /><br /></td></tr>
</tbody></table>
</td></tr>
<tr><td><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B09SFJ64TF" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" target="India-As-An-IT-Superpower"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjycYqV5-2et9HVQpscr8DsAAl4JoUrL7st7rDDMhs487lF9PZZygWTmvvK-s8REtZWq1m3JGdpQl1GQOkvQimb6J_t2f4AIyPXW2Ae51f7nfiKT5K5VEuvAnJqbbrFIc7scDi2ZXQ0Bs8wV2UjWJ779EVKgPOzIhokwuy3tshD-KzWQr5sYGXsVEaB=w126-h200" width="126" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B09SFJ64TF" target="_blank"><span style="font-size: x-small;">मानवीय अभिप्रायों की डगर<br />(लेखक: चंद्रमोहन भण्डारी)</span></a><br /><br /></td></tr>
</tbody></table>
</td><td><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B07W95K829/" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" target="ANURAGI-MAN-PRE-ORDER"><img border="0" src="https://1.bp.blogspot.com/-fmbxK6ffBas/XdrAEVc2wZI/AAAAAAAANXg/9kBuHS33YKotzFe_fiQenpwAuDsjG4cQQCLcBGAsYHQ/s320/Anuragi-Man-by-Anurag-Sharma-Cover.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/Anuragi-Man-Hindi-Short-Fiction-ebook/dp/B07W95K829" target="_blank"><span style="font-size: x-small;">अनुरागी मन (कथा संग्रह)<br />(लेखक: अनुराग शर्मा)</span></a></td></tr>
</tbody></table>
</td></tr>
<tr><td><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.in/dp/B07XBVQNBW/" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" target="AESTHETIC-NEGOTIATIONS"><img border="0" src="https://1.bp.blogspot.com/-8yjKk5LwqfQ/XWpvtI_sX0I/AAAAAAAAM30/wRb8ssBFVIIst7ULebq0dvRwnIGy3UzuQCLcBGAs/s200/Aag-Se-Antariksh-Tak-Aziz-Rai.jpg" width="125" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/Aag-Antariksh-Tak-Hindi-Vaigyanik-ebook/dp/B07XBVQNBW/" target="_blank"><span style="font-size: x-small;">आग से अंतरिक्ष तक<br />(लेखक: अज़ीज़ राय)</span></a></td></tr>
</tbody></table>
</td><td><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/194740301X" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" target="BASIC-HINDI-WORKBOOK"><img border="0" src="https://1.bp.blogspot.com/-RaRWc-L81UA/XUOxnNJF2II/AAAAAAAAMuU/kPWmXcngotkO28iJWgmHIMy4MMNlkSIRwCLcBGAs/s200/Lotus-Front.jpg" width="125" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.amazon.com/dp/B07VX7T2ZT" target="_blank">Basic Hindi 2 Workbook<br />(Sonia Taneja)</a></td></tr>
</tbody></table>
</td></tr>
</tbody></table>
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<blockquote>
<div style="text-align: center;">
कुछ और सुंदर, रोचक, उपयोगी, त्रुटिहीन पुस्तकें शीघ्र आ रही हैं<br />
More books coming soon</div></blockquote>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-21712399414907425532024-02-29T21:41:00.001-05:002024-02-29T23:22:31.306-05:00विज्ञानकु: फ्रीमैन डायसन (भौतिकविद, 1923-2020)<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2022/04/Author-Subhash-Chandra-Lakheda.html"><img border="0" data-original-height="283" data-original-width="188" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_QrSp3uJ200VzQ-TmYEvooFoBpfxb-1XUpJHjpgwuqgJrnpuw7VCphPSUqZUdBC9o-qlbzQELvXcBZ9uKA6WotCO-Lev1MknhXm_74jy54n9sNn1aHzdZajTVvdODDm3g2OgIJeqHC9Ag0600bOZw63CTOqRdtt9Eww1VonTrdW-Y2Loy1kOIE2Ra/w133-h200/Subhash-Chandra.jpg" width="133" /></a></span></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.setumag.com/2022/04/Author-Subhash-Chandra-Lakheda.html">सुभाष चंद्र लखेड़ा</a></td></tr></tbody></table><h3 style="text-align: left;">सुभाष चंद्र लखेड़ा</h3>
<div>डर से हम</div><div>लुट भले ही जाएँ</div><div>निजात पाएँ।</div><div><br /></div><div>प्रौद्योगिकी है</div><div>ईश का उपहार</div><div>मेरा विचार।</div><div><br /></div><div>कला विज्ञान</div><div>सभी की अम्मीजान</div><div>ये प्रौद्योगिकी।</div><div><br /></div><div>विमानन में</div><div>क्षम्य न गलतियाँ</div><div>सुन लो मियाँ।</div><div><br /></div><div>हम बनाएँ</div><div>उपयोगी औज़ार</div><div>संतुष्टि पाएँ।</div><div><br /></div><div>लें हम मान</div><div>ईश्वर को पढ़ना</div><div>नहीं आसान।</div><div><br /></div><div>करें मनन</div><div>फ्रीमैन डायसन</div>के ये कथन।<hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-32661319402999077402024-02-29T21:40:00.003-05:002024-02-29T23:29:02.045-05:00समीक्षा: पीली मंद उदास साँझ<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK8gWaDWZExub7T0SzGmw6ujCHCoENNTC8KiPHeX0Sgj0nZw1zhFNiqZTURJGR2yzkz6VkoYBeCaIYu8frsmGptprG60xM0KAzGS9HS4oqyBk3zhrU1l5dRPOGSfOkkvmOClc9I-nauNoS3e8xoPv6LeNop3TQdQywN2IJiiF4LrKH6mwMbtTQoZZpTWA/s310/Pili-Mand-Udas-Sanjh.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="310" data-original-width="215" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK8gWaDWZExub7T0SzGmw6ujCHCoENNTC8KiPHeX0Sgj0nZw1zhFNiqZTURJGR2yzkz6VkoYBeCaIYu8frsmGptprG60xM0KAzGS9HS4oqyBk3zhrU1l5dRPOGSfOkkvmOClc9I-nauNoS3e8xoPv6LeNop3TQdQywN2IJiiF4LrKH6mwMbtTQoZZpTWA/w139-h200/Pili-Mand-Udas-Sanjh.jpg" width="139" /></a></div><h3 style="text-align: left;">समीक्षक: अतुल्य खरे</h3></div><div><br /></div><div>पीली मंद उदास साँझ (लघुकथा संग्रह)</div><div>लेखक: अरविन्द कुमारसंभव </div><div>प्रकाशक: सबलपुर प्रकाशन जयपुर </div><div>मूल्य: ₹ 150.00 </div><div>प्रथम संस्करण: 2023 </div><div><br /></div><div> ख्यातिलब्ध साहित्यकार अरविन्द कुमारसंभव जी हिन्दी साहित्य जगत में, सुपरिचित नाम है, साहित्य जगत का, अथवा साहित्य से किसी भी प्रकार से सरोकार रखने वाला कोई विरला ही होगा जो उनके नाम से परिचित न हो। साहित्य जगत में उनके उल्लेखनीय योगदान हेतु साहित्य जगत के पुरोधाओं के बीच एवं साहित्य से सम्बद्ध नामचीन मंचों द्वारा भी उनका नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है, एवं वे स्वयम ही विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े हुए रहकर निरंतर साहित्य जगत को अपना अमूल्य योगदान प्रदान कर रहे हैं।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhfoTovvAHgJcIml7ZWKPafqf7MnUx6Nq1qvt8xEtoeXyM45UUSN2u_SPiXhSXWA30Hk3_-U6OzzauBGPDd2OtbSAnL1q27tOInpsqb2h3aUv4FlWRBZWQqFdzBy51tCiCEqf0A9bdZ-N66KLAZAAikwXORe4SvmsdqHCn9n9vmZVmZAuKM4mVkku2Hdac/s514/Arvind-Kumarsambhav.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="514" data-original-width="360" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhfoTovvAHgJcIml7ZWKPafqf7MnUx6Nq1qvt8xEtoeXyM45UUSN2u_SPiXhSXWA30Hk3_-U6OzzauBGPDd2OtbSAnL1q27tOInpsqb2h3aUv4FlWRBZWQqFdzBy51tCiCEqf0A9bdZ-N66KLAZAAikwXORe4SvmsdqHCn9n9vmZVmZAuKM4mVkku2Hdac/w140-h200/Arvind-Kumarsambhav.jpg" width="140" /></a></div> वे किसी भी परिचय के मोहताज नहीं हैं, कह सकते हैं कि उनका काम ही उनकी पहचान हो गया है। वे “शब्द घोष” (त्रैमासिक पत्रिका ) के मुख्य संपादक हैं, वहीं विभिन्न साहित्यिक संस्थाएँ यथा जयपुर साहित्य संगीति भी उनके नेतृत्व में उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं। वे हर संभव तरीके द्वारा साहित्य से जुड़े रहकर निरंतर अपना बहुमूल्य योगदान साहित्य जगत को प्रदान कर रहे हैं।</div><div> हाल ही में उनके द्वारा रचित पुस्तक “पीली मंद उदास साँझ ” पढ़ने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ, यह पुस्तिका 21 लघुकथाओं का संग्रह है एवं अरविन्द जी के ही शब्दों में बहुरंगी तृष्णा, वितृष्णा आभास,तपन,तड़प, स्वप्न, विषाद, खुशी को समेटती सहेजती कथाओं का छोटा सा संग्रह है । कह सकते हैं कि जीवन के अमूमन सभी रंगों को उन्होंने अपनी इन लघुकथाओं में समाविष्ट कर लिया है।</div><div> इस संग्रह में अरविन्द जी का एहसासों को शब्द रूप में ढाल देने का हुनर, बड़ी से बड़ी बात को लघुकथा में कह जाने की कला, कथा की विषयवस्तु के प्रति गंभीर एवं गहन सोच, विषय का गंभीर विचारण, एवं सामाजिक विषमताओं पर तीखे प्रहार स्पष्ट दृष्टिगोचर हुये है।</div><div> वाक्य विन्यास आसान व सुगम है वहीं शब्द संयोजन अत्यंत सरल है तथा कथानक को किसी विशिष्ट रूप में ढालने हेतु किसी भी तरह का अतिरिक्त प्रयास लक्षित नहीं है।</div><div>आज पद्य रूप में लिखी जा रही कविता ने लघु कथा को एक वृहद स्तर तक सीमित कर दिया है, संभवतः यही कारण भी है कि लघुकथा वर्तमान में प्रचलन में कुछ कम ही देखने में आती है किन्तु आज भी कई श्रेष्ठ साहित्यकारों द्वारा अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति हेतु इस विधा को माध्यम बनाया जाता है।</div><div> स्वयम में ही एक अनूठी विधा है लघुकथा, एवं जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, एक ऐसी कथा जो संक्षिप्त हो, बिना किसी भूमिका के प्रारंभ हो व जिसमें कम से कम शब्दों में भाव एवं विचार स्पष्ट कर दिए गए हों एवं जिसमें पात्रों की संख्या भी सीमित हो तो उसे लघुकथा की श्रेणी में रखा जा सकता है।</div><div> चूंकि लघुकथा को बहुत अधिक विस्तारित नहीं किया जाता अतः उसकी प्रस्तुति कुछ इस तरह से दी जाती है कि वह प्रारंभ में ही पाठक को बांधने में सक्षम हो तथा अंत भी ऐसा जो पाठक को कुछ विचारण के संग छोड़ दे अथवा विचारण हेतु विवश कर दे, हालांकि इस हेतु कोई विशेष शैली तो निर्धारित नहीं है किन्तु फिर भी देखा जाता है कि लघुकथा का अंत अमूमन हतप्रभ करने वाला चकित कर देने वाला, चौंकाने वाला होता है फिर वह सुखांत हो अथवा दुखांत एवं कथा में उल्लिखित किसी कारण विशेष का निष्कर्ष युक्त होना अथवा न होना भी अनिवार्य नहीं है।</div><div> उपरोक्त समस्त कसौटियों पर अरविन्द जी की लघुकथाएँ खरी उतरती हैं। उनकी अमूमन हर कथा मानवीय मूल्यों व इंसानियत के ज़ज़्बे को दर्शाती है। अरविन्द जी की कहानियाँ पारिवारिक संबंधों के बीच पसरते हुए तनाव, मानवीय संवेदनाओं की उपेक्षा एवं हृदय की कोमल भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति है।</div><div> लगभग एक ही प्रकार की गूढ़ भावना में अंतर्निहित कहानी है “साझी साँझ” एवं “बेटा बहू”,जहाँ बुजुर्ग अवस्था के मातापिता के एकाकीपन एवं भावनात्मक टूटन को दर्शाया गया है तथा अत्यंत अल्प शब्दों में बहुत गंभीर संदेश देने में सफल हुए हैं।</div><div> “नीम का पेड़” भी मन के खालीपन को दर्शाती है जो कि बड़े शहरों की आपाधापी से परिपूर्ण ज़िंदगी व व्यस्तता के बावजूद भीतर कहीं अकेला ही है और बुजुर्ग अवस्था की मुश्किलात कैसे विकराल हो जाती हैं जब बेटा जिसके लिए माँ बाप ने अपना सर्वस्व होम किया वही उनको दो पल का समय न दे, उनका यही दर्द दर्शाती है “कैसी विवशता”।</div><div> विधा के अंतर्गत बेशक उनकी रचनाओं को लघुकथा कह दिया जाए लेकिन वास्तविकता तो यही है कि ये सभी कथाएँ उनके तजुर्बे एवं सूक्ष्म अवलोकन से उपजे कुछ ऐसे पल होते है जिन्हें वे शब्दों में पिरो कर प्रस्तुत कर देते है। बेहद मामूली सी बातों पर भी अरविन्द जी की पैनी दृष्टि एवं लेखकीय सोच पहुँच जाती है। उनकी प्रस्तुति कहीं भी चौंकाती नहीं है अपितु सहज ही कथानक में पाठक को समाविष्ट कर लेती है।</div><div> लघु कथाओं को पढ़ कर प्रतीत होता है कि वे कहानी के लिए किसी विषय विशेष का इंतज़ार नहीं करते, वे किसी भी अनुभव को या छोटी सी बात को भी कहानी में बदलने का हुनर रखते हैं एवं पात्र तथा स्थान के लिए उपयुक्त भाव एवं भाषा का प्रयोग सहजता एवं खूबसूरती से करते हैं जैसा कि उन्होंने कहानी “क्यों नहीं आया आज” में किया है। तो आगंतुक कैसे खुशियों की सौगात दे जाते हैं जब दिल से दिल जुड़े हुए हो साथ ही रिश्तों की सुंदरता एवं जटिलता को सहज ही बयान करती है “भाई दूज”।</div><div> उनके कथानक लघुकथाओं हेतु पूर्णतः उपयुक्त हैं। ये लघुकथाएँ बेहद सीमित शब्द सीमा लिए हुए हैं, व कथानक विषय पर सटीक वार करता है एवं सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं के ताने-बाने में बुनी गई है, मर्मस्पर्शी कहानियाँ है।</div><div> बहुत ही सरल व काम शब्दों में पहाड़ों के वाशिंदों के जीवन की कठिनाइयाँ और बेरोजगारी व गरीबी जैसे मुद्दे दर्शाती है कहानी “पहाड़”। कहानी “कटी पतंग” इस कथा संग्रह की श्रेष्ट रचनाओं के बीच सर्वश्रेष्ट का दर्ज़ा पाती है। एक महिला की कटी हुई पतंग से इतने काम शब्दों में इतनी सुंदर तुलना, निश्चय ही अरविन्द जी की कलम का कमाल ही है। कितने भाव समेटे हुए हैं ये चार शब्द कि “लड़की तू ज्यादा हवा में मत उड़।” कुछ ऐसे ही भाव दर्शाती व जीवन का सूनापन एवं घर और मकान का अंतर बतलाती है।</div><div> “खाली हाथ”, जिसमें दाम्पत्य जीवन में पैर पसारती कड़वाहटों व बढ़ती दूरियों को भी प्रमुखता से स्थान दिया गया है। पुस्तक की अन्य सुंदर रचनाएँ जो कहीं भीतर तक सोचने पर मजबूर करती हुई विचारों के भंवर में छोड़ जाती है व पाठक कथानक को चलचित्र की अनुभूति कराती हैं “अगरबत्ती” एवं “सब्जी का ठेला” जहाँ भाव की समानता है किन्तु संदेश भिन्न एवं अत्यंत प्रभावी।</div><div> संग्रह की शीर्षक कहानी “पीली मंद उदास साँझ” मन के खालीपन को बहुत गंभीरता से अवलोकित करती एवं प्रकृति के रंगों के बीच खुद की तलाश करती हुई ज़िंदगी की कहानी है जो अक्सर एक आम इंसान अपने जीवन में किसी न किसी मोड़ पर अनुभव करता ही है।</div><div>“गागर में सागर”, मुहावरे को, मुहावरे से जुदा वास्तविक रूप में देखा इस लघुकथाओं के संग्रह में, एवं यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हर लघुकथा ने बगैर बहुत ज्यादा कुछ कहे अल्प शब्दों में ही गंभीर संदेश दिए एवं अमूमन प्रत्येक कथा कुछ सोचने को विवश करती हुई विचारों के अथाह झंझावात में ले जाती है।</div><div>***</div><div><br /></div><div>अतुल्य खरे</div><div>उज्जैन</div>
<hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024<br /></a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-61790433253131882612024-02-29T21:11:00.000-05:002024-02-29T23:22:31.670-05:00कहानी: कहन-सुनन<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2020/02/Author-Deepak-Sharma.html"><img border="0" data-original-height="290" data-original-width="290" height="200" src="https://1.bp.blogspot.com/-oU_eG449L9I/XqtJ8XbrIhI/AAAAAAAAOYc/orkcfU7ArVoGyUi6MJhoIdrIJH6BmqN-gCLcBGAsYHQ/s200/Deepak-Sharma_Setu.jpg" width="200" /></a></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: 12.8px;"><a href="https://www.setumag.com/2020/02/Author-Deepak-Sharma.html">दीपक शर्मा</a></span></td></tr>
</tbody></table>
<h3>
- <a href="https://www.setumag.com/2020/02/Author-Deepak-Sharma.html">दीपक शर्मा</a></h3><div>सितम्बर का दूसरा शनिवार है। माँ और बाबूजी के कमरे में बिस्तर के बगल में बैठी बहन माँ से कह रही है, “इस मालिश और व्यायाम से आप बहुत जल्दी फिर से पहले की तरह नहाने लगेंगी, खाना बनाने लगेंगी।”</div><div>इस वर्ष की जनवरी माँ को बिस्तर पकड़ा गई है, बाबूजी को नया जीवन-लक्ष्य तथा बहन को पुत्री-सुलभ अपने मातृ-प्रेम का प्रदर्शन करने का नया माध्यम।</div><div>अपने इस नए जीवन-लक्ष्य के अन्तर्गत बाबूजी रोज़ की तरह माँ के रोग-ग्रस्त बाएँ भाग में औषधीय उस तेल की मालिश कर रहे हैं जिसे माँ के फ़िज़ियोथैरपिस्ट ने कुछ विशिष्ट व्यायाम के साथ करने को प्रदिष्ट किया है। उच्च रक्तचाप के कारण निष्क्रिय हो चुके माँ के बाएँ भाग में फिर से उनकी पुरानी सक्रियता लौटाने की उतावली है उन्हें।</div><div>“सच?” मूर्खा माँ बहन की सान्त्वना गटगट गटक लेती हैं। जलबुझ बनीं अपनी असंमजस-भरी आँखों के साथ। पूछती नहीं, अनिर्धार्य को निर्धारित करने वाली बहन कौन है? क्या है?</div><div>“क्यों नहीं?” मन्त्रमुग्ध मुद्रा में बाबूजी कभी माँ की ओर देखकर मुस्कराते हैं तो कभी बहन की ओर। दो वर्ष पहले वे उसी डिग्री कॉलेज के अंग्रेजी विभाग से सेवा-निवृत्त हुए हैं जिसमें पिछले सात वर्षों से मैं दर्शन-शास्त्र पढ़ा रहा हूँ।</div><div>“सोमवार की अपनी टिकट तो आप साथ लाई होंगी?” अन्तरंग उस दृश्य को भंग करते हुए मैं बहन से पूछता हूँ।</div><div>माँ की ’शुभ-चिन्ता’ को सामने रखते हुए प्रत्येक माह के दूसरे शुक्रवार बहन मुम्बई से रेलगाड़ी पकड़ती है और शनिवार की दोपहर यहाँ, कस्बापुर, पहुँच लेती है। सोमवार की शाम फिर से उसमें सवार होने हेतु।</div><div>“हाँ। सोमवार की टिकट है।”</div><div>“सोचता हूँ, उस टिकट को आगे बढ़ा लाऊँ। बुध की ले आऊँ।”</div><div>“बुध को रंजन का जन्मदिन है और मैं वह दिन रेलगाड़ी में बिताना नहीं चाहती।”</div><div>रंजन मेरा तथाकथित ’बहनोई’ है। ’तथाकथित’ इसलिए क्योंकि बहन से उसकी विधिवत शादी होनी अभी बाक़ी है। किन्तु यह भेद हम चारों के अतिरिक्त कस्बापुर में कोई नहीं जानता। मेरी पाँच वर्ष पुरानी पत्नी, उर्वशी भी नहीं। दूसरे परिवारजन एवं मित्रों-परिचितों की भाँति वह भी यह मानती है बारह वर्ष पहले बहन ने मुम्बई पहुँचते ही हम तीनों की उपस्थिति में रंजन से शादी की थी।</div><div>“मगर उसका प्रोग्राम तुम बदलना क्यों चाहते हो?” बाबूजी हथियार-बन्द हो जाते हैं। बहन के पक्ष में। बहन के सामने वे मेरे संग एक खेल शुरू कर ही देते हैं। खेल उस मायने में जिसका उल्लेख रोलां बार्थ ने आन्द्रे यीद के सन्दर्भ में किया था। डन फॉर नथिंग (अकारण)।</div><div>“क्योंकि मैं उर्वशी को थोड़ा घुमा लाना चाहता हूँ। बेचारी जनवरी से इधर पिस रही है।”</div><div>“पिस रही है? या पीस रही है?” माँ बोल उठती हैं ।</div><div>“मृत्यु की धार से लौटकर भी कड़वा बोलेंगी? गलत बोलेंगी?” मैं चीख पड़ता हूँ।</div><div>“तुम्हें शर्म आनी चाहिए” बाबूजी चिनगते हैं, “बीमार को भी बोलने की छूट नहीं दे सकते।”</div><div>“कुछ नहीं जी,” माँ फिर बोल उठती हैं, “जो कुछ मैं पहले देखती-सुनती थी, वही अब भी देख-सुन रही हूँ। कोई लिहाज नहीं।”</div><div>“आप उर्वशी के साथ अन्याय कर रही हो, माँ।” बहन समझती है, वह सन्धिकर्त्री नहीं बनेगी तो यहाँ अग्निगोले दग जाएँगे।</div><div>“तो आप न्याय कर दो। अपनी मुम्बई की टिकट आगे की ले लो। यहाँ तीन दिन और रूक जाओ। आलोक और वृन्दा भी खुश हो जायँगे,” आलोक मेरा चार वर्षीय बेटा है और वृन्दा, एक वर्षीया बेटी।</div><div>“मुझे बहुत बुरा लग रहा है। अगर रंजन का जन्मदिन आड़े न आया होता तो मैं ज़रूर रूक जाती।”</div><div>“यह अगर-मगर क्या होता है?” मैं भड़क जाता हूँ, “सच तो यह है कि आप उसके बाट पर अपने को लगातार बनाए रखना चाहती हैं क्योंकि आप जानती हैं वह कभी भी आपको बारह बाट करके कोई नया रिश्ता गाँठ सकता है।”</div><div>“तुम बड़ी बहन से कैसे बोल रहे हो?” बाबूजी माँ की बाँह छोड़कर मेरी ओर मुड़ लेते हैं।</div><div>दुर्जेय भाव से।</div><div>“क्योंकि आप उससे सच नहीं बोल पाते।”</div><div>“तुम्हें सच सुनना ही है तो मुझसे सुनो। मुम्बई मैं अपनी कला के लिए गई थी और अब भी वहाँ अपनी कला ही के लिए रह रही हूँ। बुनियादी तौर पर मैं एक कलाकार हूँ और अपनी कला को बन्द नहीं रख सकती। उधर रहती हूँ तो यह पहचान भी पाती है और अभिव्यक्ति भी।” बहन का टीवी की दुनिया में ऊँचा नाम है। उसे इस दुनिया में रंजन ही लाया था। उस समय बहन लखनऊ में एम.ए. कर रही थी और वह बतौर निर्देशक अपना टीवी सीरियल बना रहा था। और फिर जैसे ही उसे मुम्बई में काम मिला था वह बहन को साथ ले गया था। इधर बहन तीन-तीन लोकप्रिय टीवी सीरियलों में ’माँ’ की भूमिका में दिखाई भी दे रही है।</div><div>“मतलब?” मैं ताव खाता हूँ, “हम लोग के लिए तुम्हारी कोई ज़िम्मदारी नहीं? जवाबदेही नहीं? तुम्हें अपनी अभिव्यक्ति चाहिए? पहचान चाहिए? स्वतन्त्रता चाहिए? और मुझे? दंडाज्ञा? माँ और बाबूजी के बने बाड़े में बने रहने की?”</div><div>“तुम्हें ऐसी कोई मजबूरी नहीं, “बाबूजी उठ खड़े होते हैं, “तुम चाहो तो आज अलग हो जाओ। अभी अलग हो जाओ...।”</div><div>“ऐसा न कहिए, बाबूजी।” बहन रोने लगती है, “आपको अलग तो मुझे करना चाहिए। अलग तो मुझे होना चाहिए।”</div><div>“जो बात आपको बारह साल पहले समझनी चाहिए थी वह आज समझीं आप?” मैं चिल्लाता हूँ।</div><div>“बस भी करो,” अपनी पूरी ताकत के साथ माँ अपना दायाँ हाथ अपने बिस्तर पर पटकती हैं, “बहुत हो गया।”</div><div>“बहुत तो हुआ ही है। कहर तो बरपा ही है। पूरे शहर में न हमारे बाबूजी जैसे पिता ढूंढ़े से मिलेंगे और न उनकी बेटी जैसी कोई बेटी। इधर बेटी बोली,मैं कलाकार हूँ, अभिनय करूँगी। उधर बाबूजी बोले,तुम सच में बहुत बड़ी कलाकार हो,उत्तम अभिनय कर सकती हो। इधर बेटी बोली,रंजन मेरा कद्रदान है। मैं उसके साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहूँगी। उधर बाबूजी बोले,हाँ वह तुम्हारी बहुत कद्र करता है। तुम उसके साथ जैसे भी चाहो रहने के लिए ’आज़ाद’ हो।”</div><div>“हम सभी आज़ाद नहीं हैं क्या?” बहन मेरे समीप आकर मेरी पीठ घेर लेती है, पुराने दिनों की तरह, ”तुम्हीं ने मुझे हेडेगर की बात बताई थी, अपने माँ-बाप चुनने की आज़ादी से वंचित इस सृष्टि में हम सभी ’फेंके’ जाते हैं, वी आर ’थ्रोन’ हियर और हमारे जीवन में बहुत कुछ ’गिवन’ होता है। मगर...”</div><div>“मतलब? रंजन तुम्हें ’गिवन’ था? या मुम्बई तुम्हारे पास चली आई थी? तुम्हारी ’गिवन’ मंज़िल? या फिर मैं ही तुम्हें वहाँ ’फेंकने गया’ था?” बहन की बाँह मैं अपनी पीठ से नीचे झटक देता हूँ । जानता हूँ ’मगर’ के बाद वह हेडेगर की अगली बात किकियाने वाली है, हमारा भविष्य ज़रूर हमारे लिए अपने को नए सिरे से स्थापित करने की सम्भावना रखता है लेकिन इस समय मैं कुछ नहीं उससे सुनना चाहता। गोटी उसके हाथ में नहीं देना चाहता।</div><div>“अपनी बहन से तुम ऐसे नहीं बोल सकते,” बाबूजी अपने स्वर में रोदन ले आते हैं। उनकी चित्त प्रकृति तर्क स्वीकारती नहीं, अश्रुमुख से गला भर लेती है, “उसकी खुशी मेरे लिए बहुत महत्त्व रखती है।”</div><div>“और मेरी खुशी का कोई महत्त्व नहीं?”</div><div>“अगर तुम्हारी खुशी उसकी खुशी में हस्तक्षेप नहीं करती तो वह महत्त्व रखती है, वरना नहीं,” आत्यन्तिक वीरोचित अपने मंच की ओर बाबूजी तेजी से बढ़ रहे हैं।</div><div>“आप कभी तो मर्द बनकर बात कर लिया करें,” मैं चिल्ला उठता हूँ,”क्यों आप रंजन से छाती तानकर उसे शादी के लिए तैयार नहीं करा सकते?”</div><div>“उर्वशी को सुना रहे हो?” उर्वशी के साथ माँ बहुत भेदभाव रखती हैं।</div><div>“ठीक है, उसे ही जा सुनाता हूँ,” मैं दरवाजे की ओर कदम बढ़ाता हूँ।</div><div>“सुनो तो!” बहन पीछे से मुझे पुकारती है किन्तु मेरे गुस्से की हड़बड़ी मुझे कमरे से बाहर निकाल ले आती है।</div><div>“क्या सुनाना है मुझे?” उर्वशी मुझे दरवाजे के बाहर ही मिल जाती है।</div><div>“बुध को जीजाजी का जन्मदिन पड़ रहा है और जीजी का इस सोमवार ही को जाना जरूरी है।”</div><div>“बस, इतना ही सुनाना है या कुछ और भी?” उर्वशी अपनी गोटी बिठाना चाहती है।</div><div>“और क्या होगा?” मैं सतर्क हो लेता हूँ।</div><div>“अन्दर बातचीत तो आपकी देर तक चली है और खूब हो-हल्ले के बीच चली है,” उर्वशी अपना बाण फिर बाँधती है।</div><div>“जीजी अपने नए टीवी सीरियल की बात कर रही थीं,” मैं टाल जाता हूँ। उर्वशी के संग बहन को संवाद का विषय बनाने से मैं हमेशा बचता रहा हूँ।</div><div>“लेकिन कोई उनसे पूछे कि यहाँ वे किसी रिएलिटी शो में अपनी स्टार वैल्यू बाँटने आती हैं या फिर हमारे परिवार में अपनी साझेदारी मजबूत बनाने?”</div><div>“मतलब?” मैं थोड़ा चौंकता हूँ।</div><div>“मतलब यह कि वह यहाँ ऐसे आती हैं जैसे स्टार लोग किसी रिएलिटी शो में जाया करते हैं। ताली बजाकर वाहवाही लूटने और शाबाशी देकर जय-जयकार करवाने।”</div><div>टीवी देखने का उर्वशी को सनक की सीमा तक शौक है। हालाँकि माँ उसे शौक नहीं, उसकी युक्ति मानती हैं। टीवी की ओट में अपनी ज़िम्मेदारियों से बचने की युक्ति।</div><div>“छोड़ो...,” उर्वशी के इस वार का साथ मुझे नहीं देना है। बहन जो भी है,जैसी भी है,है तो बहन ही।</div><div><br /></div><div>बहन की आत्महत्या की सूचना मुझे अपने दफ्तर में मिलती है। उसी दिन देर, दोपहर। उर्वशी से,”फौरन घर पहुँचिए। जीजी छत से नीचे कूद गई हैं।”</div><div>घर पहुँचकर मालूम पड़ता है उर्वशी के कानों में मोबाइल पर बात कर रही बहन के जो वाक्य बार-बार आन टकराए थे उनमें एक शब्द बारम्बार दोहराया जाता रहा था: शादी।</div>बहन के मोबाइल की अन्तिम डायल्ड कॉल रंजन के नाम दर्ज थी।<hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-61056910868097102392024-02-29T21:08:00.009-05:002024-03-07T22:21:36.892-05:00Candice Louisa Daquin<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3lVMQHYIFmHXWmlsmyJvT6wVJ0tW54nJjFAizkIWRLOEJUt9T6s_3zOj_CkiMNgNXgoUBKRnGAOZhhyphenhyphenb_x8IA8jJixwoPQjt2ybGR1zrmGepeIaW1mJk72RPy-aWR1Gik8BHSjWEAOt2TiTcLfX3DXF9FFM9WUR4DUGexLNBbhDWqm_pM-tgKUDC1hj4/s191/Candice-Louisa-Daquin.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="191" data-original-width="151" height="191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3lVMQHYIFmHXWmlsmyJvT6wVJ0tW54nJjFAizkIWRLOEJUt9T6s_3zOj_CkiMNgNXgoUBKRnGAOZhhyphenhyphenb_x8IA8jJixwoPQjt2ybGR1zrmGepeIaW1mJk72RPy-aWR1Gik8BHSjWEAOt2TiTcLfX3DXF9FFM9WUR4DUGexLNBbhDWqm_pM-tgKUDC1hj4/s1600/Candice-Louisa-Daquin.jpg" width="151" /></a></div>Candice Louisa Daquin <span style="font-family: "Times New Roman",serif; font-size: 14pt; line-height: 107%;">is
a Mizrahi/Sephardi Psychotherapist, Writer and Editor. Born to French/Egyptian
parents, Daquin moved to America and splits her time between therapy and
editing. Daquin is Senior Editor with Indie Blu(e) Publishing and Consultant
Editor with Raw Earth Ink. She also edits for The Pine Cone Review, Parcham and
Tint Journal among others. Daquin’s last collection was <i>Tainted by the Same
Counterfeit</i> (Finishing Line Press). </span><div><span style="font-family: Times New Roman, serif;"><span style="font-size: 18.6667px;"><br /></span></span><span style="font-family: "Times New Roman",serif; font-size: 14pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span><p></p><hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2016/06/authors-poet.html#C">Authors, A-Z</a>
</div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-58382135604193721372024-02-29T21:06:00.003-05:002024-03-04T10:56:55.571-05:00कहानी: अटूट घेरों में <table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2020/02/Author-Deepak-Sharma.html"><img border="0" data-original-height="290" data-original-width="290" height="200" src="https://1.bp.blogspot.com/-oU_eG449L9I/XqtJ8XbrIhI/AAAAAAAAOYc/orkcfU7ArVoGyUi6MJhoIdrIJH6BmqN-gCLcBGAsYHQ/s200/Deepak-Sharma_Setu.jpg" width="200" /></a></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: 12.8px;"><a href="https://www.setumag.com/2020/02/Author-Deepak-Sharma.html">दीपक शर्मा</a></span></td></tr>
</tbody></table>
<h3>
- <a href="https://www.setumag.com/2020/02/Author-Deepak-Sharma.html">दीपक शर्मा</a></h3>
<div> </div><div> (1)</div><div><br /></div><div> बज रहे मोबाइल की स्क्रीन 'सिस्टर' दिखाती है।</div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>अंदर गर्भवती मेरी पत्नी अपनी डॉक्टर से अपना चेक-अप करवा रही है और मेरी माँ और बहन के फोन पर न केवल मेरी ही खबर लेती है बल्कि मेरे पिता को भी खबर कर दिया करती है। आखिर मेरी सौतेली माँ की सगी भतीजी जो ठहरी ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'हैलो', मैं अपना मोबाइल लेता हूँ। मैं जानता हूँ बहन का फोन माँ के बारे में होना है और माँ की मुझे चिंता है, बहुत चिंता। उन्हें एक्यूट ल्यूकीमिया है।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'डॉक्टर ने आज बताया, अम्मी अब किसी समय भी जा सकती हैं...'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>बहन की और मेरी माँ साँझी हैं, पिता नहीं। उसके पिता माँ की तरह मुसलमान हैं और मेरे पिता मेरी सौतेली माँ की तरह हिंदू। मेरे पिता और मेरी माँ दोनों ही ने, दो-दो ब्याह किए। एक पारंपरिक और दूसरा ऐच्छिक। अंतर रहा तो यह कि माँ का पहला ब्याह पारंपरिक था और मेरे पिता का दूसरा।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'माँ को फिर से मेरे पास लिवा लाइए,' माँ की बीमारी की खबर मिलते ही अभी पिछले ही महीने मैंने उन दोनों को पत्नी से चोरी अपने इस शहर में बुला लिया था। यहाँ के कैंसर इंस्टीट्यूट के स्पेशल वार्ड में माँ को भरती करवाकर उन्हें कीमोथैरेपी और रेडियोथैरेपी दिलाई थी और डिस्चार्ज करते समय डॉक्टर ने उनकी तकलीफ बढ़ने की स्थिति में उन्हें फौरन फिर से यहीं चले आने की सलाह दी थी। और दोनों अभी सात ही दिन पहले यहाँ से कस्बापुर लौटी थीं ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'तुम्हारा इधर आना मुश्किल है?' बहन ज़रूर अपने चेहरे पर टेढ़ी मुस्कान ले आई है। मुझ से अब वह पहले से दुगुनी नाराज़ रहने लगी है क्योंकि अपनी शादी में मैंने उन दोनों को बुलाया नहीं। शादी की सूचना तक भी शादी के बाद दी थी। अपने हनीमून के दौरान। पत्नी से चोरी। हालांकि उन्हें न बुलाने के पीछे मेरे पिता का आदेश रहा था । कड़ा आदेश ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'देखता हूँ,' मैं तुरंत फोन बंद कर देता हूँ। अंदर से दरवाज़े पर एक पदचाप मेरे निकट चली आई है।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'डॉक्टर ने क्या कहा?' मैं बाहर से आ रही पत्नी की दिशा में बढ़ लेता हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'दो बात कही हैं। एक यह कि मेरी लेबर कभी भी शुरू हो सकती है और दूसरी यह कि मुझे अपनी डिलिवरी के लिए ' बेबी-लैंड' अस्पताल में बुकिंग करानी होगी। इस डॉक्टर के नर्सिंग होम में मेरे ऑपरेशन के उचित साधन नहीं और वही अकेला ऐसा अस्पताल है जो बाहर के डॉक्टरों को अपना ऑपरेशन थिएटर अपने स्टाफ के साथ उपलब्ध कर दिया करता है...'</span></div><div> 'मैं देखता हूँ, आज ही देखता हूँ।' </div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'आज क्या, अभी जाकर बुक करा लो। याद रखो यह ब्रीच केस है,' पत्नी रुआँसी हो रही है,' इस बार कोई लापरवाही नहीं चलेगी...'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>पिछली बार उसके गर्भ के तीसरे माह हमारा शिशु चला गया था और इस बार इस नए गर्भ के इस नवें माह के इस तीसरे सप्ताह तक हम दोनों ने हर संभव सावधानी और सतर्कता बरती है। विशेषकर यह जानने के बाद कि पत्नी के गर्भाशय के पेलविक इनलेट, </span>श्रेणीय प्रवेशिका, में शिशु के सिर के स्थान पर उसके पैर आ बैठे हैं।</div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'क्या मैं याद नहीं रखता?' मैं पत्नी की कमर घेरकर उसे अपने आलिंगन में ले लेता हूँ, 'वह मेरा भी तो आह्लाद है...।'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>आने वाले बेटे का नाम हमने पहले ही से चुन रखा है, आह्लाद। </span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'यह याद रखते हो तो यह भी याद रखो,' पत्नी तत्काल मुझसे अलग छिटक लेती है, 'मैं तुम्हारे इस अल्ट्रा मॉडर्न शहर में नहीं, अपने हरदोई में पली-बढ़ी हूँ। एक संस्कारशील परिवार से आई हूँ। ऐसी निर्लज्जता मुझे पसंद नहीं।'</span></div><div><br /></div><div> पत्नी को घर छोड़कर जैसे ही मैं अपनी स्टीयरिंग पर लौटता हूँ, मैं माँ का नंबर अपने मोबाइल पर दबाता हूँ।</div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'तुम आ रहे हो?' उधर उसे बहन उठाती है, 'आज?'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'तुम लोग यहाँ आ जाओ न', मेरी आवाज में खीझ चली आई है – बहन को मैं नहीं बताना चाहता,इन दिनों मैं अपने आह्लाद के आगमन की प्रतीक्षा में हूँ - , ' इस सप्ताह मेरे दफ्तर में ओडिटिंग चल रही है। मेरा दफ्तर छोड़ना मुश्किल है...'</span></div><div> 'इधर मुश्किल ज्यादा बढ़ गई है। अम्मी कोमा में चली गई हैं और उनकी हालत नाज़ुक है...' बहन फ़ोन काट देती है । बहन का व्यवहार इधर वैमनस्य की परिधि छूने लगा है ।</div><div><br /></div><div> मेरी सैंट्रो नर्सिंग होम का रास्ता पकड़ लेती है।</div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>वहाँ जाकर मुझे मालूम होता है आगामी दो माह तक सभी कमरे बुक हो चुके हैं।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>कारपार्किंग की दिशा में अपने कदम बढ़ाते हुए मैं पत्नी को निराशाजनक यह सूचना देता हूँ तो वह मुझे ढाढ़स बँधाती है, 'अभी वहीं रुकिए, अपनी गाड़ी में। मैं अभी बुआ से बात करती हूँ। फूफाजी की पहुँच फिर कब काम आएगी?'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>मैं मुस्करा पड़ता हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>पत्नी की मूर्खता पर।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>उसके फूफा जी यानी मेरे पिता भारत सरकार में केवल अपने विभाग के सचिव हैं। देश भर के निजी अस्पतालों पर उनका कैसा ज़ोर?</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>किंतु आश्चर्य!</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>दस मिनट के अंदर मेरे पिता की आवाज़ मेरे मोबाइल पर आ पहुँची है, 'अभी अपनी सैंट्रो में रुके रहो। पाँच मिनट के अंदर तुम्हें इसी 'बेबी-लैंड' अस्पताल का एक कर्मचारी फोन करेगा, आइए, आकर अपना कमरा बुक करवा लीजिए।'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>उन्होंने सच कहा है।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>पत्नी के नाम मुझे यहाँ कमरा मिल गया है। मैं अपने पिता का मोबाइल मिलाता हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'काम हो गया?' अपना मोबाइल उठाते ही वे पूछते हैं।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'हाँ, पापा, थैंक यू।'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>सामान्य परिस्थिति में मैं उनका आभार कम ही स्वीकारा करता हूँ। किंतु इस समय उनके प्रति मैं सचमुच ही कृतज्ञता भाव से ओतप्रोत हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'किस बात का थैंक्यू? कैसा थैंक्यू?' उनका स्वर गद्गद हो उठा है : 'तुम्हारा आह्लाद मेरी ज़िम्मेदारी भी तो है, मेरी खुशी भी तो है। तुम जानते हो, तुम मुझ पर पूरा अधिकार रखते हो। मेरे बेटे हो। कुछ भी माँग सकते हो। कुछ भी कह सकते हो...'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'माँ कोमा में है, पापा', मैं अचानक फट पड़ता हूँ, 'उनके लिए भी कुछ कर दो, करवा दो...'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>माँ के कैंसर के बारे में मैं उन्हें पहले ही बता चुका हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'शट अप!' पापा की आवाज़ में एक तोपची के तोप-गोले की ज्वाला सुलग ली है और वे फोन काट देते हैं। </span></div><div><br /></div><div> ( 2 )</div><div><br /></div><div> माँ से वे कस्बापुर में मिले थे। सन् 1989 में।</div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>बहन उस समय सात वर्ष की थी और माँ का पहला तलाक हो चुका था। </span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>ज़िलाधीश की हैसियत से पापा उस स्कूल के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के एक सदस्य के रूप में भी नामित थे, जिसकी लाइब्रेरियन माँ थीं। शायरी की शौकीन और सुंदर।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू कविता की पापा को भी धुन रही और उन्होंने कस्बापुर से लखनऊ हुए अपने तबादले के एक महीने के अंदर ही माँ से सिविल मैरिज कर डाली, सन 1990 में। इस शर्त के साथ कि माँ उधर कस्बापुर के अपने मायके घर ही में अपनी बेटी छोड़ आएंगी। हाँ, उसे मिलने वे खुद वहाँ ज़रूर जा सकती थीं।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>मेरा जन्म सन् 1991 में हुआ था और माँ मुझे कस्बापुर खूब ले जाती भी रहीं। वहाँ उनके माता-पिता तो मुझ पर लाड़ उड़ेलते किंतु बहन तब भी मुझसे कटी-कटी ही रहा करती। एक बार उसकी सहेली ने मेरा नाम पूछा और जैसे ही मैंने अपने स्कूल के नाम की तरह अपने नाम के साथ अपने पिता का सरनेम दोहराया तो वह चौंक गई : क्या तुम हम लोग की जात के नहीं? जभी माँ वहाँ आ पहुँचीं और मुझे अपनी गोदी में बिठला कर हम तीनों को कजांज़ाकिस की एक कहानी का हवाला देकर समझाने की चेष्टा करने लगीं : हम सबकी जात एक है- नौए इंसानी, आदमजात। हम सब मानवजाति से हैं।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>कहानी यों थीं- हवा में अंजीर के दरख्तों की खुशबू तैर रही थी, जब एक बुढ़िया एक आदमी के पास आ खड़ी हुई। उसके हाथ में एक टोकरी थी जो पत्तों से ढंकी थी। उसने पत्ते हटाए और उस टोकरी में से दो अंजीर छाँटकर उस आदमी की तरफ बढ़ा दिए। आदमी ने पूछा: दादी अम्मा, क्या तू मुझे जानती है तो बुढ़िया हैरान हो गई- नहीं, मेरे बच्चे। लेकिन तुम्हें देने के लिए क्या तुम्हें जानना ज़रूरी है? तुम एक इंसान हो, मैं भी एक इंसान हूँ। क्या यह काफ़ी नहीं? </span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>माँ की यह कहानी उस समय मुझे बहुत भायी थी। लेकिन बाद में मुझे लगा था हम बच्चों की नोकझोंक के जवाब में उस कहानी को जोड़कर उन्होंने एक पेचीदा सच्चाई के पेच खोलने की बजाय और चिपका दिए थे।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>बचपन में हम एक खेल खेला करते थे- गौसिप। खेल झुंड में बैठे पहले खिलाड़ी के कान में छोड़ी एक फुसफुसाहट से शुरू होता था और अंतिम खिलाड़ी के कथन पर समाप्त। रास्ते में फुसफुसाहट में छोड़ा गया चुटकुला या किस्सा कट-छँटकर एक अलग ही रूप धारण कर लिया करता और हम सबके मनोरंजन का साधन बन जाया करता।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>मुझे लगता है, बचपन पीछे छोड़ चुके लोग यह खेल ज़्यादा खेलते हैं और अनचाहे सच की फुसफुसाहट को काट-छाँट कर, कतर-कुतर कर उसे अपने मनचाहे घेरे में ले आते हैं।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>उसी 'गौसिप' खेल के अंतर्गत अगर माँ अपने अतीत की लकीर को फैलाकर एक नई गोलाई दे रही थीं तो पापा अपने रेडिकल, उग्र सुधारवादी दायरे से, बाहर निकल रहे थे। उसी बड़ी लाइन में लौट जाने के लिए जहाँ रूढ़िग्रस्त उनका अपना धनाढ्य परिवार था जो समाज के घेरे के अंदर रहने वाली मेरी भावी सौतेली माँ से उन्हें ब्याह देने को आतुर था।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>परिणाम,सन 1999 के आते-आते, माँ से तलाक लेने के लिए पापा ने औपचारिक रूप से अपना धर्म फिर बदल लिया और माँ कस्बापुर के लिए विदा हो गईं। सदा-सर्वदा के लिए।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>हाँ, मेरे जीवन में उनके सान्निध्य की प्रबलता सदैव विद्यमान रही है। समय-समय पर वे मुझे मिलती जो रही हैं। कभी बहन के साथ तो कभी बहन के बिना। कभी मेरे स्कूल की रिसेस में तो कभी किसी सार्वजनिक पुस्तकालय में। उधर, कस्बापुर जाते ही अपनी पुरानी 'बॉस' के संपर्क-सू़त्रों के बूते पर उन्हें एक स्थानीय कॉलेज के पुस्तकालय में लाइब्रेरियन की नौकरी मिल गई थी और विभिन्न पुस्तकालयों की किताबें देखने या नई किताबों की खरीद का हवाला देकर वे साल में दो-एक बार मुझे दूर के उन शहरों में भी मिलने आ जाया करती थीं। जब-जब,जहाँ-जहाँ मेरी इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई मुझे लेती गई थी। भेंट में उनकी भरी बाँहों से मिले बंद डिब्बे और लिफ़ाफ़े जब-जब अपने होस्टल के कमरों में मैं खोलता तो मेरी रुलाई लाख मेरे रोके न रुका करती।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><br /></span></div><div><span style="white-space: pre;"> </span></div><div> ( 3 )</div><div><br /></div><div> अगले दो दिन भी माँ की स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहती है। कोमा में। पाँचवीं सुबह लगभग पाँच बजे देर से उठने वाली मेरी पत्नी मुझे पुकारती है। रोती हुई ।</div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>"क्या बात है," मैं घबरा उठता हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>"हमारा बिस्तर गीला हो रहा है। लगता है कोई अनहोनी होने वाली है। हमारी डॉक्टर को फोन करो...अभी..."</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>"उसकी एमनियोटिक सैक फट गई होगी," डॉक्टर कहती है, "और पानी बहने लगा है। उसे 'बेबी-लैंड' अस्पताल पहुँचाओ ……फ़ौरन... मैं वहाँ पहुँच रही हूँ..."</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>रास्ते में पत्नी अपनी माँ से पहले मेरी सौतली माँ को फोन करती है, बुआ आप आज ही माँ को अपने पास बुलवाकर यहाँ चली आइए...</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>उन ननद-भौजाई की बुकिंग दो दिन बाद की रही। लेकिन दोनों ही ने अपनी वह बुकिंग कैंसिल करवा दी है और आज की ले ली है।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>' बेबी-लैंड ' अस्पताल में प्रबंध संचालक को पत्नी के ऑपरेशन की व्यवस्था करने में तनिक देर नहीं लगी है और हमारा आह्लाद उन ननद-भौजाई के आने से पहले ही आ पहुँचता है।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>शाम पाँच बजकर दस मिनट पर।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>पत्नी की डॉक्टर मुझे बधाई देती हुई थक नहीं रहीं।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>पत्नी को बुक हो चुके हमारे कमरे में पहुँचा दिया गया है। वह सो रही है। प्रसूति की नीम-बेहोशी में।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>आह्लाद भी सो रहा है।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>लेकिन यहाँ नहीं। 'बेबी-लैंड' अस्पताल की नर्सरी में।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>उसे पत्नी के पास बाद में लाया जाएगा। पत्नी के कमरे से उठकर मैं बाहर बरामदे के सोफ़े पर आ बैठा हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>बैठते ही मैं माँ का मोबाइल मिलाता हूँ। उन की चिंता से मुक्त होना मेरे लिए असम्भव है ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span> माँ का मोबाइल फिर बहन ही ने उठाया है। वह रो रही है।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'माँ?' मैं अवाक् हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'वे जा जुकी हैं', वह फोन काट देती है। छाती थामकर मैं पापा को फोन लगाता हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'मालूम है?' फोन पाने पर भी वार्तालाप वही शुरू करते हैं, 'तुम्हारे ससुर और मैं भी तुम्हारी सास और माँ के साथ तुम्हारे पास पहुँच रहे हैं। बस दो घंटों में। एनी न्यूज? नवीं ताज़ी?'</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'माँ चली गई हैं', मैं रो पड़ता हूँ।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>'शट अप', वे अपने तोपखाने में जा पहुँचते हैं और फोन काट देते हैं।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>बिना मेरे जाने उपेक्षित, अरक्षित मेरी रुलाई अर्गल खोलकर बाहर लपक ली है।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>तभी नर्सों का एक झुंड मेरे सामने आ गुज़रता है। और मुझे ध्यान आता है पापा को आह्लाद के आने की खबर देनी अभी बाकी है।</span></div><hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-45515232132778598142024-02-29T20:38:00.003-05:002024-03-01T14:32:25.524-05:00मर्यादा पुरुषोत्तम राम एवं अहिंसा<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="http://www.setumag.com/2016/12/author-kanhaiya-tripathi.html"><img border="0" height="200" src="https://3.bp.blogspot.com/-Zv7wGDyZRE4/WD9Ej5JY6MI/AAAAAAAAFq8/EedDwnvJaRQiBrtyoRa7zfPLKLZSGbjuwCLcB/s200/Kanhaiya-Lal-Tripathi-Setu.jpg" width="200" /></a></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="http://www.setumag.com/2016/12/author-kanhaiya-tripathi.html"><span style="font-size: x-small;">डॉ. कन्हैया त्रिपाठी</span></a></td></tr>
</tbody></table>
<h3>- <a href="http://www.setumag.com/2016/12/author-kanhaiya-tripathi.html">कन्हैया त्रिपाठी</a></h3>
<span style="font-size: x-small;"><div><span style="font-size: x-small;"><div>पीठाचार्य, डॉ. आम्बेडकर पीठ (मानवाधिकार व पर्यावरण मूल्य) </div><div>पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, भटिंडा</div><div>चलभाष: (+91) 8989154081, (+91) 9818759757</div><div>ईमेल: hindswaraj2009@gmail.com & kanhaiya.tripathi@cup.edu.in</div></span></div>लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी का दायित्व निभा चुके हैं एवं सेतु संपादन मंडल के सम्मानित सदस्य हैं। आप अहिंसा आयोग के समर्थक एवं अहिंसक सभ्यता के पैरोकार भी हैं।</span>
<hr /><br /><div>अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की मूर्ति स्थापित कर प्राण-प्रतिष्ठा हुई। सनातन धर्म के उत्थान के लिए इसे एक महत्त्वपूर्ण बिंदु बताया जा रहा है। भगवान श्रीराम त्रेता युग में हुए और आज़ यह सर्वविदित है कि उन्होंने रघुकुल में जन्म लेकर पृथ्वी पर व्याप्त अधर्म का सर्वनाश किया। धर्म की स्थापना की। अपने समय को इस प्रकार जिया, कि उन्हें इस युग में सभी अपनी प्रेरणा-स्रोत मानते हैं। पूरी राम-कथा वाल्मीकि कृत रामायण में मिलती है। लेकिन सबसे अधिक यदि इसे लोकप्रियता मिली तो तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस से। उन्होंने इस रामकथा को आधुनिक लोक में पुनर्स्थापित किया। इसे दोहा, चैपाई, सोरठा, छंद और श्लोक के माध्यम से तुलसीदास ने सृजित किया और आज़ भारत की क्लासिक व सबसे अधिक पठनीय पुस्तक के रूप में इसे जाना जाता है।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBfIhuxSq4XoST9bVokht1lnLSvXnqW1EUR5dBRGsa3bKTen4JvHd8etVrKuPFHQjnNY82t4-gMFbIN5rIn4pZrtFAWlcguFTYUkhH2ZshrTdZi-QeGfjtQs2MeslNbVbTT2lcycIYwmD1qxmD6M6hiktT6dY_Mh6cCg8uZkMy-TJ2yNNUfVINc9mb58M/s658/Shri_Ram-Janmaboomi_Temple_Ayodhya-India.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="658" data-original-width="372" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBfIhuxSq4XoST9bVokht1lnLSvXnqW1EUR5dBRGsa3bKTen4JvHd8etVrKuPFHQjnNY82t4-gMFbIN5rIn4pZrtFAWlcguFTYUkhH2ZshrTdZi-QeGfjtQs2MeslNbVbTT2lcycIYwmD1qxmD6M6hiktT6dY_Mh6cCg8uZkMy-TJ2yNNUfVINc9mb58M/s320/Shri_Ram-Janmaboomi_Temple_Ayodhya-India.jpg" width="181" /></a></div>भगवान श्रीराम को अनीश्वरवादी कदाचित न महत्त्व दें। हो सकता है वे उन्हें एक मिथकीय पात्र बताकर भगवान रूप में न स्वीकार करें। स्वीकृति और अस्वीकारोक्ति के बीच फिर भी राम इतने बड़े हैं कि उनकी सबके बीच उपस्थिति है। वे हमारी सनातन सभ्यता में सबसे अधिक मान्य हैं। राम सबसे अधिक वरेण्य हैं। उन्हें भगवान विष्णु के अवतार के रूप में जाना जाता है। अधर्म पर धर्म के संस्थापक के रूप में उन्हें जाना जाता है। उन्हें सत्य रूप में जाना जाता है। उन्हें अपने इष्ट के रूप में जाना जाता है किंतु सबसे अधिक उनकी जो मान्यता जो है, वह है मर्यादापुरुषोत्तम की।</div><div><br /></div><div>हमारे देश में सनातन सभ्यता मानने वालों की बहुलता है। वैष्णव और शैव सभी भगवान श्रीराम को मानते हैं। भगवान शिव ने ही पार्वती को संपूर्ण कथा सुनाई और वही है रामायण कथा, ऐसा हमारे भारतीय वांग्मय बताते हैं। इस युग में इस अवतार की मनुज रूप में मर्यादा की एक विशेष संकल्पना प्रकट की गई है, जो रिश्तों के बीच प्रेम, करुणा, मैत्री, भ्रातृत्व व मातृत्व के सह-अस्तित्व को स्थापित करती है। हमारे भगवान श्रीराम के जीवन यात्रा में केवल मनुष्य सम्मिलित नहीं हैं बल्कि सृष्टि के जीव-जंतु, पशु-पक्षी, पेड़, पहाड़, जंगल, नदी यानी प्रकृति से लेकर समष्टि की यात्रा है। यह यात्रा है जनसामान्य की भी सुने जाने की। स्वयं पीड़ा सहकर संसार के सभी के लिए सुख के खोज की। </div><div><br /></div><div>वनगमन के लिए प्रस्थान करते समय वे अपने माता-पिता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। वे रावण जैसे महापण्डित के धराशायी होने पर उसे प्रणाम कर सीख देते हैं कि ज्ञानी, पण्डित को मृतशय्या पर पड़े रहने के बाद भी उससे सीखना चाहिए। भगवान श्रीराम ऋषियों, मुनियों, तपश्वियों और अपने श्रेष्ठजन का आदर करते हैं। वह विष्णु अवतारी भगवान परशुराम के लक्ष्मण संवाद के समय हुए क्रोध व असंगत संवाद को भी प्रेम के नियम पर चलकर अहिंसक होने का प्रमाण देते हैं। माता कैकेई द्वारा उनके वनगमन जैसे वरदान के पश्चात नानाप्रकार के संकटों व संघर्षों से जब लक्ष्मण, सीता सहित वह अयोध्या आते हैं, तो उन्हें प्रेम के साथ सर्वप्रथम बिना किसी द्वेष के अभिवादन मुद्रा में मिलते हैं। यह प्रेम का नियम ही अहिंसा है। यह सहन की असीम प्रकटीकरण को अहिंसा का सच्चा स्वरूप नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? अपने भाई भरत के प्रति उद्दात्त भर्तृत्व का प्रेम राम में तो दिखता है, लेकिन भरत भी कम नहीं हैं। श्रीराम अपने वीर भरत के लिए जो स्नेह संप्रेषित करते हैं, वही प्रेम का नियम है।</div><div><br /></div><div>कदाचित कोई उदाहरण हमारे इतिहास में मिले जो पशु-पक्षियों और भीलन शबरी जैसों से भी उद्दात्त भाव से प्रेम करता हो। उन्हें प्रेम से माँ पुकारता हो और जूठी बेर खाता हो। वह प्रभु श्रीराम हैं, जिनकी जीवन यात्रा में जटायु, शबरी, नल-नील, अहिल्या, भालू, बंदर और गिलहरी तक प्रेम से विभूषित हैं। मर्यादा से प्रेम की गहरी लकीर खींचकर भगवान श्रीराम ने इस धरा के समस्त जीवों को संदेश दिया कि सबका अपना अस्तित्व है। सबके साथ ही हमारा अस्तित्व है। हमें इसलिए सहज होकर करुणा, दया, प्रेम, भातृभाव, अपनत्व और सबमें आपने उत्सर्ग को देखना चाहिए। सबकी मर्यादा की रक्षा ही तो अहिंसा है।</div><div><br /></div><div>वह मर्यादा का उल्लंघन करने वाली अभिमान से प्रेरित शक्तियों को भी अहिंसा के बल पर पृष्ट करते हैं। अहिंसा का नियम है कि वह शक्ति के साथ भी अपनी उपस्थिति बनाए। यथा एक उदहारण मिलता है समुद्र से अनुनय-विनय का। भगवन श्रीराम ने जब देखा कि समुद्र बिलकुल अपनी रुख में कोई परिवर्तन नहीं ला रहा है तो उन्होंने यह सन्देश दिया कि अहिंसा कोई कायर पुरुष का आभूषण नहीं है अपितु उसके शक्ति से भी अहिंसा की स्थापना संभव है। इस सन्दर्भ में एक सुप्रसिद्ध चौपाई है-</div><div><br /></div><div>विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।</div><div>बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।</div><div><br /></div><div>रामायण की कथा से हमें यह सीख मिलती है कि यदि आग्रह से जब काम न बने तो फिर भय से काम निकाला जाता है। श्रीराम ने बताया कि आत्मबल ही अहिंसा है। आत्मशक्ति ही अहिंसा है। जहाँ अहिंसा भय त्यागने से स्थापित होती है, वहाँ उसी तरह की अहिंसा हमारे लिए उत्कृष्ट है। इन सबके बाद जब समुद्र आकर अपनी गलती माँ लेता है तो उन्होंने किस भी शस्त्रास्त्र का प्रयोग नहीं किया है और वह पुनश्च मनुष्य में निर्भय क्षमा के मार्ग प्रशस्त किए। निर्भय क्षमा भी अहिंसा का सर्वोच्च अवस्था है। यह निर्भय से आगे की अवस्था है। अहिंसा का निर्भय क्षमा स्वरूप उसी से संभव है जो करुणा-दया-प्रेम के वश होकर अपनी विभिन्न शक्तियों के होते हुए भी आवश्यकता पड़ने पर अपनी पहचान के बाद भी कोई दंड नहीं देता और क्षमा का दमन थाम लेता है और किसी भी खल को क्षमा कर देता है। श्रीराम से हमें निर्भय क्षमा का एक महान स्वरूप मिला है।</div><div><br /></div><div>‘अहिंसा के संदेशवाहक श्रीरामचन्द्र जी’ नमक आलेख में प्रियांशु सेठ ने लिखा है, ‘रामायण के अध्ययन से हमें यह उपदेश मिलता है कि श्रीरामचन्द्र जी वैदिक धर्म के मानने वाले आर्यशील पुरुष थे। बालकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 12, 13, 14, 15, 16 में श्रीराम जी के यथार्थ गुणों का वर्णन इस प्रकार मिलता है- 'धर्मज्ञ, सत्य प्रतिज्ञा, प्रजा हितरत, यशस्वी, ज्ञान सम्पन्न, शुचि तथा भक्ति तत्पर हैं। शरणागत रक्षक, प्रजापति समान प्रजा पालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुणधारक, रिपु विनाशक, सर्व जीवों की रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक, सर्व शास्त्रार्थ के तत्ववेत्ता, स्मृतिमान्, प्रतिभावान् तेजस्वी, सब लोगों के प्रिय, परम साधु, प्रसन्न चित्त, महा पंडित, विद्वानों, विज्ञान वेत्ताओं तथा निर्धनों के रक्षक, विद्वानों की आदर करनेवाले जैसे समुद्र में सब नदियों की पहुंच होती है वैसे ही सज्जनों की वहां पहुंच होती है। परम श्रेष्ठ, हंसमुख, दुःख-सुख के सहनकर्ता, प्रियदर्शन, सर्व गुणयुक्त और सच्चे आर्य पुरुष थे।' अयोध्याकाण्ड सर्ग 33 श्लोक 12 में भी उनकी महिमा का गायन इस प्रकार है- 'अहिंसा, दया, वेदादि सकल शास्त्रों में अभ्यास, सत्य स्वभाव, इन्द्रिय दमन करना, शान्त चित्त रहना, यह छ: गुण राघव (रामचन्द्र) को शोभा देते हैं।' (द्रष्टव्य: वैदिकट्रुथ, अहिंसा के संदेशवाहक श्रीरामचन्द्र जी, प्रियांशु सेठ, 22 अगस्त, 2018)</div><div><br /></div><div>भगवान श्रीराम को ‘दीन दयाल बिरिदु संभारी’ कहा गया है। यानि जो दीन, दुखी हैं, उनकी बिगड़ी बनाने वाले श्रीराम हैं। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने प्रभु श्रीराम को दीनन के दीनदयाल बताते हुए आगे कहा है कि जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है, जहां हमारे राम प्रेरणा न देते हों। भारत की ऐसी कोई भावना नहीं है जिसमें प्रभु राम झलकते न हों। भारत की आस्था में राम हैं, भारत के आदर्शों में राम हैं! भारत की दिव्यता में राम हैं, भारत के दर्शन में राम हैं! हजारों साल पहले वाल्मीकि की रामायण में जो राम प्राचीन भारत का पथ प्रदर्शन कर रहे थे, जो राम मध्ययुग में तुलसी, कबीर और नानक के जरिए भारत को बल दे रहे थे, वही राम आज़ादी की लड़ाई के समय बापू के भजनों में अहिंसा और सत्याग्रह की शक्ति बनकर मौजूद थे! तुलसी के राम सगुण राम हैं, तो नानक और कबीर के राम निर्गुण राम हैं!</div><div><br /></div><div>भगवान श्रीराम के इस अलौकिक व सर्वशक्तिमान को सबने माना है। हर समय-काल में, हर व्यक्ति में, प्रत्येक संत की आराधना में जिस पारब्रह्म की कल्पना है उसे श्रीराम ही माना गया है और उसका सबसे अहम् गुण माना गया है उनकी दया। उनके भीतर सबके प्रति दया के भाव थे। वे कृपालु माने गए। वे शिव के भी आराध्य माने गए। ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च माने गए। ऐसे श्रीराम के बिना अहिंसा की अनुभूति भी कदाचित संभव नहीं है। अहिंसा की अनेक अभिव्यक्तियाँ भले उपनिषदों में मिलती हों। भले ही हमारे श्रुतियों व स्मृतियों में मिलती हैं लेकिन अहिंसा की श्रीराम समय-काल के जो व्याप्ति है, वह मनुष्य और प्रकृति की अनूठी प्रयोगशाला के हिस्सा थे और उससे निकली सीख श्रीराम और उनकी अहिंसा की व्याख्या हैं।</div><div><br /></div><div>भारत में अब भगवान श्रीराम की मूर्ति स्थापना के बाद जो अहिंसक संस्कृति विकसित होनी चाहिए वह हम भारतीयों के मन में स्थापित होनी चाहिए। जैसे श्रीराम की मूर्ति व प्राण-प्रतिष्ठा में हमारी निष्ठा जुड़ी है, वैसे भगवान् श्रीराम के बताए रास्ते पर हमें चलने की आवश्यकता है। उनके द्वारा बताये गए अहिंसक व्यवहार हमारे जीवन के व्यवहार में परिलक्षित होने चाहिए। भारत में यदि किसी प्रकार की हिंसा न हो, सब सभी से प्रेम करें। सब सबका आदर करें। सह-अस्तित्व में विश्वास करें। करुणा, प्रेम, दया, परोपकार सबके जीवन का आभूषण बन जाए तो श्रीराम की असली स्थापना हम समाज की वाटिका में कर सकेंगे।</div><div><br /></div>मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का अभीष्ट था कि सभी प्राणियों में सद्भावना हो। इसीलिए उनके समय को बहुत ही आदर के साथ स्मरण किया जाता है। लोग कहते हैं-रामराज्य हो। इसका अर्थ ही हुआ कि सबकी गरिमा की रक्षा जहाँ होती हो और जहाँ सभी खुशहाल हों। ऐसे स्वर्णिम काल को हम जीने के यदि इच्छुक हैं तो हमें यह समझना होगा कि अहिंसा ही उसकी सबसे बड़ी कुंजी है जो रामराज्य के लिए सही मार्ग प्रशस्त कर सकती है। हमें हमारी समझ से समृद्धि जिस दिन मिल जाएगी। निःसंदेह हम उस दिन भगवान श्रीराम को भी सही मायने में अपना सम्मान दे सकेंगे और अहिंसा का मार्ग अपनाकर सबके लिए अहिंसक वातावरण बना सकेंगे।<hr />
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</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-78427612894417241192024-02-29T20:11:00.000-05:002024-02-29T23:22:31.875-05:00चुनार की एक गुमनाम महिला और उनके भारतीय मूल के वंशज<div style="text-align: left;"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHuA7_bSQTeUrQmuoQZKCLl5-nn_1Jmr2VF5mVC8J7fQSVTJzUGPQkXG1QVp9kKHnHze_MJVA2pyFu4dPrFrk_WJjl62CjHFBNgrbCJjgD0SUq3zLA85KSDZV9pK2psyM_tx09HU_0etOfVKOOH9JuxIRwGmAG-p0lOk9IwwIH9LK6fArQ3x6gEAIhRzg/s314/Praveen-Kumar-Mishra.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="314" data-original-width="242" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHuA7_bSQTeUrQmuoQZKCLl5-nn_1Jmr2VF5mVC8J7fQSVTJzUGPQkXG1QVp9kKHnHze_MJVA2pyFu4dPrFrk_WJjl62CjHFBNgrbCJjgD0SUq3zLA85KSDZV9pK2psyM_tx09HU_0etOfVKOOH9JuxIRwGmAG-p0lOk9IwwIH9LK6fArQ3x6gEAIhRzg/w154-h200/Praveen-Kumar-Mishra.jpg" width="154" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">प्रवीण कुमार मिश्र</td></tr></tbody></table><h3>प्रवीण कुमार मिश्र 'वशिष्ठ'</h3></div><div><div><span style="font-size: x-small;">शोध छात्र, इतिहास विभाग, सामाजिक विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, पिन .221005</span></div><div><span style="font-size: x-small;">ईमेल: praveenishra@gmail.com</span></div><div><span style="font-size: x-small;">चलभाष: 9026473425</span></div><div><br /></div><div>इतिहास जब अपना अस्तित्व खोजने लगता है, तब उसे अतीत की उन अंधेरे गलियों की यात्रा करनी पड़ती है, जिन रास्तों का शफ़र बड़ा ही दुर्गम होता है। मुझे याद है, बचपन में हमारे गांव में दक्षिण अफ्रीका से कुछ लोग भारत सरकार की मदद से अपने पूर्वजों को खोजते-खोजते आए थे। उनके चेहरे की मुस्कान और अपने अस्तित्व को पाने का जो संतोष था, वह बड़ा ही करुण था। भारतीय प्रवास पर आज भी करोड़ो भारतीय मूल के लोग दुनिया भर में रहते हैं। उनके दिलों में अपनी माटी के लिए जो प्रेम और लगाव है, वह लगाव किसी भाषा का मोहताज नहीं है। उनकी भावुकता व प्रेम अपने जन्मभूमि के लिए हमेशा से रहा है। आज भी कुछ लोग हैं, जो भारत में अपने अतीत का वह अध्याय खोजने की कोशिश कर रहे हैं, जिसकी कहानी भी अब विलुप्त होने के कगार पर है। ऐसी ही एक अधूरी कहानी मेरे जन्मभूमि चुनार से जुड़ी जमयिका के एक परिवार की है।</div><div><br /></div><div>एक रात मुझे जमयिका से एक मेल आया। यह 2018 की बात है। </div><div><br /></div><div>कैरिबियन सागर स्थित जमयिका देश वैस्ट इंडीज़ का एक आंग्लभाषी द्वीप राष्ट्र है। वह मेल किसी एडविन टलौच नामक व्यक्ति का था। उन्होंने मुझे अपना परिचय लिखा था और मेरे बारे में उन्हें बीएचयू के जिस प्रोफेसर ने बताया था उनका भी नाम उन्होंने लिखा था। श्रीमान एडविन के बारे में मुझे उनसे इतना ही पता चल पाया है कि वो जमयिका में एक प्रोफेसर हैं। उन्होंने मुझसे अपने पत्नी के पूर्वजों (ancestor) के बारे में जानकारी के लिए मदद मांगा। उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी के दादा का नाम जेम्स लैम्सडन था और परदादा का नाम जॉन लैम्सडन था। जॉन लैम्सडन ने एक भारतीय महिला से विवाह किया था। वह महिला मूल चुनार की रहने वाली थी। जॉन को दो बच्चे हुए, जेम्स लैम्सडन और ऐनी लैम्सडन। एडविन के अनुसार जेम्स भारतीय मूल के थे। उन्होंने मुझे इस संदर्भ में अभिलेखीय प्रमाण भी भेजा जो इस बात की पुष्टि करता है कि डॉ. जेम्स लैम्सडन अंग्रेजों द्वारा भारतीय चिकित्सा सेवा में नियुक्त किये गये पहले मूल भारतीय डॉक्टर थे। यह एक बड़ा ही रोचक ऐतिहासिक प्रमाण है। इसका मतलब यह हुआ कि पहला भारतीय मूल का डॉक्टर चुनार का रहने वाला था। मैंने एडविन महोदय को एक दस्तावेज भेजा, दस्तावेज़ जॉन लैम्सडन को 1795 में बनारस कमिश्नरेट का रेसिडेंट नियुक्त किये जाने के संदर्भ में था। उनका तबादला बाद में लखनऊ रेसिडेंट में हो गया। शायद, इसी दौरान उन्होंने चुनार की उस भार्टी महिला से विवाह किया होगा, क्योंकि चुनार उस समय ब्रिटिश सेना का हेडक्वार्टर हुआ करता था। चुनार में एक ऐतिहासिक दुर्ग स्थित है। इस ऐतिहासिक दुर्ग पर वर्षों तक अंग्रेजों का एकाधिकार 1765 से 1947 तक रहा। अंग्रेजों के समय में यहाँ स्थित ऐतिहासिक दुर्ग पर रिटायर आर्मी के सोल्जर्स भी रहते थे। क्योंकि, बहुत से रिटायर सैनिक यहीं अपना जीवन बिता रहे थे तो उन्होंने स्थानीय महिलाओं से विवाह करने की सोची और सेटलमेंट एरिया में जीवन यापन करने लगे। 'ब्रिटिश टेरिटरी अंडर द रूल्स' में चुनार के बारे में लिखा है कि यहाँ जो रिटायर आर्मी के लोग रहते थे, वे यहाँ के देशी महिलाओं से विवाह करते थे और उनसे जो काले बच्चे पैदा होते थे, उनको कम्पनी में आसानी से काम मिल जाता था । एडविन महोदय ने जेम्स लैम्सडन के चचेरे भाई विलियम लम्सडन की एक भारतीय उपपत्नी हेरिंजी खानुमल उर्फ फोएबे डोरेन के बारे में भी दस्तावेज मुझे दिए। विलियम को स्कॉटिश कानून के अनुसार हेरिंजी से विवाह के रूप में मान्यता नहीं प्राप्त हुई, इसीलिए वो आस्ट्रेलिया चले गए, जहाँ उन्हें 5 बच्चे हुए।</div><div><br /></div><div>एडविन महोदय की पत्नी के पूर्वजों को खोजने के लिए मैंने बहुत प्रयास किया, लेकिन मुझे इस संदर्भ में पूरी सफलता प्राप्त नहीं हुई। चुनार से लेकर विभिन्न अभिलेखागारों में बहुत प्रयास किया कि कहीं तो जॉन लैम्सडन के बारे में जानकारी मुझे प्राप्त हो, लेकिन मुझे कुछ खास नहीं मिला। तब मैंने चुनार में स्थित स्थानीय ब्रिटिश कब्रगाहों के ऊपर लिखित नामों को पढ़ना शुरू किया, लेकिन इस सन्दर्भ में न तो जॉन लैम्सडन और न ही उनके गुमनाम पत्नी के बारे में कोई जानकारी मिली। फिर, मुझे एक दिन चुनार स्थित तीनों ब्रिटिश सेमेट्री में दफ़न लोगों की पूरी सूची मिली। उस सूची में कहीं भी जॉन लैम्सडन और उनकी पत्नी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। चुनार में पहले, सेटलमेंट एरिया और नोटिफाइड एरिया हुआ करता था। अंग्रेज इन्हीं सेटलमेंट एरिया में अपने परिवारों के साथ रहते थे। यहीं मिशनरी स्कूल और चर्च भी हुआ करता था। चुनार में आज भी 1838 में स्थापित सेंट थॉमस पब्लिक स्कूल स्थित हैं। यहाँ के फ़ादर ने मुझे बहुत से दस्तावेज दिए, लेकिन उनमें भी जेम्स लैम्सडन के परिवार के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं हुई।</div><div><br /></div><div>जॉन लैम्सडन रिटायरमेंट के बाद स्काटलैंड चले गए, लेकिन उनकी पत्नी उनके साथ नहीं गयी, ऐसा एडविन महोदय ने बताया। इसका तात्पर्य यह हुआ कि उनकी पत्नी की मृत्यु चुनार में ही हुई। जेम्स का जन्म भी चुनार में ही हुआ, यह बात तो लिखित है। ऐसे में उनके शादी और उस भारतीय गुमनाम महिला के बारे में जो रहस्य है, वह रहस्य ही बना हुआ है।</div><div><br /></div><div>आज भी उनसे जुड़ाव है और मेल के माध्यम से बात होती है। मैं बड़ा ही सम्मान करता हूँ, श्रीमान एडविन महोदय का जिनका लगाव आज भी अपनी पत्नी के पूर्वजों को खोजने का रहा है। यही एक भावना है,जो विदेश में बैठे भारतीय मूल के लोगों के स्व:बोध को भारत के साथ जोड़ती है। यह जान कर और भी खुशी है कि चुनार के मूल लोग आज भी जमयिका में रहते हैं, और अपने पूर्वजों को खोजने व अपनी मातृभूमि चुनार को देखने की इक्षा रखते हैं।</div><div><br /></div>(यह आलेख श्रीमान एडविन टलौच द्वारा दिए गए सूचनाओं और हमारे द्वारा उनके पूर्वजों को खोजने के असफ़ल प्रयास पर आधारित है। लेखक चुनार के रहने वाले हैं, और चुनार, मिर्ज़ापुर पर इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से शोध कर रहे हैं)<hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-19648411857441384702024-02-29T20:03:00.001-05:002024-03-01T07:44:31.479-05:00कलम की नोक पर अधूरी कविता<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpjpT4LnoGalw4tV1jApQpNl_xrwE-BcTqui29-7iNq3xUwIh2RvSnKRRFhOANlMU-BVB1MsmsE8b11F3m1nhUVrSe7zqZZA34jDNjJSe03wO1AvEA0f10a1XAxntZsn5Wi590nQUZoYyOXOQgIJ0OwBa_AH5EysBsTYPEmHgOh1AFLi2RuYdnD3DlWvc/s478/Lily-Mitra-Faridabad.png" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="478" data-original-width="413" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpjpT4LnoGalw4tV1jApQpNl_xrwE-BcTqui29-7iNq3xUwIh2RvSnKRRFhOANlMU-BVB1MsmsE8b11F3m1nhUVrSe7zqZZA34jDNjJSe03wO1AvEA0f10a1XAxntZsn5Wi590nQUZoYyOXOQgIJ0OwBa_AH5EysBsTYPEmHgOh1AFLi2RuYdnD3DlWvc/w173-h200/Lily-Mitra-Faridabad.png" width="173" /></a></div><h3 style="text-align: left;">लिली मित्रा</h3></div><div><br /></div><div>कुछ सोचा नहीं है </div><div>कोई विषय निर्धारित नहीं है</div><div>मन में एक दिशाहीनता लिए</div><div>कलम बन गई है -</div><div>जीवन पथ पर किधर भी मुड़ जाते..</div><div>कहीं भी रुक जाते... पग,</div><div>दीठ कल्पनाओं के </div><div>सपनीले बादलों पर तैरने के बजाए,</div><div>बार-बार फिसल रही है...</div><div>किसी ठहरे शैवाल की कलौछ खाई हरियाली पर,</div><div>साहित्य बेमकसद...</div><div>विचारों की क्रान्ति पस्त और हताश</div><div>जीवन किसी शीर्षकविहीन, विचारविहीन, लक्ष्यहीन कविता सा</div><div>क्यों हो जाता है कभी-कभी?</div><div>हैरान हूँ!</div><div> ...आदमी खुले मैदान में</div><div>अपने लिए हवाई चौखाने काटता</div><div>खुद से जूझता</div><div>चेहरे पर झूठी खुशी और आत्मबल का</div><div>दंभ लिए</div><div>किस क्षणिक सुख के अनंत का जश्न जी रहा है?</div><div>वो बार-बार टूट रहा है </div><div>बार-बार सँवर रहा है</div><div>लेकिन हर सँवरने में वह</div><div>थोड़ा-थोड़ा खत्म हो रहा है...</div><div>ये खत्म हो जाना ही मुक्ति है क्या?</div><div>क्या मुक्ति ही जीवन का सार है?</div><div>मुक्त होने के लिए टूटना चाहिए?</div><div>या हर संवरने को जी भर जीना चाहिए?</div><div>इस द्वंद का उत्तर खोजती कविता</div><div>रुकी है कलम की नोंक पर </div><div>अधूरी... ।</div>***<div><hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024<br /></a>
</div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-8504295889359086592024-02-29T20:00:00.005-05:002024-03-01T07:57:11.277-05:00बहुआयामी रचनाकार: सुब्रमण्यम भारती<div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDVIo2HMdG4Bnz3ydoGWtOWG6bZ4D0-QKa9zkvx7AyUciACvspWrIVs9On_LfSWCgkyyLqMUUPpNGYHOBZ6Rxq6IfLJoh3ecMOtCp0Li70yPyv6NjqyYdpVN2yXDm_HMuHA_VgsY5_X0ZVjU8KmZBG0VtXQk9LboUY84UD7TOBeo1xpiCEYoIE9GxZl0g/s380/Mangala-Ramachandran_out.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="380" data-original-width="324" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDVIo2HMdG4Bnz3ydoGWtOWG6bZ4D0-QKa9zkvx7AyUciACvspWrIVs9On_LfSWCgkyyLqMUUPpNGYHOBZ6Rxq6IfLJoh3ecMOtCp0Li70yPyv6NjqyYdpVN2yXDm_HMuHA_VgsY5_X0ZVjU8KmZBG0VtXQk9LboUY84UD7TOBeo1xpiCEYoIE9GxZl0g/w171-h200/Mangala-Ramachandran_out.jpg" width="171" /></a></div><h3 style="text-align: left;">मंगला रामचंद्रन</h3></div><div><br /></div><div> जब भी सुब्रमण्यम भारती जी का नाम दिमाग में कौंधता है तो उनके अनेक रूपों में से दो रूप प्रमुखता से उभर कर सामने आते हैं। एक कवि रूप और दूसरा देश भक्त, स्वतंत्रता सेनानी का।जब भी इस विषय पर चर्चा या बहस होती है कि उनका कवि रूप श्रेष्ठ है या देशभक्त का रूप तो हर बार बिना नतीजे के ही चर्चा समाप्त हो जाती है। क्योंकि चर्चाकार बहस के दौरान भारतीजी के अन्य अपरिमित गुणों को जानते चले जाते और चकित रह जाते और बहस अधूरी रह जाती।</div><div> भारतीजी का कविरूप तो उनके बचपन में जब वे मात्र सात वर्ष के थे तभी नज़र आ गया था। प्रकृति के सानिध्य में स्वयं को मुक्त कर छंदों की रचना करने लगे थे। ग्यारह वर्ष के बालक थे तभी से लम्बे एवं अर्थपूर्ण पद्य रचने लगे थे। परिस्थिति के अनुसार तुरन्त कविता तो भारती जी चुटकी बजाते ही बना लेते थे पर उन्हें आशुकवि कहना कदापि उचित नहीं होगा। आशुकवि की रचनाएँ कालजयी नहीं हुआ करतीं पर भारतीजी की तो इस तरह से बनी रचनाएँ भी प्रसिद्ध और कालजयी हुईं हैं। भक्ति, प्रकृति, श्रंगार से लेकर देशप्रेम, स्वतंत्रता, राष्ट्रीय आंदोलन, राष्ट्रीय नायक-नायिकाएँ, तामिलनाडु, तामिल भाषा के अलावा विदेशों के हालात और उनकी हस्तियों पर भी पद्यरचना की है।इतनी प्रचुर मात्रा के रचने के साथ रुक नहीं गये, बच्चों के लिए बालगीत, नीति एवं आदर्शों पर गीत, समाज के अलग-अलग वर्गों, नारी के लिए विशेषतः प्रगतिशील विचारों से युक्त, देवीय एवं वर्नाकुलर शिक्षा पर भी कविताएँ लिखीं। भावुक तथा अति संवेदनशील भारतीजी का ध्यान जब कोई विषय या घटना अपनी ओर खींचती तो कदापि माँ सरस्वती ही उनके मुखश्री से झरने लगती थी।</div><div><br /></div><div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVy3A3qcltlsA0T7LxWzBm2ZDw60pezLekCenVPpaeCp2Kj-lF55FNrFz0VTJ8-hVcgF0SGTF_1D6xRqldc2CSRaeJQt_b60RHXnlFB6aOqPHlQWynphaQG5pQ6dgJ2KOc5sklLqhJrvY6cyOBxgslyZPSGzWxzAWEQg7_w_-_Yr9l55WYSpSc66ZbtZc/s301/subramania-bharati-1882-1921.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="301" data-original-width="241" height="301" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVy3A3qcltlsA0T7LxWzBm2ZDw60pezLekCenVPpaeCp2Kj-lF55FNrFz0VTJ8-hVcgF0SGTF_1D6xRqldc2CSRaeJQt_b60RHXnlFB6aOqPHlQWynphaQG5pQ6dgJ2KOc5sklLqhJrvY6cyOBxgslyZPSGzWxzAWEQg7_w_-_Yr9l55WYSpSc66ZbtZc/s1600/subramania-bharati-1882-1921.jpg" width="241" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">महाकवि भारतियार <b>सुब्रमण्यम भारती</b><br /><span style="font-size: x-small;">(11 दिसम्बर 1882 - 11 सितम्बर 1921)</span></span></td></tr></tbody></table> प्रकृति के साथ एक चित्त हो जाना और अपने आसपास से बेखबर होकर ऊंचे स्वरों में गाने लगना उनका प्रमुख गुण था। उनकी भावुकता का ये हाल था कि जब वे भक्ति संगीत का गीत रचते तो ईश्वर या दैवी की स्तुति में अश्रु स्वत: ही उनकी आंखों से बहने लगते।श्री गणेश, कृष्ण, कार्तिकेय (दक्षिण भारत में जिन्हें मुरुगन या षटाननम् कहा जाता है) से लेकर लगभग सभी देवी देवताओं पर उन्होंने गीत रचे हैं।इतना ही नहीं इन पद्यरचनाओं को बाकायदा संगीत के रागों में पिरोकर गाया भी। माँ सरस्वती पर रची रचनाओं को भावपूर्ण कोमल स्वरों वाले रागों में करुणा भरी आवाज में गाते तो दुर्गा और शक्ति स्वरूपा देवी की रचनाओं को आवेशपूर्ण रागों में गाते हुए स्वयं भी आवेश में आ जाते। अति स्पष्ट उच्चारण एवं गहन गंभीर ओजपूर्ण ध्वनि श्रवण करने वालों के मनों में भी जोश पैदा कर देता। राष्ट्रभक्ति और भारतमाता पर रचे गीतों को भी वे इसी जोश के साथ गाते। सुनने वाले के हृदय की गहराइयों को छूनेवाले ये गीत आसानी से याद भी हो जाते थे।</div><div> हालांकि भारतीजी ने शास्रोक्त रूप में संगीत की शिक्षा नहीं ली थी पर माँ शारदे का वरदहस्त मानो उन पर सदैव रहा। शायद इसीलिए गीत रचते-रचते उसका समन्वय विशिष्ट राग से भी हो जाता था। महाभारत ग्रंथ के एक हिस्से को उन्होंने पांच अध्यायों में बाँटा और पद्य के रूप में खण्ड काव्य रच दिया। यह हिस्सा दुर्योधन की चालाकी से पाण्डवों को ध्यूत क्रीड़ा पर आमंत्रण से लेकर पांचाली (द्रौपदी) का शपथ लेने तक का वर्णन है।यह पुस्तक 'पांचाली शपथम्' शीर्षक से बहुत प्रसिद्ध हुआ तथा पाठकों को बहुत पसंद आया और अभी भी आ रहा है। भारतीजी की पद्यरचनाओं के अथाह सागर का यह सर्वश्रेष्ठ मोती माना जाता है। उनकी रची कविताओं और गीतों की विशाल संख्या वास्तव में चकित और स्तंभित कर देता है।</div><div> सन् 1929 में भारतीजी की कुछ कविताओं को अंग्रेज सरकार ने जब्त कर प्रकाशित न होने देने की कोशिश की थी। उन्हीं में से कुछ कविताओं को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अंग्रेजी में अनुवाद कर गांधीजी की ‘यंग- इंडिया’ पत्रिका में प्रकाशित करवाया था। साबरमती आश्रम से निकलने वाली 'मधुपुड़' (शहद का छत्ता) नामक गुजराती पत्रिका में स्व. जगतराम दवे ने कुछ कविताओं के अनुवाद प्रकाशित किए थे।यह गीत अंग्रेजों के अत्याचार और भारत की गुलामी को असहनीय बताते हुए ह्दयद्रावक है जिसका शीर्षक है 'ह्दय सहन नहीं करेगा ॑। इस तरह कह सकतें हैं कि भारतीजी ने गुजराती भाषी लोगों के मन में भी जगह बना लिया था। वैसे इससे पहले सन् 1919 में भारतीजी जब महात्मा गांधीजी से प्रथम बार मिले थे तभी उन्होंने राजाजी से कह दिया था कि ये ऐसा हीरा है इसे संभाल कर रखना पड़ेगा।</div><div> सन् 1929 में भारतीजी के गीतों का अनुवाद पढ़ कर गांधीजी इतने प्रभावित हुए कि बोल पड़े – ‘इनकी रचनाओं से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।‘ भगवद्गीता का भारतीजी ने तामिल में अनुवाद किया था जिस पर गांधीजी ने गुजराती में प्रेम पूर्वक आशीर्वचन लिखा था। दक्षिण भारत में उन्हें एक महाकवि का ही रूप दिया गया है और कुछ एक लोग उनकी तुलना अंग्रेज महाकवि शेक्सपियर से करतें हैं।</div><div>ऐसे में प्रश्न उठता है कि इतनी प्रचुर मात्रा में पद्य रचने वाले भारतीजी को प्रमुखता से कवि ही माना जाए? इस प्रश्न का उत्तर इतना सरल या सहज रूप में हाँ-न कहने लायक कैसे हो सकता है, जब उनके गद्ध लेखन की मात्रा भी असीमित और अनेक रंगों और भावों में है। बच्चों को केन्द्र में रखकर लिखे उनके विशाल साहित्य में जीवन के आदर्शों और मूल्यों की पहल बच्चों पर न तो थोपी हुई लगती है न नीरस उपदेशात्मक। वैसे भी उनके लेखन में हास्य- व्यंग्य का प्राकृतिक पुट विषय के साथ ही गुंथा रहता है।उस काल में जब बच्चों के साहित्य के बारे में तो छोड़िए बच्चों पर बहुत अधिक ध्यान दिया ही नहीं जाता था।देश परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था तब भारतीजी ने बच्चों को संबोधित करते हुए लिखा था, 'ओडी विलैयाडु पापा’ (बच्चों, खेलों कूदो, क्रियाशील रहो) का आह्वान किया था।उनकी ये सोच उन्हें अपने समय से बहुत आगे ले जाता है, प्रगतिशीलता की ओर।</div><div> साहित्य की हर विधा पर भारतीजी ने अपनी लेखनी का चमत्कार दिखाया है। इतनी आसानी और खूबसूरती से कलम का उपयोग किया कि उनकी अधिकांश रचनाओं ने प्रशंसा और प्रसिद्धि पाई तथा इसी कारण कालजयी हुईं।यही नहीं ये रचनाएँ वर्तमान युग में भी प्रासंगिक हैं।सन् 1910 के बाद उनका लेखन पत्र पत्रिकाओं के स्तंभ लेखन तक सीमित न रहकर बहुत विस्तार पा गया। यही पुदूचेरी (पांडिचेरी) प्रवास का काल था इसी दौरान उन्होंने अपनी कई पांडुलिपियों को प्रकाशन हेतु पूर्ण किया। इनमें से प्रमुख है भगवदगीता का तामिल अनुवाद, जिससे मात्र तामिल पढ़ने वाले भी भागवत का सार और महत्व जान पाएँ। इसी दौरान उनका खंडकाव्य ‘पांचाली शपथम्’ भी प्रकाशित हुई थी। इसमें द्रौपदी की पीड़ा को उन्होंने जिस तरह व्यक्त किया है वह उनके मन में महिलाओं के प्रति करुणा एवं अन्य कोमल भावनाओं का आभास कराता है।</div><div>द्रौपदी में उन्होंने भारत माता की प्रतिच्छवि देखी तथा कौरवों को अंग्रेज सरकार के रुप में। इस काव्य में उन्होंने द्रौपदी के विलाप के साथ काव्य समाप्त कर दिया। इसके बारे में स्वयं भारती जी का कहना था कि एक सती स्त्री के विलाप और त्रासदी के बाद कोई कुछ भी कहे या समझाए उसका न कोई अर्थ होता है और न औचित्य।</div><div> भारतीजी का बहुआयामी साहित्यिक व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में नज़र आता है। पर वे मात्र एक उच्च कोटि के साहित्यकार ही नहीं थे , उनके जीवन का अध्ययन करते हैं तो अनेक रूप दिखतें है, जैसे स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, बच्चों की चिंता और परवाह करने वाले, स्त्री के प्रति उदारमना और उच्च विचार के स्वामी, एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के स्वामी तथा हिन्दी के कविवर निराला की तरह फक्कड़ तबीयत के। पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकीय तो परिवार पालने के लिए करने ही थे पर इसे मात्र नौकरी की तरह नहीं वरन् एक मिशन या पवित्र उद्देश्य की तरह करते थे। हर रूप में उनका देशप्रेम और प्रगतिशील विचारों के दर्शन हो ही जाते। उनके जैसे उत्साही और जोखिम उठाने को तैयार व्यक्ति के देश के लिए देखे सपने और द्रष्टि दोनों ही अति विशाल थे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं!</div><div> भारतीजी को सदैव लगता था कि देश में मेधा की कोई कमी नहीं है और भारत आजाद होने के बाद एक आत्मनिर्भर राष्ट्र बन सकता है। भले ही वे अपने पिता की तरह गणित एवं विज्ञान में रुचि नहीं रखते थे पर इन विषयों की अहमियत को समझते थे। भाषा और साहित्य में भी मात्र तामिल के विद्वान बन कर संतुष्ट नहीं हो गए थे। संत त्यागराज महाराज के गायन को समझने के लिए उन्होंने तेलूगू सीखी। अंग्रेजी भाषा का ज्ञान तो उन्हें मिडिल स्कूल से हो गया था, समय आने पर फ्रेंच और जर्मन भी सीखी। पूरे देश को ही नहीं समस्त विश्व को बंधुत्व में बंधे हुए देखना चाहते थे। असंभव शब्द से दूरी बनाए रखते थे, कदाचित इसीलिए उनके कल्पना चित्र इतने विशाल हुआ करते थे। असंभव की तरह झूठ शब्द उनके आसपास भी फटक नहीं सकता था। अपनी बाल रचनाओं में बच्चों के लिए एक आदर्श स्वरूप की उनकी कल्पना वास्तविक जीवन में भी वैसी ही थी चाहे वे उनकी दोनों पुत्रियों के लिए हों या अन्य बच्चों के लिए हों। गांधीजी ने 'नवजीवन ' पत्रिका में विधवाओं के दुःखी जीवन पर लेख लिखा था और उनके दुःख दूर करने के कुछ उपाय भी बताए थे, परन्तु गांधीजी विधवाओं के पुनर्विवाह के खिलाफ थे। भारतीजी उनके इस विचार से असहमत थे, उनका कहना था कि विधवा या विधुर अपने वय और काबिलियत के अनुसार साथी चुन कर पुनर्विवाह करें। नारी को पुनर्विवाह की स्वीकृति मिलने से उसके खिलाफ हो रहे अन्याय एवं अत्याचार को रुक सकते हैं। यह दृष्टांत बताता है कि भारतीजी जैसा सोचते थे, जैसा लिखते थे वहीं जीते भी थे। अर्थात् साहसी और स्पष्टवादी जो काले को काला और सफेद को सफेद कहने में संकोच न करे। </div><div> मद्रास (चेन्नई) में वाय .एम .सी .ए में गांधीजी का उदबोधन था जहाँ उन्होंने युवाओं से ग्यारह तरह के व्रत लेने का संकल्प कराया। इसकी प्रशंसा करते हुए भारतीजी ने तराज़ू नामक पत्रिका में लिखा, मैं एक बारहवाँ संकल्प लेने को कहता हूँ कि अगर कोई आपको मारने की पहल करें तो चुपचाप स्वीकार नहीं करें। ये अहिंसा नहीं कायरता होगी। उन्होंने तो मृत्यु देवता पर भी कविता रचते हुए कहा था कि तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ऐसा दुस्साहस एक साहसी, निर्मल हृदय और स्पष्टवादी ही कर सकता है। परिवार पालने के लिए कलम पर निर्भर रहने वाले भारतीजी ने 'स्वदेश मित्रन 'पत्रिका इसीलिए छोड़ी कि अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर लिख नहीं पा रहे थे और तीखे वार भी नहीं कर पा रहे थे।सन् 1904 में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित बाल गंगाधर तिलक के विचार जानते रहे और उनसे प्रभावित होने लगे। सन् 1907 में सूरत अधिवेशन में उनके दर्शन कर, मिलकर एवं उनका ओजपूर्ण भाषण सुनकर उनके तीव्रवादी विचारों के पक्षधर हो गये। तभी उन्होंने इंडिया पत्रिका में नौकरी कर ली और अपने उग्र सटीक संपादकीय, वीररस के गीत, आलेख तथा कार्टून द्वारा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ डंका बजाने लगे।</div><div> देश के सभी बड़े नेताओं से प्रभावित थे और अरविंद घोष के साथ पुदूचेरी में विपिनचंद्र पाल से मुलाकात के बाद लगातार संपर्क में और चर्चारत रहे। स्वामी विवेकानंद के तो भक्त थे और उनके असमय मृत्यु से दुःख के सागर में डूब गये थे। विवेकानंद की तरह उन्होंने युवाओं में देशप्रेम की अलख जगा कर उन्हें स्वतंत्रता संग्राम और देश सेवा से जोड़ा। दक्षिण भारत के अनेक युवा भारती के आह्वान पर इस पुनीत कार्य में जुट गए। भारतीजी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के लेखन एवं वाक्चातुर्य से बहुत प्रभावित थे ही उन्हें रवीन्द्र संगीत से भी लगाव था। गुरुदेव से बीस वर्ष छोटे भारतीजी गुरुदेव से बीस वर्ष पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो गये थे। गुरुदेव चेन्नई में एनीबेसेंट के घर में रुकते थे और एनीबेसेंट भारती को अच्छे से जानती ही नहीं थी वरन् उन्हें जेल से रिहा करवाने में भी उन्होंने मदद की थी। पर कभी ऐसा संयोग ही नहीं बना कि दोनों महान विभूतियाँ आमने सामने मिल पातीं।</div><div> भारतीजी के लिए कर्म ही प्रधान था, इसे समझने के लिए उनके विशाल हृदय की थाह पाने से पता लग जाता है। वे जिस तरह किसी के विशेष और अच्छा कार्य करने पर दिल खोलकर प्रशंसा करते थे और प्रभावित हो जाते थे, वह भी बिना किसी पूर्वाग्रह या ग्रंथि के, चाहे वह व्यक्ति किसी भी जाति या धर्म या संप्रदाय का हो। भले ही इस कारण से कभी-कभी संकट में भी पड़ जाते थे। उन्होंने अल्लाह, गुरुनानक, ईसामसीह पर भी गीत रचे और भक्ति भाव से प्रस्तुत भी किया। जिस तरह सारे धर्मों को समान रूप से सम्मान देते थे संगीत के समस्त रूपों को भी इसी तरह मानते थे। उनके हिसाब से कानों को मधुर लगने वाला हर संगीत श्रेष्ठ है चाहे वह भारतीय हो या पाश्चात्य।</div><div> उन दिनों पुदूचेरी (पांडिचेरी) में प्रत्येक गुरुवार को समुद्र तट के एक खास हिस्से पर एक घंटे तक फ्रैंच बैंड बजाया जाता था।भारतीजी सपरिवार तथा अपनी मानसपुत्री यदुगिरी के साथ रेत पर बैठ कर आनंद उठाते।उनकी पुत्रियाँ तंगम और शकुन्तला उनसे पाश्चात्य संगीत की विशेषता एवं भारतीय संगीत से उसकी भिन्नता आदि के बारे में प्रश्न करतीं और भारतीजी बड़ी सहजता से उनका समाधान कर देते थे। ऐसे में एक दिन बच्चों ने कहा- ‘कल सरस्वती पूजा है, आप बैंड वाली धुन पर देवी के लिए एक रचना तैयार कर सकतें हैं क्या?'</div><div> पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब मिला- ‘हाँ हाँ, क्यों नहीं! '</div><div> उधर बैंड पर धुन बदली तो यदुगिरी बोली— ‘इस धुन पर लक्ष्मी जी की स्तुति गाएँ तो बहुत अच्छा लगेगा।'</div><div>'इस धुन पर भी तैयार हो जाएगा।' -बिना झिझके तुरन्त बोल पड़े।</div><div> धन की कमी से सदा परेशान रहने वाली चेल्लमा , भारती जी की पत्नी, बोली- ‘सुना है काशी, कलकत्ता में इन दिनों काली व दुर्गा देवी की पूजा होती है, हम लोग भी इन देवियों की पूजा व स्तुति करें तो शायद सारे कष्टों से मुक्ति मिल जाए।'</div><div> भारतीजी मुस्कुरा दिए और अगले ही दिन तीनों देवियों पर एक-एक स्तुति गीत बनाकर उन्हें पाश्चात्य धुनों में बांध कर सुना भी दिया। उन जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व के लिए शायद कुछ भी असंभव नहीं था। देश और देशवासियों के लिए उनके मन में, दिमाग में ढेरों सपने थे जो अवश्य पूरे होते अगर उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती। वर्तमान में महिलाओं ने जो प्रगति की है उसे देख कर प्रसन्न होते और जो अत्याचार हो रहे हैं उससे उबल पड़ते इसमें कोई संदेह नहीं होगा। उनके लिए स्त्री और पुरुष दो आँखों के सद्दश्य थे, जिन्हें समान अवसर मिलना चाहिए और शुचिता का पैमाना भी समान होना चाहिए।अपनी माँ को बाल्यकाल में खो देने से प्रत्येक स्त्री में मां की छवि और ममता की खोज करते थे। स्त्री का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।</div><div> बच्चों को ओडी विलैयाडु पापा का संदेश देने वाले भारतीजी वर्तमान में बच्चों की कई क्षेत्रों में एक साथ दक्षता देख पाते तो प्रसन्न होकर स्वयं भी बच्चे बन जाते। शारीरिक रूप से कमजोर और शारीरिक खेलों से कुछ दूर रह जाने का भारतीजी को दुःख था। उन्होंने जो उपलब्धियाँ हासिल कीं, वे अपने मनोबल और दृढ़ चरित्र और दृढ़ निश्चय से प्राप्त कीं।</div><div> 11 सितंबर 1921 में उनकी मृत्यु पर दैनिक ’हिन्दू' समाचार पत्र के संपादकीय में प्रकाशित हुआ- </div><div><b>'वरकवि (अर्थात् ईश्वर से कवित्व का वर प्राप्त किए हुए) श्री सुब्रमण्यम भारती की अकाल मृत्यु से देश ने एक स्वस्फूर्त पैदाइशी कवि एवं देशभक्त को खो दिया। इस हानि की पूर्ति नहीं हो सकती।'</b></div><div> </div><div> तामिलनाडु के प्रिय पुत्र, शारदे माँ के आशीर्वाद से ओतप्रोत, दूरद्रष्टा, उत्साह से भरपूर, हमारे प्रेरणा पुंज का असमय, अल्पवय में निधन मात्र तामिलनाडु ही नहीं पूरे देश के लिए ऐसी हानि का सूचक है जिसकी भरपाई होना लगभग असंभव है। पर हम मायूस या निराश नहीं हैं और हमारी आशाएँ अभी तो उनकी अमर रचनाओं द्वारा सदियों तक जीवित रहेंगी इसमें तनिक भी संदेह नहीं। पंजाबी भाषी प्रोफेसर श्री करमजीत घटवाल जी ने भारती जी की कविताओं को पंजाबी में अनुवाद कर मात्र भारत ही नहीं विश्व के पंजाबी भाषी लोगों को उनसे जोड़ दिया। यह इस लिए संभव हुआ कि भारती जी की अर्थपूर्ण और ओजस्वीनी लेखनी ने उन प्रोफेसर को प्रभावित किया। उनकी अमर रचनाओं का खज़ाना उनकी उपस्थिति का एहसास सदा कराती रहतीं हैं और हम आश्वस्त हैं कि भविष्य में भी सदियों तक कराती रहेंगी। </div><div>***</div><div><br /></div><div>श्रीमती मंगला रामचंद्रन, </div><div><span style="font-size: x-small;">608–आई ब्लाक, मेरी गोल्ड, ओशन पार्क, </span></div><div><span style="font-size: x-small;">निपानिया, इंदौर, मध्यप्रदेश –452010</span></div><div><span style="font-size: x-small;">चलभाष: 9753351506.</span></div><div><span style="font-size: x-small;">ईमेल: mangla.ramachandran@gmail.com</span></div></div><hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-52711441911564813182024-02-29T19:56:00.001-05:002024-02-29T23:22:31.585-05:00व्यंग्य: सारा टैक्स जाता कहाँ है<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="http://www.setumag.com/2018/06/Author-Dharmpal-Mahendra-Jain.html"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJWmnY8JWJJnuHxK8PfniLs5oHZrmbfqp8IAk0tbhDPe1HhVVLt8rdsnr8jjPS1nCCSjpXUB-fX77X7gvYzTLkpD6Iy2P50VTFGlU2q97pDZ4i-8X_xGTCjWbFTx8K0B5TdCd2v_bOWtlMAqJ02E_K58vaAoxtXkOOmYk4t4n6j0xLYLXUCwEOtVi0/w161-h200/Dharmpal-Mahendra-Jain.jpg" width="161" /></a></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="http://www.setumag.com/2018/06/Author-Dharmpal-Mahendra-Jain.html">धर्मपाल महेंद्र जैन</a></td></tr>
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<h3>
बिंदास: <a href="http://www.setumag.com/2018/06/Author-Dharmpal-Mahendra-Jain.html">धर्मपाल महेंद्र जैन</a></h3>
<div style="font-size: x-small;">ईमेल: dharmtoronto@gmail.com फ़ोन: +1 416 225 2415<br />
सम्पर्क: 22 फेरल ऐवेन्यू, टोरंटो, एम2आर 1सी8, कैनेडा
</div><div><br /></div><div>मैं गणित में कमज़ोर हूँ पर मेरी सरकार गणित में महाकमज़ोर है। सरकार को गणित नहीं आता तो भी वह बड़े-बड़े जोड़ लगाती है। बिलियनों डॉलर के जोड़ लगाती है और उसमें हमेशा लोचा मारती है। पाँच-दस बिलियन तो घटाना ही भूल जाती है। फिर किसी दिन ऑडिटर जनरल की रिपोर्ट आती है, वे सरकार की पोल खोलते हैं। पोल खुलती है सरकार को शर्मिंदगी नहीं होती, दुनिया की अन्य सरकारों की तरह वह भी बेशर्म हो जाती है। उसके सीने में सैकड़ों राज दफ़न हैं, एक-दो लीक हो जाए तो उसे फ़र्क नहीं पड़ता। आज़ाद देश की जनता और प्रेस को इतना जानने का हक़ होना भी चाहिए। जब प्रेस ब्रेकिंग न्यूज़ चलाती है तब मिनिस्टर फॉरेन टूर पर होते हैं, इसलिए बजट विभाग का नन्हा-सा प्यादा तटस्थ भाव से बयान जारी कर देता है। 'इतनी बड़ी डेमोक्रेसी है, छोटी-मोटी गलतियाँ होती रहती हैं। फिर, ये गलती हमारी गलती नहीं है। जब विरोधी पार्टी की सरकार थी तो उन्होंने यह गड़बड़ मारी थी। ये उनका ही किया-धरा है।’ सरकार पर दो ट्रिलियन डॉलर का कर्ज है, उसमें दस-बीस बिलियन बढ़ भी गए तो क्या! सरकार का सूत्र है - घर भाड़े, दुकान भाड़े, अपने बच्चे लड्डू झाड़े।</div><div><br /></div><div>सरकार का गणित सरकार जाने पर मैं अपने गणित से बहुत डरता हूँ। गणित में सर जी ने हमें इक्वेशन हल करना सिखाया था। कितनी भी कठिन समीकरण हो अंत में जा कर बराबर हो जाती थी। दस बराबर दस। असल ज़िंदगी में कभी कोई इक्वेशन बराबर नहीं हुई। मेरी इनकम का पलड़ा हमेशा ऊपर उठा रहा और ख़र्चे का पलड़ा नीचे झुका रहा। मैं इस दृश्य को एकटक देखता रहा हूँ। मेरी सरकार भी यही करती है, हमेशा घाटे में रहती है पर ढंग से खाती-पीती है और मौज करती है। दूध की कीमत एक डॉलर प्रति बैग बढ़ जाए तो सरकार डीज़ल की कीमत एक सेंट प्रति लीटर कम कर देती है। पोलिटिक्स, इकॉनॉमिक्स का कितना अच्छा बैंड बजा सकती है आप इस उदाहरण से समझ सकते हैं। आँकड़ों के ऐसे जादू-मंतर से वह तीन-चार साल तंदुरुस्त रह लेती है तो बाकी का जुगाड़ ऑटोमेटिक हो जाता है। मैं भी अपनी सरकार की घाटा नीति फॉलो करता हूँ। डेमोक्रेसी वाला प्रजातंत्र हो तो सब ऐसे ही ठाठ से रहते हैं। बड़ी-बड़ी घोषणाएँ फेंके जाओ, नए-नए नोट छापे जाओ और जी लो अपनी ज़िंदगी।</div><div><br /></div><div>सरकार की नकल करते-करते मेरा घाटा खूब बढ़ गया तो पिछले हफ़्ते मैंने हिसाब लगाया। मैं पैंतीस परसेंट इनकम टैक्स देता हूँ, तेरह प्रतिशत जीएसटी (एचएसटी), सात प्रतिशत से अधिक पेंशन प्लान में और छः प्रतिशत मैचिंग अंशदान सरकार को सौंप देता हूँ। घर के लोन पर तीस प्रतिशत ईएमआई और कार की लीज़ पर बारह प्रतिशत बैंक ले लेता है। इसके ऊपर प्रॉपर्टी टैक्स और हेल्थ प्रीमियम भी देता हूँ। आपका गणित अच्छा हो तो जोड़ लगाना और मुझे ख़र्चे का टोटल बताना, क्योंकि सरकार अब भी कह रही है जनता को पैसे बचाना चाहिए। आपका गणित मेरे जैसा या मेरी सरकार जैसा कमज़ोर हो तो हिसाब लगाने की ज़रूरत नहीं है। मेरी और मेरे देश दोनों की नियति घाटे में चलना है। खाने-पीने और कपड़ों का ख़र्च मैंने कभी अपनी जेब से दिया नहीं। ये सब ख़र्चे मेरे क्रेडिट कार्ड वाले देते हैं। मैं उनका मिनिमम पेमेंट करता रहता हूँ और वे लिमिट बढ़ाते रहते हैं।</div><div><br /></div><div>बावजूद इस सबके हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया की टॉप अर्थव्यवस्थाओं में गिनी जाती है। दिवालिया लोग हमेशा सोसायटी में टॉप माने जाते हैं। काम-धंधे न हों, सारे देश में बर्फ़ फैली हो तो भी शरणार्थियों के जत्थे के जत्थे हमारे देश में घुसे चले आते हैं। सरकार बाँहे फैलाए उनका स्वागत करती है और कहती है, चलो तुम हमारा वोट बैंक बढ़ाओ। कर्मचारी यूनियनें कहती हैं - ऐ सरकार तनख़्वाह बढ़ाओ। अस्पताल कहते हैं बिस्तरों की तादाद बढ़ाने के लिए पैसा दो। पुलिस और मिलेट्री वाले अपनी यूनिफार्म उतारने के बाद गोपनीय तरीके से सरकार से ज़्यादा पैसा मांगते हैं। स्कूल वाले खुले आम रोते-रोते कहते हैं और पैसा लाओ। सबको पैसा चाहिए। एक दोस्त ने मुझसे पूछा – ‘हम ख़ुद घाटा सह-सह कर इतना टैक्स देते हैं, ये सारा पैसा जाता कहाँ हैं। हमारी सरकार इतना टैक्स लेकर भी घाटे में चलती है।’ मैंने यही बात मिनिस्टर से पूछी। वे तब से हँस रहे हैं और हँसे जा रहे हैं। प्रजातंत्र में यही होता है, आम जनता और देश परिणाम भुगतते हैं और राजनेता ऐश करते हैं।</div><div><br /></div><span style="font-size: x-small;">(‘दिमाग़ वालो सावधान’ से साभार)</span><hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-31734604057320546342024-02-29T19:51:00.004-05:002024-02-29T23:22:31.424-05:00सूफ़ीवाद की चौहद्दी और जायसी<h3><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgceTQ3pGgWsbUKX4D1bqPx51iwSkCyG8S-1tfb07gv6J_rCBjEyGhnu8ktHOayNRXBdz9sKcRjJs_3-tVoHovHMApUmFNxvOen7REoOInOzSiJ8yorTan2Tz1Kd265ks-wIF2daoIqH_1lWUB6GPBowgvBe7SOCv_EByt3Uh0QbmbNw3r5c9OQDcJmHbU/s268/Prabhat-Upadhyay.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="268" data-original-width="232" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgceTQ3pGgWsbUKX4D1bqPx51iwSkCyG8S-1tfb07gv6J_rCBjEyGhnu8ktHOayNRXBdz9sKcRjJs_3-tVoHovHMApUmFNxvOen7REoOInOzSiJ8yorTan2Tz1Kd265ks-wIF2daoIqH_1lWUB6GPBowgvBe7SOCv_EByt3Uh0QbmbNw3r5c9OQDcJmHbU/w173-h200/Prabhat-Upadhyay.jpg" width="173" /></a></div>- प्रभात उपाध्याय</h3>
<span style="font-size: x-small;">व्याख्याता, हिंदी<br />
राजकीय इंटर कॉलेज, बरेली<br />
ईमेल: prabhatupadhyay30@gmail.com<br />
चलभाष: 9719971108<br />
</span>
<hr />
<br /><div><br />हिंदी साहित्य में भक्तिकाव्य एक तरफ साहित्य के इतिहास का प्रस्थान बिंदु है तो दूसरी तरफ साहित्य के चरमोत्कर्ष का भी युग है। ऐसे में यह जरूरी है कि उस युग की चिंतनशीलता को बार-बार परखा जाए। इस चिंतन क्रम में भक्तिकाल के प्रमुख कवियों (कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा) पर बहुत लंबी बहस चली है। इस बहस के केंद्र में कभी किसी की जाति रही है तो किसी का धर्म/संप्रदाय। लेकिन इस बहस के साथ एक अच्छी बात यह रही कि कुछ लोगों ने उनके काव्य को चिंतन का केंद्र बनाया। मलिक मुहम्मद जायसी की आलोचना इसी का परिणाम है। जायसी संबंधी आलोचना में आचार्य रामचंद्र शुक्ल को प्रस्थान बिंदु माना जाता है। आचार्य शुक्ल के बाद के अनेक आलोचकों ने जायसी पर काम किया है लेकिन उनकी आलोचना में कमोबेश आचार्य शुक्ल की बातों का ही दुहराव दिखाई पड़ता है। लेकिन विजयदेवनारायण साही ने अपने पूर्व की चिंतन पद्धति से अलग रास्ता अपनाया। जिस समय विजयदेवनारायण साही ने जायसी संबंधी अपना चिंतन प्रस्तुत किया था लगभग उसी समय वैश्विक चिंतन में फ्रांसीसी दार्शनिक जॉक देरिदा की चिंतन पद्धति ने हलचल मचा दी थी। यह वही समय है जब अंतर्पाठीयता (Intertextuality) की चर्चा जोरों पर थी। साही जी ने अपने समय के तथाकथित आलोचना के मानक से अलग समाजशास्त्रीय पद्धति का सहारा लिया। इस पद्धति के द्वारा उन्होंने जायसी के वंशावली (Genealogy) संबंधी विवेचन को केंद्र से निकालकर परिधि पर धकेल दिया तथा उनके काव्य-तत्व एवं रचना-कौशल को केंद्र में स्थापित करने का स्तुत्य प्रयास किया। <br /><br />जायसी संबंधी आलोचना में सबसे ज्यादा इस बात पर बल दिया गया कि, ‘वे एक सूफी कवि थे’। सूफ़ीवाद का घेरा उनके चारों तरफ गार्सा-द-तासी के समय से ही बरकरार है। यह घेरा तब और मजबूत हो गया जब हिंदी साहित्य में विधेयवादी आलोचकों ने उसे प्रामाणिक ठहराया। यह सूफीवाद का घेरा उनके चारों ओर एक ऐसा मजबूत शिकंजा की तरह बैठा दिया गया जिसे आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता था। चूंकि उस युग के सूफियों के कई ऐसे कार्य भी थे जिसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। जिस प्रकार ईसाई बहुल देशों में पादरियों की स्थिति मजबूत थी ठीक उसी प्रकार सूफियों की यहाँ थी। यह बात जगजाहिर है कि जायसी सूफी संप्रदाय से सम्बद्ध थे लेकिन उनके भीतर मौजूद तत्व को बने-बनाए मानदंड से बाहर निकलकर देखना होगा। प्रेमशंकर ने लिखा है कि, “जायसी सूफी संप्रदाय से सम्बद्ध थे, यह निर्विवाद है क्योंकि रचनाओं के भीतर उसके वैचारिक तत्व मौजूद हैं। इसी के साथ यह भी ध्यान में रखना होगा कि वे खेती-किसानी के व्यक्ति थे, जिस अनुभव का प्रयोग उन्होंने अपने काव्य में किया है। जायसी को केवल सूफी कवि के रूप में विवेचित करने से उनकी प्रतिभा के साथ पूर्ण न्याय नहीं हो पाता।”[1] यह स्वाभाविक ही है कि जब किसी कवि के काव्य को किसी विशेष संप्रदाय से जोड़कर देखा जाता है तब उस काव्य की उपेक्षा करके उनमें निहित संप्रदाय संबंधी बातों का उल्लेख सबसे अधिक किया जाता है। ऐसे में यह संभव है कि उस काव्य का मूल्यांकन दोषपूर्ण हो। इसलिए जायसी को सूफीवाद के चश्मे से देखने की बजाय उनकी कविता का मूल्यांकन निष्पक्ष भाव से करने की आवश्यकता है। <br /><br />जायसी के ‘पद्मावत’ की भाषा और उसकी कथा-योजना को ध्यान में रखते हुए साही जी ने उन्हें हिंदी का पहला व्यवस्थित कवि माना है। उन्होंने लिखा है कि, “एक अर्थ में जायसी हिंदी के पहले विधिवत कवि हैं। मैं यह नहीं कहता कि कबीरदास ने कविता के द्वारा एक अत्यंत कठिन समय में अभिव्यक्ति की समर्थ और शक्तिशाली राह नहीं बनाई। कबीरदास के पथ-प्रदर्शन और क्षमता के बिना शायद जायसी के लिए ‘पद्मावत’ को लिख पाना भी संभव न हो पाता। परंतु कबीर अपनी प्रतिभा के सहारे भाषा को ठेल - ठेलकर आगे बढ़ाते हैं। उनकी कविता में इस प्रयास के चिह्न बराबर दिखते हैं। लेकिन जायसी में पहली बार हिंदी भाषा सहज काव्य-प्रवाह में बहने लगती है। हिंदी का अवधी रूप, जिसे जायसी ने अपने काव्य-माध्यम के लिए चुना, समूचा-का-समूचा काव्यमय हो जाता है। कवि का प्रयास कहीं दिखता नहीं। लगता है कि समूची अवधी भाषा कविता ही है जो जायसी की कलम से अपना स्वरूप ग्रहण करती चलती है।”[2] जायसी के इस प्रयास के बाद अवधी में सबसे बड़ा प्रबंध काव्य ‘रामचरितमानस’ लिखा गया। यह जायसी की बड़ी देन है कि आगे के लगभग सभी प्रमुख कवियों ने उनकी शैली एवं काव्य-विधान को अपनाया। भक्तिकाल में रामभक्ति-शाखा तक केवल अवधी में ही साहित्य रचा गया। जायसी की कविता का संबंध केवल ‘इश्क हक़ीक़ी’ और ‘इश्क मजाज़ी’ तक ही नहीं है। उनको कवि के रूप में देखने अथवा उनकी कविता का समाजशास्त्रीय विवेचन करने की पद्धति पर विजयदेवनारायण साही जी ने सर्वाधिक बल दिया है। जायसी ने अपने कवि होने का प्रमाण कई जगह दिया है। ‘पद्मावत’ के ‘स्तुति खंड’ में उन्होंने लिखा है – <br /><br />“एक नयन कवि मुहम्मद गुनी। सोई विमोह जेहि कवि सुनी ॥ <br /><br />अथवा <br /><br />चार मीत कवि मुहम्मद पाए। जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥ <br /><br />अथवा <br /><br />जायस नगर धरम अस्थानु। तहाँ आई कवि कीन्ह बखानू।। <br />औ बिनती पंडितन भजा। टूट संवारहु, नेरवहु सजा ॥ <br />हौं पंडितन केर पछलगा। किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥ <br /><br />अथवा <br /><br />मुहमद कवि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु। <br />जेइ मुख देखा तेइ हँसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥ <br /><br />अथवा <br /><br />कवि बियास कँवला रस पूरी। दूरी जो नियर, नियर सो दूरी ॥ <br />नियरे दूर फूल जस काँटा। दूरि जो नियरे, जस गुड़ चाँटा ॥”[3]<br /><br />जायसी की ये पंक्तियाँ उनके सचेत कवि होने की सूचना देती हैं। कवि सगर्व घोषित कर रहा है कि मैं विरह का कवि हूँ, मेरी कविता को जो भी पढ़ेगा वह रो देगा। जायसी ने जिस बात पर सबसे अधिक बल दिया वह है ‘सुनि तेहि आयउ आंसु’। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि, आधुनिक युग का विख्यात कवि पी. बी. शेली ने भी इसी बात पर बल दिया है, “हमारे सबसे सुंदर और मधुर गीत वो हैं जो दुःख की घड़ी में लिखे गए हैं अथवा विरह वेदना को व्यक्त करते हैं।”[4] तब जायसी का यह उस समय में कहना कितना प्रासंगिक होगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। <br /><br /> मलिक मुहम्मद जायसी की विचारधारा और उनकी चिंतन पद्धति को लेकर काफी लंबी बहस चली है। इस बहस का आधार भी सूफी संबंधी चिंतन को लेकर ही है। इतिहासकार सतीशचंद्र ने ‘दक्षिण एशिया में भक्ति और सूफी आंदोलनों का प्रभाव’ की चर्चा करते हुए सूफियों की चिंतन पद्धति और उनकी प्रतिबद्धता के विषय में लिखा है कि, “सूफियों में से लोकप्रिय वे सूफी थे जिन्होंने ‘सिलसिला’ के माध्यम से सिद्धान्त अथवा आचरण की किसी विचारधारा को संगठित नहीं किया था और जो अक्सर तुलनात्मक रूप से दूर-दराज के देहाती इलाकों (क़सबों) और गाँवों में रहते थे और उस क्षेत्र के लोगों की भाषा, मुहावरों और रीति-रिवाजों को भी अपनाकर उनसे संवाद कायम करते हैं।”[5] साहित्य में वही व्यक्ति अपना वजूद कायम रख सका है जो सत्ता के मोह-माया से विरत है। यही कारण है कि रीतिकालीन कवियों की चर्चा बहुत कम होती है जबकि उससे पहले के भक्तिकालीन कवियों को साहित्य का प्रस्थानबिंदु माना जाता है। जायसी के संबंध में भी कुछ ऐसी ही स्थिति की चर्चा मिलती है। विजय देव नारायण साही ने जायसी को सूफीवाद के घेरे से निकालने का भरपूर प्रयास किया है। उन्होंने लिखा है कि, “इतना तो कहा ही जा सकता है कि जायसी यदि सूफी थे भी, तो न सरकारी सूफी थे, न मठी। अगर डॉक्टर लोहिया की शब्दावली का इस्तेमाल करें तो कुजात सूफी रहे हों, तो हों।”[6] साही जी ने सूफियों की तीन श्रेणी बनाई है – </div><div>1. सरकारी सूफी, 2. मठी सूफी और 3. कुजात सूफी। <br /><br />मध्यकालीन समाज-व्यवस्था में जायसी जैसे कवि का उद्भव एक नई घटना थी। इन्होंने लोक में व्याप्त कथानकों के माध्यम से जनता के दुःख-दर्द को को आधार बना कर अपना महाकाव्य लिखा। विजयदेव नारायण साही ने कबीर की शब्दावली से इनकी तुलना की है। उन्होंने लिखा है कि, “कबीर की शब्दावली चूंकि हिन्दू-तुरक, दोनों को काटती है, अतः उसमें अर्थ के फैलने की तुलना में एक नए संप्रदाय और फलतः नयी रूढ़ पारिभाषिक शब्दावली के निर्मित होने की संभावना अधिक है। कबीरदास में शब्दावली का विद्रोह है और नए संदर्भों की खोज है। जायसी में शब्दावली की अद्भुत स्थानांतरणशीलता है और द्विधा भक्त संदर्भों को एक कर देने की क्षमता है।”[7] यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है कि ‘जायसी ग्रंथावली’ के आरंभिक अध्याय ‘मलिक मुहम्मद जायसी’ को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसी बात से आरंभ किया है। उनकी भी चिंता कुछ इसी तरह की थी। उन्होंने लिखा है कि, “सौ वर्ष पूर्व कबीरदास हिन्दू और मुसलमान दोनों के कट्टरपन को फटकार चुके थे। पंडितों और मुल्लाओं की तो नहीं कह सकते पर साधारण जनता ‘राम और रहीम’ की एकता मान चुकी थी। साधुओं और फकीरों को दोनों दीन के लोग आदर की दृष्टि से देखते थे।”[8] तात्पर्य यह है कि लोग कबीरदास की बानी को बहुत सुन चुके थे। उनके भीतर एक तरह से सहिष्णुता का भाव पैदा हो गया था। ऐसे समय में ही जायसी के होने की जानकारी मिलती है। <br /><br />मध्यकालीन कवियों ने अपने विषय में बहुत कुछ नहीं लिखा है। कहीं-कहीं इसके छिट-पुट प्रयास दिखाई देते हैं लेकिन उनके भीतर अपनी कविता के उद्देश्य और कवि होने का एहसास पूर्ण रूप में विद्यमान है। आधुनिक कविता में कविता का उद्देश्य प्रायः सिरे से गायब रहता है। फिर भी मध्यकालीन कवियों के भीतर इस व्यक्तित्व को लेकर कहीं घमंड मौजूद नहीं है। साही जी ने इसी बात का आभास जायसी में पाया है। उन्होंने लिखा है कि, “अपने कवि व्यक्तित्व का बारंबार उद्घोष, कवि सुलभ गर्वोक्तियाँ, विविध मित्रों की मंडली, पास के लोगों द्वारा जायसी की प्रतिभा का अनभिज्ञान, आहत स्वाभिमान की यत्किंचित झलक और ‘आखिरी कलाम’ में संकेतित विचित्र अनुभव, समकालीन या परवर्ती सूचियों में जायसी का कहीं उल्लेख भी न होना – ये साक्ष्य केवल एक ही अनुमान हमारे लिए संभव छोड़ते हैं कि जायसी का व्यक्तित्व एक सामान्य किन्तु भावप्रवण मनुष्य, दिल मिलाने वाले दोस्त और अत्यंत प्रतिभाशाली कल्पनाशील और बौद्धिक कवि का है, सूफी संत का बैरागी बाबा का नहीं।”[9] जायसी की कविता किसी संत या पहुंचे हुए फकीर की अभिव्यक्ति नहीं लगती है। यह किसी चिंतनशील तथा हृदयग्राही व्यक्ति की रचना लगती है। जिसे लोक की समझ नहीं होगी वह इस तरह का काव्य नहीं रचा पाएगा। <br /><br />भक्तिकाव्य पर जिन विद्वानों ने विचार किया उनमें से अधिक लोगों ने जायसी को सिद्ध फकीर ही माना है। डॉ. मुंशीराम शर्मा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भक्ति का विकास’ में जायसी संबंधी चिंतन प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि, “जायसी सिद्ध फकीर थे। हिन्दू संतों से भी इन्होंने बहुत कुछ ग्रहण किया। अद्वैतवाद की झलक तो इनके प्रत्येक ग्रंथ से प्रकट हो रही है।”[10] यह कहीं न कहीं आचार्य रामचंद्र शुक्ल के चिंतन का विकासक्रम है। इसी चिंतन पद्धति के मानकीकृत रूप को तोड़ने की बात विजयदेव नारायण साही ने कही है। आलोचना के स्वरूप को इस विकासक्रम के माध्यम से समझा जा सकता है। साही जी ने लिखा है कि, “वे (जायसी) दुहरे अन्याय और उपेक्षा के शिकार भी हुए हैं। विडम्बना यह है कि सोलहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक जब दिल्ली और मुगल साम्राज्य में तसव्वुफ़ और विभिन्न सूफी संप्रदायों का बोलबाला था, तब जायसी की उपेक्षा इस कारण हुई कि वे सूफी या किसी अन्य संप्रदाय में प्रतिबद्ध नहीं दिखते थे और बीसवीं शताब्दी में जब तसव्वुफ़ का महात्म्य नगण्य होने लगा तब जायसी सूफी घोषित कर दिए गए और धीरे-धीरे केवल भाषा संबंधी शोधकर्ताओं, जायसी विशेषज्ञों और प्राचीन संप्रदायों में रमने वाले अध्यापकों के लिए पुराने दस्तावेज़ की तरह रह गए।”[11] अब तो स्थिति यह हो गई है कि भक्तिकालीन साहित्य में केवल कबीर के अलावा जो कवि अस्मितावादी विमर्श के करीब नजर आते हैं उसी के साहित्य का अध्ययन और मनन किया जा रहा है। यह कितनी दुःखद बात है कि उसी युग के अन्य कवि केंद्र में दिखाई पड़ते हैं जबकि जायसी में सम्पूर्ण साहित्यिकता (literariness) होने के बावजूद भी वे परिधि पर ही मौजूद रहते हैं। उनको सूफ़ीवाद के दायरे में बांधने के लिए उनकी एक पंक्ति को बारंबार उद्घृत किया जाता है। हालांकि उस पंक्ति को आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद के आलोचकों ने प्रक्षिप्त माना है। वह पंक्ति है – <br /><br />“तन चितउर मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल बुधि पदमावती चीन्हा ॥ <br />गुरु सुआ जेइ पंथ देखावा। बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा ॥ <br />नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोई न एहि चित बंधा ॥ <br />राघव दूत सोइ सैतानू। माया अलाउदीं सुलतानू ॥ <br />प्रेम कथा एहि भाँति बिचारहु। बूझि लेहु जौ बूझै पारहु ॥”[12]<br /><br />यही एक ऐसी चाबी है जिसके सहारे जायसी के ‘पद्मावत’ को सूफीकाव्य कहा गया है। शुक्लोत्तर जायसी ग्रंथावली के संपादकों ने इस समूचे कड़वक को प्रक्षिप्त माना है तथा इसका उल्लेख भी नहीं किया है। इसकी अंतिम पंक्ति में यह बातें कही गयी हैं कि इस प्रेम को जो इस पद्धति से समझेगा वही इसका मर्म समझ पाएगा। कविता के साथ एक दुर्घटना कही जाएगी कि कोई कवि कम से कम अपनी कविता को समझने के लिए अपनी तरफ से कोई दृष्टि नहीं देता है। किसी कविता को समझने के लिए जो दृष्टि विकसित की जाती है वह किसी टीकाकार अथवा आलोचक द्वारा ही विकसित की जाती है। इस तरह के ऊहापोह वाली स्थिति से निकलने के लिए विजयदेव नारायण साही ने दो रास्ते सुझाए हैं। उन्होंने लिखा है कि, “या तो जायसी को सतर्क कवि मानकर पूरी कथा को इस तरह पढ़ा जाए कि समूचे कृतित्व की एकता खंडित न हो और यत्र-तत्र बिखरे हुए तसव्वुफ़ की झलकियों को अंशी न मान कर अंश ही माना जाए, या यह समझा जाए कि जायसी का मूल कथ्य सूफीवाद है, लेकिन कविता लिखते समय वे बह गए और जो करने चले थे, न कर सके।”[13] ज़ोर इसी बात पर है कि उन्होंने कविता बहुत अच्छी लिखी है, सिद्धांत कुछ पीछे छूट गया है। यह एक विश्वसनीय तथ्य है कि जायसी का जुड़ाव आंशिक ही सही लेकिन सूफी-दर्शन से था। इसे एकदम सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है। लेकिन कविता की प्रबलता उनके सूफीवाद को गौण बना देती हैं। <br /><br />भक्तिकाव्य के मूल्यांकन की अनेक पद्धतियाँ मौजूद हैं। इन पद्धतियों में समाजशास्त्रीय पद्धति की चर्चा बहुत ज़ोरों पर रही है। इसके माध्यम से कवि व्यक्तित्व से ज्यादा कवि-कृतित्व का मूल्यांकन किया गया है। विजयदेव नारायण साही ने इसी पद्धति के सहारे जायसी के काव्य का मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। इस मूल्यांकन में उन्होंने जिस बात पर सर्वाधिक बल दिया, वह है जायसी के दर्शन-पक्ष को गौण मानकर उनके कवि-व्यक्तित्व की विवेचना करना। उन्होंने लिखा है कि, “जायसी एक आत्मसजग, आत्म-विश्वासी और अत्यंत संवेदनशील कवि थे एक सशक्त, किन्तु अलीक विचारक थे। उनकी अनुभूतियों में वह गहरी तीव्रता थी जो सृजनशीलता को मनुष्य के प्राणतत्व से जोड़ती है। इसकी संभावना बहुत कम है कि वे साधु बाबा या सूफी फकीर भी रहे हों, बल्कि जो भी संकेत मिलते हैं, वे इस संभावना के विरुद्ध जाते हैं। यह भी संभव है कि जायसी न केवल किसी मठ से नहीं जुड़े, बल्कि किसी दरबार से भी नहीं जुड़े। इसके कारण उन्हें उपेक्षा और संभवतः गलतफहमी का भी शिकार होना पड़ा।”[14] जायसी सहित सभी भक्तिकालीन कवियों में दरबार का निषेध दिखाई पड़ता है। उस युग के प्रमुख कवियों ने दरबार के प्रति अपनी उपेक्षा ही दिखाई है। उनकी दृष्टि में वह शोषण का केंद्र था जो गरीबों तथा किसानों को अपना निवाला बनाता था। ऐसे राजा से उनका कोई सरोकार नहीं था। <br /><br /> भक्तिकाव्य में जायसी सांस्कृतिक समन्वय के प्रतीक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। जायसी की प्रेम कल्पना, आध्यात्मिक संकेत, रहस्यवादी दृष्टि का आधार भले ही सूफी दर्शन हो लेकिन उसकी प्रकृति लोकोन्मुख है। पात्रों को सहज मानवीय भूमि पर उतारकर उनका चित्रण करने के मूल में जायसी की सांस्कृतिक चेतना निश्चित रूप से सक्रिय है। वह न तो ज्ञानी और पंडित होने का दावा ही करते हैं और न ही शास्त्र की दुहाई देते हैं। उन्होंने तो केवल प्रेम के मार्ग का अनुसरण किया है जिसके सहारे उस युग के आम जनमानस के दुःख और वेदना को अभिव्यक्ति मिली है। यदि साहित्य केवल अपने समय का कोरा अनुवाद नहीं होता है तो जायसी के काव्य में अभिव्यक्त सांकेतिकता को लक्षित किया जा सकता है, जहाँ सीधा-सीधा तो कुछ नहीं मिलता लेकिन उसे पुनः अलग ढंग से निर्कूट करने पर उसका एक नया अर्थ खुलता है। जायसी के काव्य में मौजूद लोक तथा उसकी संवेदन क्षमता बहुत व्यापक है। यह किसी सूफी बाबा अथवा फकीर के लिए संभव नहीं है कि वह किसी लोक संस्कारों का इतनी गहराई से ज्ञान रखता हो। इसका ज्ञान उसे ही हो सकता है जो इसके भौतिक धरातल पर जुड़ा हुआ हो। ग्राम जीवन, विशेषतया किसानों और दासों के जीवन को उन्होंने निकट से देखा था, क्योंकि गाँव के असंख्य दृश्य संकेत उनके यहाँ मौजूद है। किसान जीवन किसी बाबा अथवा संत के समझ से बाहर की वस्तु है। मध्यकालीन कृषक वर्ग की स्थितियों का वर्णन करते हुए डॉ. इरफान हबीब ने लिखा है कि, “कृषक वर्ग पर वास्तविक बोझ इतना अधिक हो जाता था कि उनके जीवन जीने के साधनों में भी हस्तक्षेप होने लगता था। किसान, जिनके पास अलग से कोई संपत्ति नहीं थी, से इतनी बड़ी मात्रा में राजस्व वसूली की प्रक्रिया परिष्कृत नहीं हो सकती थी। रैयत जब मालगुजारी नहीं अदा कर पाते थे तो उन्हें बुरी तरह से मारा-पीटा जाता था और उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता था। यह कह कर कि मेरे पास धन नहीं है, कर भुगतान करने से किसान मना कर देते थे। इसके विरुद्ध सजा और प्रताड़ना काफी कठोर थी। और भूखे प्यासे भी रखा जाता था। इस यातना से कभी-कभी वे मर भी जाते थे। लेकिन इसके बाद भी उन्हें कोई राहत नहीं प्रदान की जाती थी।”[15] कृषक वर्ग की ऐसी स्थिति को देखकर किसी सूफी बाबा या फकीर का हृदय द्रवित हो या न हो एक सामान्य अथवा संवेदनशील कवि का हृदय तो जरूर द्रवित होगा। इसी कारण जायसी की मूल चिंता उसी वर्ग की थी जिसमें किसान, शिल्पी तथा अन्य लोग शामिल हैं। <br /><br /> जायसी के भीतर व्याप्त संवेदनशीलता को विजयदेव नारायण साही ने ठीक ढंग से पहचाना है। जायसी को जिस घेरे से बार-बार निकालने के लिए वे कह रहे हैं वह सिद्धान्त का घेरा है। इस घेरे से निकालकर उन्हें लोक - मानस की भाव-भूमि पर प्रतिष्ठापित करने का प्रयास ही समाजशास्त्रीय आलोचना की मांग है। उन्होंने लिखा है कि, “किसी एक तथाकथित गुह्य साधना को जायसी के मत्थे मढ़ देना जायसी की आंतरिकता को एक ऐसे खूँटे से बांध देना होगा जिससे बंधने के लिए जायसी तैयार नहीं हैं।”[16] जायसी के काव्य पर सूफ़ीवाद के प्रभाव को खारिज नहीं किया जा सकता है लेकिन ‘पद्मावत’ और जायसी का लेखन केवल सूफीवाद की अभिव्यक्ति है यह स्वीकार भी नहीं किया जा सकता। <br /><br /> विजयदेवनारायण साही ने ‘पद्मावत’ को एक महाकाव्यात्मक त्रासदी की संज्ञा दी है। त्रासदी की सर्वमान्य व्याख्या दुखांतक के रूप में बताई जाती है। लेकिन यह दुखांत क्या केवल रत्नसेन, अलाउद्दीन, नागमती और पद्मावती तक ही सीमित है? इस दुखांत को साही जी ने विभिन्न परिप्रेक्ष्य में देखा है। उन्होंने लिखा है कि, “पद्मावत की कथा केवल अलाउद्दीन, रत्नसेन और पद्मिनी की व्यक्तिगत ट्रेजडी नहीं है – जिन शर्तों पर जायसी का समाज उलट-पुलट रहा है, उनके चलते समूची पृथ्वी के झूठी पड़ जाने की ट्रेजडी है।”[17] यह वही समाज है जहाँ न कोई किसान सुखी हैं और न ही कोई शिल्पी। ऐसे समाज की सामाजिक संरचना का क्या महत्त्व है जहाँ किसी विशेष तबका को ही सारी सुविधाएं प्राप्त हो तथा अन्य सभी रोटी के लिए तरसते हों। ‘पद्मावत’ की इस ट्रेजडी को साही जी ने विभिन्न स्तरों पर परिलक्षित किया है। उन्होंने लिखा है कि, “प्रेम की कसौटी पर उन्होंने अपने युग को कसा और उनकी अनुभूति में वह गहरी विषाद दृष्टि उत्पन्न हुई जिसमें एक तरफ आदमी बैकुंठ भी हो जाता है, दूसरी तरफ एक मुट्ठी खाक भी रह जाता है। ‘पद्मावत’ की ट्रेजडी इन दोनों अवस्थाओं में एक साथ प्रज्वलित हो जाने की ट्रेजडी है। जितना प्रेम है उतना ही युद्ध है; जितना मन के भीतर दीपता हुआ सिंहल लोक है, उतना ही टूटे हुए दुर्गों की धूल उड़ती हुई विरानगी है ; जितनी अपने हाथ में सिर उतारकर जमीन पर रख देने की तड़प है उतना ही वैभव का प्रदर्शन है ; सत है, साका है।”[18] ‘पद्मावत’ के विषाद/ दुखांत दृष्टिकोण की विवेचना केवल एक आधार पर नहीं हो सकती है। इसके विभिन्न स्वरूपों की चर्चा से इसके व्यापकत्व का पता चलता है। <br /><br /> जायसी ने अपने समय में प्रचलित कर्मकांड में लिप्त व्यक्तियों का मखौल उड़ाया है। यह उस युग के लिए कोई साधारण घटना नहीं थी। जायसी से पहले कबीर ने पंडे-पुरोहितों और मुल्लों पर इसी तरह से तंज़ कसा था। इसी का उत्तरोत्तर विकास जायसी के यहाँ दृष्टिगोचर होता है। जायसी की चिंतन पद्धति को किसी एक खेमे में बांधकर देखना अन्यायपूर्ण होगा। साहित्यकार अपने समाज का सबसे संवेदनशील व्यक्ति होता है। जायसी इसके अपवाद नहीं हैं। उनके यहाँ एक तरफ अध्यात्म का बोलबाला है तो दूसरी तरफ भौतिकवादी चेतना का। इन दोनों दृष्टियों के समन्वय के आधार पर उनका चिंतन विकसित होता है। यह अध्यात्म और भौतिकता आपस में इतने उलझे हुए हैं कि इसे सुलझा पाना संभव नहीं है। यह किसी सामान्य कवि के बस की बात नहीं है कि इतना जोखिम भरा कार्य कर सके। लेकिन जायसी ने यह काम अपने ढंग से किया है। उन्होंने जिस तरह से धार्मिक पाखंड को उजागर किया, उसकी आलोचना की, वह कोई सामान्य बात नहीं है। उन्हें केवल सूफी कवि मान लेने से खतरा बढ़ जाता है और उन्हें सूफ़ीवाद से अलग करते ही उनके अस्तित्व का धुंधला संकट दिखाई पड़ता है। लेकिन उनके काव्य को केंद्र में रखकर मूल्यांकन करने पर निस्संदेह उनकी कांति बढ़ जाती है।
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0in;"><span face=""Kokila",sans-serif" style="font-size: 16pt; line-height: 115%;"> </span></p>
संदर्भ:<br /><br /><span style="font-size: x-small;">[1] भक्ति काव्य का समाजदर्शन – प्रेमशंकर, पृष्ठ संख्या 111, सं. – 2000, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली <br />[2] जायसी – विजयदेवनारायण साही, पृष्ठ संख्या 1, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[3] जायसी ग्रंथावली – आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ संख्या 195, सं. – 2012, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद <br />[4] We look before and after, <br />And pine for what is not: <br />Our sincerest laughter <br />With some pain is fraught; <br />Our sweetest songs are those that tell of saddest thought. <br />- PERCY BYSSHE SHELLEY <br />[5] मध्यकालीन भारत में इतिहास लेखन, धर्म और राज्य का स्वरूप – सतीशचंद्र, पृष्ठ संख्या 104, सं. – 2013, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली <br />[6] जायसी – विजयदेवनारायण साही, पृष्ठ संख्या 5, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[7] जायसी – विजयदेवनारायण साही, पृष्ठ संख्या 13, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[8] जायसी ग्रंथावली – सं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ संख्या 17, सं. – 2012, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद <br />[9] जायसी – विजयदेवनारायण साही, पृष्ठ संख्या 22, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[10] भक्ति काव्य का विकास (वैदिक भक्ति एवं भागवत भक्ति तथा हिन्दी के भक्तिकालीन काव्य में उसकी अभिव्यक्ति) – डॉ. मुंशीराम शर्मा, पृष्ठ संख्या 462, सं. – 1979, चौखंभा विद्याभवन प्रकाशन, वाराणसी <br />[11] जायसी – विजयदेवनारायण साही, पृष्ठ संख्या 23, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[12] जायसी ग्रंथावली – सं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ संख्या 462, सं. – 2012, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद <br />[13] जायसी – विजयदेव नारायण साही, पृष्ठ संख्या 29, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[14] जायसी – विजयदेव नारायण साही, पृष्ठ संख्या 40, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[15] भारतीय इतिहास में मध्यकाल – इरफान हबीब, पृष्ठ संख्या 257, सं. – 2013, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन , नई दिल्ली <br />[16] जायसी – विजयदेवनारायण साही, पृष्ठ संख्या 77, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[17] जायसी – विजयदेवनारायण साही, पृष्ठ संख्या 88, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद <br />[18] जायसी – विजयदेवनारायण साही, पृष्ठ संख्या 89, सं. – 2012, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद </span><hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-17826347512570933152024-02-29T17:13:00.005-05:002024-02-29T23:22:31.249-05:00कविता: बेबसी<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2018/12/Author-Sudhir-Kewaliya.html"><img border="0" data-original-height="316" data-original-width="241" height="200" src="https://1.bp.blogspot.com/-GtJfLWSWenA/XCjvzueyJ5I/AAAAAAAALUs/MM5Msjg1_Y0hgd994Bmzzmg1646uu_zvgCLcBGAs/s200/Sudhir-Kewaliya_Setu.jpg" width="151" /></a></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.setumag.com/2018/12/Author-Sudhir-Kewaliya.html">सुधीर केवलिया</a></td></tr>
</tbody></table><div>ठूंठ में तब्दील होता</div><div>सामने का दरख़्त</div><div>गवाह रहा है</div><div>कभी घर रहे मेरे मकान में</div><div>मेरी ज़िन्दगी के सफ़र का</div><div><br /></div><div>गुलज़ार था चमन</div><div>जिस दरख़्त के नूर से कभी</div><div>वह बेबस खामोश खड़ा आज</div><div>देख रहा है अपनी शाख से</div><div>गिरते आखिरी पत्ते को</div><div><br /></div><div>मैं भी खामोश हूँ</div><div>मकान से दूर जाती</div><div>अपनों की गाड़ी की आवाज़</div><div>अहसास करा रही है</div><div>मौजूदगी का उनकी खामोशी में</div><div><br /></div><div>गुजरते वक़्त के साथ</div><div>मैं भी ठूंठ की तरह हो गया हूं</div><div>अपने सभी</div><div>एक-एक कर दूर हो गये हैं</div><div>छोड़कर तन्हा मुझे</div><div><br /></div><div>साथ देने को मेरा</div><div>आज भी मौजूद हैं इस मकान में</div><div>अपनों की बिखरी यादें</div><div>याद दिलाने को</div><div>कभी उसके घर होने का</div><div><br /></div><div>आज जाने क्यों</div><div>ठूंठ के नीचे खड़े</div><div>ढुलक गया मेरी आँख से</div><div>आँसू का एक कतरा</div><div>आज तक संभाले रखा था जिसे</div><div><br /></div><div>शायद</div><div>देखकर</div><div>मेरी और दरख़्त की</div><div>अपनी-अपनी</div>बेबसी और बेकसी...<hr />
<div style="text-align: right;">
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</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-73635975789538105882024-02-29T16:55:00.003-05:002024-02-29T23:22:31.784-05:00काव्य: अनित्य का अंश<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-i-ImtbBF9Ek/YBc7c1-kSXI/AAAAAAAAQic/OcTn-tmobt4zVi05xoa3oCxFcA7Zwsr9wCLcBGAsYHQ/s316/Arun-Kumar-Prasad.png" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="316" data-original-width="248" height="200" src="https://1.bp.blogspot.com/-i-ImtbBF9Ek/YBc7c1-kSXI/AAAAAAAAQic/OcTn-tmobt4zVi05xoa3oCxFcA7Zwsr9wCLcBGAsYHQ/w157-h200/Arun-Kumar-Prasad.png" width="157" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अरुण कुमार प्रसाद</td></tr></tbody></table>
<span style="font-family: Ranga; font-size: x-small;">स्नातक (यांत्रिक अभियांत्रिकी)। कोल इण्डिया लिमिटेड में प्राय: 34 वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्यरत, अब सेवानिवृत्त।<br />साहित्यिक आत्मकथ्य: सन् 1960 में सातवीं से लिखने की प्रक्रिया चल रही है, सैकड़ों रचनाएँ हैं, लिखता हूँ जितना, प्रकाशित नहीं हूँ - यदा कदा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ हूँ।</span><hr /><br /><div>अनित्य का विश्व, आत्मा से आच्छादित? </div><div>चेतना शून्य देह से चैतन्य देह आभासित?</div><div>उस चेतना की आकांक्षाएं, और अदम्य इच्छाएँ?</div><div>कृष्ण का अर्जुन से छल करती हुई भावनाएँ-</div><div>"सब मृत है या मरेगा तेरे वाण से नहीं तो मेरी माया से।</div><div>योद्धा होने का गर्व और गौरव प्राप्त करने हेतु </div><div>विध्वंस करो हे! अर्जुन, मेरे प्रिय मित्र।"</div><div><br /></div><div>"हे पृथापुत्र, जीवन में युद्ध ही सर्वोपरि है</div><div>श्रम सम्पादन से कितना गढ़ लोगे धान्य-धन।</div><div>अर्थ होगा तो “अर्थ” होगा तुम्हारा </div><div>युद्ध में विजय देगी तुम्हें काम की क्रिया, मोक्ष का स्वर्ग, </div><div>माया का सुख, मोह की प्रसन्नता, अहंकार का अहम्।</div><div>सत्य यही है हे पार्थ, </div><div>सत्ता इसी की है और यही है जीवन का तार्किक तत्व।"</div><div><br /></div><div>“हे अर्जुन, दृश्य जगत है नाशरहित </div><div>क्योंकि सर्व व्यापक आत्मा है स्थित।</div><div>अजन्मे आत्मतत्व से आलोकित है सर्वस्व </div><div>अत: नित्य है, अत: है अमर, अत: तू युद्ध कर</div><div>क्योंकि, तेरे मारने से नहीं मरेगा यह हे गांडीवधारी अर्जुन।</div><div>संचित ऐश्वर्य और विजित राष्ट्र अनायास उपलब्ध होगा </div><div>इसलिए युद्ध कर।”</div><div><br /></div><div>“प्रकाश या प्रकाश की अनुभूति जीवन में </div><div>आत्मा का पर्याय है।</div><div>यह प्रकाश न नष्ट होता है न ही सृजित </div><div>स्वरूप बदलता है मात्र</div><div>अत: इसका न कोई हन्ता है न जनक।</div><div>तदनुसार कालचक्र से परे निरंतर व सनातन है यह आत्मा।</div><div>यह रहस्यमय ज्ञान है </div><div>अत: तू ऐसा जान और युद्ध कर।”</div><div><br /></div><div>“आत्मा गंध हीन, रंग हीन, स्पर्श हीन, निःस्वर, स्वाद हीन, </div><div>निराकार, और अतप्त तथा अव्यक्त है हे अर्जुन, </div><div>किन्तु, सत्ता तो इसकी अवश्य है चाहे, पारदर्शी हो।</div><div>मानो कि तुम इसे जन्म वाला व मृत्यु वाला मानते हो </div><div>तब भी </div><div>मृत्यु के पश्चात् यह ग्रहण करेगा प्रादुर्भाव।</div><div>जिसका पुनर्जन्म होना ही है व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु</div><div>उसे नष्ट कर देने से किसी पुन्य का क्षरण तो होता नहीं।</div><div>अत: तीव्रतम गति और बल व संकल्प के साथ </div><div>अपने धर्म का पालन करने हेतु युद्ध कर।”</div><div><br /></div><div>“क्या तुम स्वयं की मृत्यु से भयाक्रांत हो या परिजनों के?</div><div>मृत्यु अर्थात संरचना का होना नष्ट शाश्वत सत्य है हे पार्थ, </div><div>आत्मा के सन्दर्भ में यह गूढ़ तथ्य तेरा अज्ञान दूर करे!</div><div>अब मैं कर्म के तथ्यों को स्पष्ट करने हेतु उद्धत हूँ</div><div>तू भी अपने सम्पूर्ण चेतना सहित उद्धत हो जा अर्जुन।”</div><div><br /></div><div>“परमात्मा निश्चित मन व बुद्धि वाले का लक्ष्य है</div><div>अनिश्चित मन वाले स्वर्ग के सुख से पीड़ित हैं।</div><div>ऐश्वर्य में सुख चाहने वाले फल रूपी क्रिया में </div><div>अपने मन व बुद्धि को स्थिर और आसक्त करते रहते हैं।</div><div>वेद कर्मकाण्ड द्वारा फलरूप क्रिया का सम्पादक है।</div><div>आसक्ति विहीन होकर तुम हर्ष, शोक, द्वंद्व, क्षेम रहित हो जा </div><div>स्वयं की अनुभूति कर और निष्काम कर्म में </div><div>स्वयं के अस्तित्व को उपस्थित कर।</div><div>इस युद्ध में इस हेतु व्यर्थ व्यामोह में योजित न कर</div><div>अपनी सम्पूर्णता से, एकाग्रता से शत्रु के विरुद्ध शस्त्र उठा।”</div><div><br /></div><div>“वेद में विद्वानों का प्रयोजन दीर्घ से ह्रस्व हो जाता है</div><div>जब वेदग्य प्राणी वेद-तत्व को भली-भांति जान लेता है।</div><div>हर ज्ञान का प्रयोजन ब्रह्म को जानने हेतु ही सृजित हुआ है।</div><div>ब्रह्मतत्व के साक्षात्कार के बाद प्राणी सत्य जान जाता है। </div><div>हे अर्जुन, ज्ञानवान प्राणियों को कर्म करने में ही आनन्द है </div><div>ब्रह्म से साक्षात्कार के बाद वह </div><div>कर्मफल से निरासक्त हो जाता है।</div><div>अत: तुम निष्काम भाव से कर्म तो करो</div><div>क्योंकि ज्ञान से युक्त हो </div><div>किन्तु, उसके परिणाम में आसक्ति न रखो यह कर्म का धर्म है।</div><div>कर्म की सिद्धि अथवा असिद्धि से अनासक्त हुआ प्राणी ही </div><div>सकाम और अकाम से विरक्त हुआ प्राणी ही</div><div>वस्तुत: कर्मयोगी है, </div><div>अत: फल से परे अपने प्रयास पर सम्पूर्ण दृष्टि स्थिर रख।</div><div>मैं कृष्ण इसे “समत्व” कहता और जानता हूँ </div><div>तू भी ऐसे ही जान। </div><div>हर्ष, और विषाद में सम होना ही है समत्व हे अर्जुन।”</div><div><br /></div><div>“प्राणी समरूप होकर निरहंकार विवेक से युक्त होता है और इसलिए</div><div>पुन्य में और पाप में पुन्य और पाप से परे मात्र कर्म देखता है </div><div>और इसलिए आध्यात्म में परमपद का </div><div>अधिकारी हो जाता है।</div><div>अत: परमात्मा से एकात्म हेतु अपनी चेतना को </div><div>परमात्मा में अचल और स्थिर कर।</div><div>पाप और पुण्य से स्वयं को पृथक करना </div><div>या स्वयं को पाप और पुण्य से अनावृत करना ही </div><div>ब्रह्मबुद्धि को स्वयं में करना है आवेष्टित।</div><div><br /></div><div>कर्मयोगी प्राणी </div><div>कर्म में पाप और पुण्य की विवेचना किये बिना </div><div>कर्म से उत्पन्न फल में अनासक्त होता हुआ</div><div>कर्म सम्पादक है।</div><div>इसलिए हे पृथा पुत्र, तू कर्म कर ।”</div><div><br /></div><div>“शास्त्र के और शस्त्र के ज्ञान में</div><div>अनेक सूत्र और उसकी मीमांसा से ज्ञान-बुद्धि को</div><div>भ्रमित मत कर</div><div>ज्ञान के गहन अंधकार पक्ष से स्वयं को </div><div>निर्लिप्त रख।</div><div>और युद्ध कर।”</div><div><br /></div><div>कर्म और ज्ञान का भेद अर्जुन को अस्थिर करता </div><div>ज्ञान से उत्पन्न व ज्ञान से निर्धारित कर्म की इस </div><div>व्याख्या से विचलित </div><div>अर्जुन ने कहा “हे प्रिय सखा कृष्ण, </div><div>श्रेष्ठ क्या है? कर्म या ज्ञान!“</div><div>“कर्म के पूर्व और कर्म के पश्चात्, </div><div>कर्ता की स्थिति मुझे विस्तार से कहें।”</div><div><br /></div><div>“हे अर्जुन, कर्म से पूर्व वह ज्ञानयोगी धर्म की </div><div>विवेचना करता हुआ कर्मयोगी है और</div><div>कर्म के पश्चात् निष्काम भाव से कर्मोद्धत</div><div>कर्मयोगी है।”</div><div>“ज्ञान और कर्म से श्रेष्ठ वह धर्म है जो </div><div>आत्मा को मनुष्य से परम ईश्वर को प्रेरित करता है।</div><div>युद्ध करते हुए हे अर्जुन, तुम उस धर्म के उत्थान में </div><div>योगदान करता हुआ निष्काम कर्म कर।”<hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-6830201097037542682024-02-29T16:41:00.004-05:002024-02-29T23:36:44.762-05:00कहानी: मुखौटालाल के छह तुक्के<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Author-Vijay-Kumar-Sandesh.html"><img border="0" data-original-height="585" data-original-width="514" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjlZbNNAY5MNV7i2Z3Qbk1N6iyfHUruuJDskNR0mLzs-ND5K7gq2aUQfQicKfnXVvKNduxbkyO-4s3Z03rDJ8yUdOiGzSKDDHm0YFIvh0oezBFFjaVoP8uUoobrd-zgt70FMT3C3JxO1DCno5WJhiFFe6cWL6An43h7Ucardg10ISOjyO64kNAPoQqt=w176-h200" width="176" /></a></span></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: x-small;"><b><a href="https://www.setumag.com/2024/02/Author-Vijay-Kumar-Sandesh.html">विजय कुमार संदेश</a></b></span></td></tr></tbody></table>
<h3 style="text-align: left;">विजय कुमार संदेश</h3><div><span style="font-size: x-small;">प्राध्यापक, पी.जी. हिन्दी विभाग, मार्खम कॉलेज, हजारीबाग, झारखंड,भारत</span></div><div><span style="font-size: x-small;">दूरभाष: +91-943 019 3804</span></div><div><span style="font-size: x-small;">ईमेल: sandesh.vijay@gmail.com</span></div><div><hr /></div><div><br /></div><div><span style="white-space: normal;"><b>सु</b>बह-सुबह ही गली के नुक्कड़ पर टहलते हुए आशीष को हॉकर अखबार थमा गया। थोड़ी देर में आशीष लौटकर घर आया। वह अखबार खोलने ही वाला था कि नौ वर्षीय पौत्री नीलू ने आकर उसके कान में कहा- दद्दू अपने पड़ोसवाले अंकल जो नागपुर, महाराष्ट्र में रहते हैं, उनका अखबार में फोटो छपा है। आशीष ने आश्चर्यमिश्रित मुद्रा में दैनिक हिन्दुस्तान अखबार का पन्ना पलटा। पहले ही पृष्ठ पर फोटो के साथ शीर्षक था - भूमिपुत्र पुष्परंजन ‘देवल’ विश्वविद्यालय के नये कुलपति बने। फिर दूसरा अखबार भी खोला। उसमें भी फोटो के साथ ब्यौरे में परिचय के साथ लिखा था- ‘मजदूर का बेटा कुलपति।’ स्थानीय सभी अखबारों में अलग-अलग शीर्षकों से एक ही सूचना थी। आशीष खुश था कि उसका बचपन का दोस्त जिसके साथ वह खेला-कूदा और बड़ा हुआ है, आज विश्वविद्यालय का कुलपति बन गया है। दो वर्ष हुए, पुष्परंजन से उसकी भेंट नहीं है। आशीष को थोड़ा आश्चर्य भी हुआ। पढ़ने-लिखने में फिसड्डी पुष्परंजन कुलपति जैसे प्रतिष्ठित पद पर कैसे पहुँच गया? क्योंकि, उसे पता है कि उसे न ठीक से हिंदी आती है और ना ही वह अंग्रेजी बोल पाता है। भाषा के मामले में तो वह शुरू से आखिर तक कंगाल ही रहा है। अक्सर बातचीत करते हुए उसने देखा-सुना है कि हिन्दी बोलते-बालते दो-एक वाक्य अंग्रेजी और अंग्रेजी बोलते हुए अंततः हिन्दी बोलने पर उतर आता है। उसकी हिन्दी में भी अधिकांश शब्द स्थानीय बोली के ही होते हैं। ऊ-परी (उधर) और इ-परी (इधर) तो जैसे उसका तकियाकलाम है। </span></div><div><span style="white-space: normal;"><br /></span></div><div><span style="white-space: normal;">आशीष को आज भी याद है कि बचपन में सभी उसे मुखौटालाल कहकर चिढ़ाते थे। उसे तरह-तरह के मुखौटे पसंद थे। प्रायः बंदर-भालू का मुखौटा पहनकर पूरे मुहल्ले में घूम आता था और छोटे-छोटे बच्चों को डराया भी करता था। मुखौटेबाजी में उसका मूल नाम ‘सुखीलाल’ जैसे कहीं पीछे छूट गया और वह मुखौटालाल के नाम से ही जाना जाने लगा। मुखौटेबाज से पुष्परंजन समय के अंतराल में तुक्केबाज भी बन गया था और अपनी सफलता का सारा श्रेय आज भी वह अपनी तुक्केबाजी को ही देता है। अपनी तुक्केबाजी के पक्ष में वह बड़े गर्व से किसी से भी बातचीत में कहता है कि सफलता और सुअवसर के लिए उसने न तो कड़ी मेहनत की है, न ही कोई दृढ़-संकल्प लिया और ना ही उसके पास कोई असाधारण प्रोफाइल रहा है। जब कभी समय आया तुरुप के पत्ते की तरह तुक्के काम कर गए। तुरुप के इस तुक्के ने उसे मंजिल तक पहुँचाने में उसकी काफी सहायता की है। अभी दो दिन पहले एक स्थानीय चैनल को इंटरव्यू देते हुए उसने कहा था कि ताश के तुरुप के पत्ते की तरह तुरुप के तुक्के ने मेरा हमेशा साथ दिया है। मेरी आजतक की सफलता में तुरुप के तुक्कों का बड़ा हाथ रहा है। अपने जीवन की नूरा-कुश्ती में मैंने कभी ताश नहीं खेला है। हाँ, फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन जरूर खेले हैं। पर, तुरुप के पत्तों के बारे में मैं खूब जानता हूँ। मैंने सुन रखा है कि ताश के पत्तों के खेल में वही जीतता है, जिसके पास तुरुप के पत्ते होते हैं। यदि कोई एक पक्ष तुरुप का एक छोटा पत्ता चले और दूसरा पक्ष उससे बड़ा तुरुप का पत्ता चल दे, तो जीत उसी की होती है, जो बड़ा पत्ता चल देता है। पुष्परंजन सगर्व कहता भी है कि यह संयोग है कि जब-जब मैंने तुरुप के तुक्के फेंके, मेरी जीत होती गयी। उसने आगे यह भी कहा कि यदि किसी के पास जन्मजात प्रतिभा नहीं है तो भी कड़ी मेहनत से सफलता किसी को भी मिल सकती है। वे छात्र जो अपनी पढ़ाई में स्वयं को दिन-रात झोंक देते हैं और अनगिन चुनौतियों का सामना करते हुए भी संघर्षरत रहते हैं, वे अंततः लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। किंतु, इनमें से एक भी गुण मुझमें नहीं थे। मेरे पास सफल होने के लिए कुछ था तो वह केवल तुक्का और केवल तुक्का था। एक औसत विद्यार्थी होने के कारण पढ़ाई के प्रति मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही।</span></div><div><span style="white-space: normal;"><br /></span></div><div><b>पहला तुक्का:</b> आशीष के बचपन का सहपाठी पुष्परंजन की पढ़ाई-लिखाई पहली कक्षा से लेकर मैट्रिक तक साथ-साथ हुई। पुष्परंजन गाँव के स्कूल में जब पढ़ता था तब आम ग्रामीण बच्चों की तरह ही उसका जीवन था। वह अपने सिर के बालों में तेल इतना चुपड़ता था कि कमीज का कॉलर तक काला हो जाता था। एकदम देहाती बच्चों की तरह। उन दिनों सरकारी स्कूलों में बेंच-डेस्क तो थे नहीं, सो वह घर से ही जूट का बोरा लेकर वर्ग-कक्ष में बैठता और वर्ग-शिक्षक को टुकुर-टुकुर हेरता रहता था। वर्ग शिक्षक द्वारा पढ़ाये गए विषय को वह ठीक से समझ नहीं पाता था। इस कारण वर्ग-कक्ष में उसे सबसे पीछे बिठाया जाता था। नामचीन मुखौटाधारी होने के कारण क्लास और पास-पड़ोस के सभी लोग उसे जानते-पहचानते थे। चिढ़ाने के लिए तो उसे मुखौटाधारी बंदर-भालू तक कहा जाता था। उसकी चाल-ढाल में अजीब देहातीपना और गँवारपन था। इसी के साथ नीम पर चढ़े करेले की तरह तीखे मिजाज वाला और गजब का भुक्खड़ भी था। उसकी वाणी में कोई लस नहीं। जब बोलता था तो सुननेवाले को चुभता सा महसूस होता था। आधे सेर चावल का भात तो वह एक बार में ही खा जाता था। शादी-ब्याह हो या कहीं मृत्यु-भोज का अवसर, बिन बुलाये मेहमान की तरह पहुँच जाता था। इस कारण कई बार उसकी किरकिरी भी हो चुकी थी। आशीष को याद है कि एक दिन पड़ोस के गाँव में चल रहे प्रीतिभोज में वह चुपके से पंगत में बैठ गया था। पहला ही कौर उठाया था कि कुछ लोगों ने देखा तो भरी भीड़ में उसे बेइज्जत करके निकाल दिया। दूसरे ही दिन यह खबर उसके क्लास के साथियों को मिली तो बातूनी सुंदर ने पूछ लिया- क्यों रे मुखौटा? सुना है कल तुम्हें प्रीतिभोज में बीच पंगत से उठा दिया गया था? </div><div><br /></div><div>सुंदर की बातें सुनकर मुखौटा उर्फ पुष्परंजन थोड़ी देर के लिए झेंप गया। फिर, निर्लज्ज होकर बोला- अरे, वह क्या खिलायेगा? कंजूस जो ठहरा। बेस्वाद भोजन था। मैं स्वयं उठकर चला आया।</div><div>सुंदर कहाँ चुप रहने वाला था। वह उसका बाल-सखा जो था। बिना रुके बोल गया- तुम्हारी तो भद्द हो गयी होगी? </div><div>मुखौटा अजीब-सा मुँह बिचकाकर बोला- बेस्वाद भोजन मुझसे खाया ही नहीं गया। कच्ची पूड़ी और सब्जी पत्तल के नीचे दबा दिया।</div><div><br /></div><div>सुंदर ने मजाकिया लहजे में फिर पूछा- और... वो बूँदी-मिठाई?</div><div>मुखौटा ने छूटते ही मुँह तीता करते हुए कहा- वह भी क्या मिठाई थी? मिठास बिल्कुल नहीं थी। न ही चीनी का रस और ना ही सीरे में कोई लस्स। </div><div><br /></div><div>मुखौटा की बात सुनकर क्लास के सभी लड़के खिलखिलाकर हँस पड़े थे। समय के अंतराल में कुछ बड़े होने पर जब वह दसवीं कक्षा में पहुँचा तब तक उसके व्यक्तित्व में कुछ सुधार हो गया था। उसके व्यक्तित्व से देहाती और गँवार मुखौटा का चोला उतर चुका था। विद्यालय के एक स्वजातीय शिक्षक को मुखौटा उर्फ पुष्परंजन से थोड़ी-बहुत आत्मीयता हो गयी थी। मुखौटा को सुखीलाल से पुष्परंजन ‘देवल’ नाम भी उसी स्वजातीय शिक्षक ने दिया था। उसके पहले गाँव-ज्वार के लोग उसे मुखौटालाल के नाम से ही जानते थे। प्राइमरी स्कूल की पंजी में भी उसका नाम सुखीलाल ही लिखा हुआ था। मैट्रिक की परीक्षा फार्म भरते हुए उस स्वजातीय शिक्षक ने पहले उसका नाम सुखीलाल से पुष्परंजन ‘देवल’ बदला और फिर एक सेटिंग की और दो मेधावी छात्रों के बीच में उसका परीक्षा फार्म रख दिया। बोर्ड से दोनों मेधावी छात्रों के बीच ही आगे-पीछे मुखौटा का सीट पड़ा। उन दोनों के सहयोग से मुखौटा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गया। सेटिंग का यह तुक्का काम कर गया।</div><div><br /></div><div><b>दूसरा तुक्का:</b> मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों से पास हो जाने के बाद उसकी इच्छा इंटरमीडिएट में विज्ञान विषय लेकर पढ़ने की हुई। उसने स्थानीय कॉलेज में भौतिकी, रसायन विज्ञान और गणित विषय लेकर विज्ञान संकाय में नामांकन ले लिया। कक्षाएँ शुरू हुईं तो अपनी आदत के अनुसार उसने सबसे पीछे की बेंच पर बैठना पसंद किया। क्लास के सहपाठी उसे ‘बैक बेंचर’ उर्फ ‘मुखौटालाल’ ही कहते थे। पर, उसे इस नाम से पुकारने पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। आसान शब्दों में कहें तो वह ‘थेथर’ किस्म का एकबोलिया जीव था। अपनी बात और अपनी हेठी से एक इंच भी इधर से उधर होना नहीं जानता था। अजीब जिद्दी किस्म का किशोर-युवा था। एक बार जो कह दिया सो कह दिया। भले ही वह बात तर्कयुक्त हो या न हो। फिर भी, अपनी जिद नहीं छोड़ता था, उससे कदम भर भी पीछे हटने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। झूठी शान का वह जिंदा सबूत था। ऐसा नहीं है कि वह एकदम ईमानदार था। ईमानदार तो वह कतई नहीं था। बाह्य आडम्बर और अहंकार उसके जेहन में नशे की तरह घुले-मिले थे। अपने शिक्षकों और गुरुओं की नजर में तीसरे-चौथे दर्जे का विद्यार्थी था। उसकी योग्यता औसत से भी कम थी। उसमें एक दुर्गुण यह भी था कि विषय को समझे बिना उस पर अपनी राय देता था जिसके कारण विद्यार्थियों के बीच वह अक्सर हँसी का पात्र बन जाता था। विषयों पर कमजोर पकड़ थी, इसलिए उसने विज्ञान के सभी विषयों का ट्यूशन लिया। इसका तत्काल फलित प्रभाव उसे प्रैक्टिकल में अच्छे अंक के रूप में मिला। मुखौटा का यह भी एक तुक्का था, जो काम कर गया और वह प्रथम श्रेणी से इंटरमीडिएट पास कर गया।</div><div><br /></div><div><b>तीसरा तुक्का:</b> इंटरमीडिएट में प्रथम श्रेणी आ जाने से उसका उत्साह बढ़ा तो वह स्नातक की पढ़ाई के लिए एक बड़े विश्वविद्यालय में चला गया। पढ़ने में कमजोर था किन्तु, भाग्य का बली था। भाग्य के तुक्कों के सहारे वह यहाँ तक आ गया था। उसने भौतिकी में आनर्स लिया। यद्यपि, उसका रुझान भौतिकी की अपेक्षा रसायनशास्त्र की ओर अधिक था। पर, रसायनशास्त्र की अपेक्षा भौतिकी में दो-चार अंक अधिक आने के कारण उसने भौतिकी पढ़ना ही पसंद किया। पिता मजदूर थे। आर्थिक तंगी तो रहती ही थी। इस कारण एक छोटे से किराये के कमरे में रहकर उसने स्नातक की दो वर्ष की पढ़ाई पूरी की और भोजन प्रायः पास के मंदिर में चलने वाले लंगर में ही किया। परीक्षा में इस बार भी संयोग के तुक्के ने काम किया। प्रायः सभी रटे हुए प्रश्न आ गए जिसका उत्तर उसने रटी-रटायी भाषा में ही दिया। उसका भाग्य प्रबल था। ‘ग्रेस मार्क्स’ लेकर प्रथम श्रेणी से पास भी कर गया। इस बार रट-रटाई का तुक्का काम कर गया था।</div><div><br /></div><div><b>चौथा तुक्का:</b> एम॰एस-सी॰ करते ही मुखौटा उर्फ पुष्परंजन देवल की शादी हो गयी। पत्नी साधारण और चुप्पा थी। किसी से बात करना उसे पसंद नहीं था। साधारण और चुप्पा लड़की के कारण उसे दहेज भी अच्छा मिला था। पुष्परंजन को इस बात का गुमान था कि उसे जितना दहेज मिला है, उतना आजतक गाँव में किसी को नहीं मिला। उसकी ससुराल भी दूर नहीं थी। पास के ही एक इंडस्ट्रियल शहर में उसके ससुर जी एकाउन्टेंट थे। उनके पास पैसों की कोई कमी नहीं थी, सो एक तरह से अच्छी खासी रकम देकर उन्होंने पुष्परंजन को खरीद लिया था। पुष्परंजन अपने काम से अक्सर बाहर ही रहता था। इस कारण उसकी पत्नी प्रायः अवसाद में ही रहती थी। यह संयोग था कि एक बेटे के जन्म के बाद उसे मातृत्व-सुख मिला और जीने के लिए एक बड़ा सहारा मिल गया था। एम॰एस-सी॰ करते हुए पुष्परंजन ने प्रतियोगी परीक्षाएँ देनी शुरू की थी। एक-दो तो दे चुका था। सारे प्रश्न चार विकल्प वाले थे और उत्तर-पुस्तिका पर बॉल पेन से गोल बॉक्स को केवल काला करना था। प्रश्न-पत्र देखकर पुष्परंजन का दिमाग झन्ना गया था क्योंकि उसकी जानकारी में सारे प्रश्न अत्यंत कठिन थे। सोचा चलो एक बार फिर तुक्के का प्रयोग करता हूँ और तुक्के से ही गोल-बॉक्स को काला कर देता हूँ। दैवयोग से यदि उत्तर सही हो गया तो ठीक वरना आवे आम या जाय लबेदा। प्रश्न-पत्र देखता गया और अनुमान से उत्तर-पुस्तिका में गोल बॉक्स को काला करता चला गया। बुझे मन से परीक्षा केन्द्र से बाहर आया। पुष्परंजन भूल गया कि उसने कोई प्रतियोगी परीक्षा भी दी है। छह महीने बाद रिजल्ट आया। इस बार भी तुक्के काम कर गए थे। वह सफल अभ्यर्थियों की सूची में अंतिम पायदान पर था। केन्द्र सरकार के अधीन रिसर्च एंड टेक्नोलोजी के क्षेत्र में एक जूनियर रिसर्चर के रूप में उसकी नियुक्ति हो गयी। रिसर्चर के रूप में नियुक्ति के बाद अपनी प्रतिभा से अधिक अपने तुक्कों पर उसे गर्व महसूस हो रहा था। समय के साथ उसकी नौकरी में ‘समयबद्ध प्रोन्नति’ होती गयी। पर, उसकी प्रतिभा में कोई निखार नहीं हुआ। कई बार तो उसे अपने सीनियरों से जलालत भी झेलनी पड़ी थी। किंतु, सीनियरों द्वारा की गयी जलालत का भी उसके सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। सीनियरों की अनुशंसा पर अंततः उसे एक ऐसे विभाग में ट्रांसफर कर दिया गया, जहाँ कुछ जूनियर रिसर्चरों की सहायता करनी होती थी। एक तरह से यह उसकी पदोन्नति नहीं बल्कि पदावन्नति थी। कहते हैं हर अमंगल के पीछे एक मंगल छिपा होता है। और, सच में पुष्परंजन का यह अमंगल दस वर्षों के बाद मंगल में तब्दील हो गया। चूंकि, वह रिसर्चरों के साथ शोध एवं सर्वेक्षण से जुड़ा रहा था। इस कारण उसे रिसर्चर के पद से अवकाश लेते ही एक विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में नियुक्ति भी हो गयी। यहां भी उसके साथ शोध एवं सर्वेक्षण संस्थान के बड़े नाम का तुक्का काम कर गया था। अखबार में बड़े-बड़े अक्षरों में उसकी प्रशंसा के कसीदे गढ़े गये। पर, पुष्परंजन अपनी प्रतिभा को जानता था। अनायास ही तुक्के का छक्का लग गया था और गेंद आकाशीय मार्ग से बाउंड्री के पार चला गया था।</div><div><br /></div><div><b>पाँचवा तुक्का:</b> विश्वविद्यालय में योगदान के बाद दो महीने तक उसने ऐसा शो किया जैसे वह बहुत प्रतिभाशाली और ईमानदार है। लेकिन, उसकी बोल-चाल की भाषा और शैली ने उसकी कलई खोल दी थी। भाषायी-अपंगता के कारण हीन-भावना से ग्रस्त नये कुलपति उर्फ पुष्परंजन ‘देवल’ दो-एक महीने के भीतर ही बौद्धिकों के सवाल-जवाब से कन्नी काटने लगे थे। अपनी इनफीरियरिटी कंपलेक्स से ग्रसित पुष्परंजन अब तेज-तर्रार बौद्धिकों का अपमान करना शुरू कर दिया था जिससे वे उनसे दूर होते गए और तथाकथित कामचोर और चापलूस निकट होते गए। थोड़े ही दिनों में चापलूसों एक बड़ा गुट उन्होंने तैयार कर लिया था, जो उसके आगे-पीछे रहने लगे थे। चापलूसों में एक सुपर चापलूस ने साजिश रची। एक छात्र-नेता को पैसे देकर और भविष्य में अच्छे पद पर बिठाने का लालच देकर विश्वविद्यालय के कुलपति के विरुद्ध छात्र आंदोलन शुरू करवाया। छात्र आंदोलन शुरू हुआ और दो-एक दिनों में ही उग्र रूप लेने लगा। छद्म रूप में यह छात्र आंदोलन उस सुपर चापलूस की सोची-समझी रणनीति थी। उसी रणनीति के तहत परदे के पीछे रहकर उसने एक ओर छात्र नेताओं पर झूठा दबाव दिया कि वे आंदोलन बंद करें और दूसरी ओर पुष्परंजन के बॉडी-गार्ड की तरह उसके आगे-पीछे सुरक्षा घेरा बनाकर रहने लगा। अपनी रणनीति में वे चापलूस सफल हो गये थे। महीना बीतते-बीतते पुष्परंजन देवल के प्रिय-पात्रों में उनकी गिनती होने लगी थी। पुष्परंजन को भी विश्वास हो गया था कि ये काम के आदमी हैं। इसलिए अब हर बात पर चापलूसों की सलाह लेने लगा था। धीरे-धीरे चापलूसों की पकड़ पुष्परंजन पर मजबूत होने लगी थी और वे घर-आंगन का आदमी हो गये थे। जब चापलूसों को विश्वास हो गया कि पुष्परंजन पर उनकी पकड़ मजबूत हो गयी है तब उन्होंने सलाह देनी शुरू की और समझाया कि सर! आप खर्च करके आये होंगे। अतः समय बीतने के पहले अपना खर्च ब्याज सहित निकाल लीजिए। पुष्परंजन को उनकी सलाह अच्छी लगी। भला, लक्ष्मी जी किसे अच्छी नहीं लगतीं? उन्होंने समझाया कि जिसपर लक्ष्मी जी की कृपा हो जाये वह धन-वैभव से परिपूर्ण हो जाता है। यश-गाथाएँ उसके आगे-पीछे चलती हैं। सर! आप पर लक्ष्मीजी की कृपा हुई है, जो आप यहाँ तक बिना किसी व्यवधान के पहुँचे हैं। लक्ष्मीजी की कृपा के सहारे आपको अपने रोजनामचे में आज की परिस्थितियों में कुछ ऐसे काम करने होंगे, जो संभव है वह अनचाहा काम हो। विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए लेन-देन की आवश्यकता होती है, जिसे सरल भाषा में ‘शुकराना या नजराना’ कहा जाता है। </div><div><br /></div><div>चापलूसों की बात सुनकर पुष्परंजन चौंक गया। उसने फटाक से कहा- यह तो चोरी है। सुपर चापलूस ने पलट कर जवाब दिया- सर! चोरी नहीं, ईमानदारी से चोरी। फिर, आगे कहा- सर, चोरी करो लेकिन ईमानदारी से। पुष्परंजन चोरी से ईमानदारी की बात सुनकर अवाक रह गया और एक साँस में कह गया- चोरी और ईमानदारी? उस सुपर चापलूस ने समझाया- हाँ सर! चोरी में ईमानदारी? यह आज की कूटभाषा में पीसी है। आप अपने कार्यालय में आनेवाले ठीकेदार या सामान सप्लाइयर का काम करेंगे। किये गये कामों का आप भुगतान भी करेंगे। यह भुगतान वास्तविक भुगतान से अधिक होगा और इसी अधिक भुगतान को वे फिर नजराना के रूप में आपको भेंट करेंगे। यही पीसी रूपी भेंट चोरी से ईमानदारी की कमाई है। आपको कुछ नहीं करना है। सर! एक कहावत है कि ‘न हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा।’ सुपर चापलूस के संकेत को पुष्परंजन ने समझ लिया और अपनी ओर से हामी भर दी। जिस पुष्परंजन के पिता मजदूरी और मिट्टी खोदकर जीते रहे, उसी के बेटे ने अपने इस छोटे-से कार्य-काल में पीसी के रूप में करोड़ों की कमाई कर ली। सुपर चापलूस और उसके सहयोगियों के श्रम से करोड़ों कमा चुके पुष्परंजन ने अपने लिए बंगला-कार-आभूषण क्या कुछ नहीं खरीदा। उसके पास चोरी से ईमानदारी की कमाई के बदौलत कई बड़े शहरों में जमीन, फ्लैट सब आ गया था। गरीबी से निकला हुआ आदमी अमीरी के चकाचौंध की ओर इस तरह आकर्षित होता है जैसे लैंप-पोस्ट की रोशनी में पतंगे आकर्षित होते हैं। उन पतंगों को यह नहीं मालूम कि इसी रोशनी की चमक में उनका वजूद मिटने वाला है। पुष्परंजन भी अपना स्टेटस बनाने के चक्कर में चकाचौंध रूपी दलदल में निरंतर धंसता गया। दलदल की गीली मिट्टी देखकर भी वह अनभिज्ञ बना रहा। तुक्के में वह करोड़ों का मालिक जो बन गया था।</div><div><br /></div><div><b>छठा तुक्का:</b> भाग्य पर भरोसा करनेवाले पुष्परंजन को अपने तुक्कों पर बड़ा गर्व था क्योंकि भाग्य के सहारे जीनेवालों को तुक्कों पर बड़ा विश्वास होता है। यही कारण है कि तुरुप के पत्तों की तरह हर बार वह एक तुक्का फेंक देता था। चापलूस-चमचे जानते थे कि पुष्परंजन ने अपने इस कार्य-काल में करोड़ों की कमाई की है। इस करोड़ों की कमाई पर उनकी भी गिद्ध-दृष्टि थी। उन्होंने पुष्परंजन को मशविरा दिया कि सर! आपको दूसरे टर्म के लिए प्रयास करना चाहिए। हमलोग इस काम में आपको सपोर्ट करेंगे। पुष्परंजन लोभ में पड़ गया। उसने हामी भर दी। अब क्या था, चापलूस-चमचे कपट-पूर्ण जुगाड़ में लग गए। सुपर चापलूस द्वारा एक बिचौलिए की खोज शुरू हुई, जो उसे विभागीय कार्यालय में ही मिल गया। चापलूस-चमचों ने उस बिचौलिए को समझाया कि नियुक्ति वगैरह कुछ नहीं करवाना है। इस आदमी ने बहुत काली कमाई की है। बस, उसे विश्वास में लेकर करोड़-डेढ़ करोड़ खींच लेनी है। इसमें पाँच प्रतिशत की हिस्सेदारी आपकी भी होगी। बिचौलिए ने जब सहमति दे दी तो छल-प्लान शुरू हुआ। पुष्परंजन को उस बिचौलिए से ऑफिस के बाहर मिलवाया गया। बिचौलिए ने ऐसी जादूगरी की कि पुष्परंजन को विश्वास हो गया कि सचमुच यह मेरा काम करवा देगा। दिन-तारीख तय हुआ और तयशुदा दिन को पुष्परंजन के साथ चापलूस-चमचे भी आये। एक होटल के कमरे में रुपयों से भरा ब्रीफकेस बिचौलिए को दिया गया। सभी साथ ऑफिस-परिसर तक गए। बिचौलिया ब्रीफकेस लेकर अंदर गया। ब्रीफकेस अपने सहयोगी को थमाकर बाहर आया और कहा कि पंद्रह दिनों में आपका काम हो जायेगा।</div><div><br /></div><div>आत्म-मुग्ध पुष्परंजन इस आत्मविश्वास के साथ घर लौटा कि दूसरा टर्म भी उसे मिल जायेगा। पर, समय-चक्र को कौन जानता है? कब किसी को राजा और किसी को रंक बना दे। दुर्योगवश राज्य में इसी समय कई राजनीतिक घटनाएँ हुईं और सरकार बदल गयी। अधिकारियों-कर्मचारियों का भी तबादला हुआ। बिचौलिया यह कहकर फरार हो गया कि एक बार फिर से प्रयास करेंगे। थैली तो आपके सामने ही दी गयी है। उस अधिकारी का भी तबादला यहाँ से दूर किसी छोटे से शहर में हो गया है। वह ज्वाइन करने चला गया है। यह सुनते ही पुष्परंजन को जैसे काठ मार गया। वह बेहोश होते-होते बचा। थोड़े दिनों बाद वह अवसाद में चला गया और पागलों जैसी हरकतें करने लगा। अवसर और नियति भाँपकर चापलूस-चमचे भी धीरे-धीरे किनारे लग गए। इस बार पुष्परंजन का तुक्का सिरे से खारिज हो गया था। उसकी चोरी से ईमानदारी की कमाई एक झटके में लुट चुकी थी। आँखों के आगे दिन में ही तारे दिखने लगे थे। आशीष को जब यह सारा खेल मालूम हुआ, वह पुष्परंजन से मिलने आया। उसने पुष्परंजन को समझाया कि भई, जो बीत गयी, सो बात गयी। नये सिरे से अपना जीवन सादगी से शुरू करो। मैंने सुन रखा है कि काली कमाई की यही अंतिम गति होती है। </div><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"></span><div><span style="white-space: normal;"><br /></span></div>कई महीनों के बाद आशीष ने सुना कि अब फिर से पुष्परंजन मुखौटा पहने गाँव-मुहल्ले में घूमने लगा है और बच्चे उसे मुखौटालाल, मुखौटालाल कहकर चिढ़ाने लगे हैं। वह पत्थर उठाकर कभी बच्चों पर फेंकता है तो कभी अपना सिर पीटने और बाल नोचने लगता है।</span><hr />
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-37626880346864922272024-02-29T16:34:00.003-05:002024-02-29T16:34:53.941-05:00विजय कुमार संदेश<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjlZbNNAY5MNV7i2Z3Qbk1N6iyfHUruuJDskNR0mLzs-ND5K7gq2aUQfQicKfnXVvKNduxbkyO-4s3Z03rDJ8yUdOiGzSKDDHm0YFIvh0oezBFFjaVoP8uUoobrd-zgt70FMT3C3JxO1DCno5WJhiFFe6cWL6An43h7Ucardg10ISOjyO64kNAPoQqt=s585" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="585" data-original-width="514" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjlZbNNAY5MNV7i2Z3Qbk1N6iyfHUruuJDskNR0mLzs-ND5K7gq2aUQfQicKfnXVvKNduxbkyO-4s3Z03rDJ8yUdOiGzSKDDHm0YFIvh0oezBFFjaVoP8uUoobrd-zgt70FMT3C3JxO1DCno5WJhiFFe6cWL6An43h7Ucardg10ISOjyO64kNAPoQqt=w176-h200" width="176" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: x-small;"><b>विजय कुमार संदेश</b></span></td></tr></tbody></table>भारतीय लेखक विजय कुमार संदेश मार्खम कॉलेज, हजारीबाग में प्राध्यापक और हिन्दी विभाग के प्रमुख हैं। उन्होंने अनेक कहानियों, उपन्यासों, और गद्य रचनाओं की रचना की है। उनकी लेखनी में विचारशीलता, साहित्यिक गहराई, और भावनात्मकता का संगम होता है। उन्होंने देश-विदेश की यात्राएँ की हैं तथा अनेक साहित्यिक समारोहों तथा गोष्ठियों में भाग लिया है। <div><br /></div><div>सम्प्रति: प्राध्यापक, पी.जी. हिन्दी विभाग, मार्खम कॉलेज, हजारीबाग, झारखंड,भारत </div><div>चलभाष: +91-943 019 3804 </div><div>ईमेल: sandesh.vijay@gmail.com</div><div><hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2016/06/authors-poet.html#va">लेखकवृंद</a></div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-75653933487862226982024-02-29T15:51:00.002-05:002024-03-01T18:47:16.741-05:00मानवीय मूल्यों की सशक्त अभिव्यक्ति - 'मेरी कहानियाँ'<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfVHdKkPIv1VPcUSqy8S4oKAOg1W6isoxV_BS6h63wrw-m_sNG-Qqyis67ocFznfJoBkGallleyZIuUNjJ9swXeEeoV_EJpNAvhSMpT9-zXlfa90pq012i2Dodp7AJmLbqJG6ag4vUAqC9AlmQhnDugY1Riyi1h4BOVr4EJxDqcmCMODWx6-Y46huEnXI/s4000/20240228_095719.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="4000" data-original-width="3000" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfVHdKkPIv1VPcUSqy8S4oKAOg1W6isoxV_BS6h63wrw-m_sNG-Qqyis67ocFznfJoBkGallleyZIuUNjJ9swXeEeoV_EJpNAvhSMpT9-zXlfa90pq012i2Dodp7AJmLbqJG6ag4vUAqC9AlmQhnDugY1Riyi1h4BOVr4EJxDqcmCMODWx6-Y46huEnXI/w150-h200/20240228_095719.jpg" width="150" /></a></div><h3 style="text-align: left;">समीक्षक : प्रो. अवध किशोर प्रसाद</h3></div><div><b>मेरी कहानियाँ (कथा संग्रह)</b></div><div>लेखक: डॉ. रमाकांत शर्मा</div><div>प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स, नोएडा – 201301</div><div>मूल्य: ₹ 300/- रुपये</div><div><br /></div><div><br /></div>डॉ. रमाकांत शर्मा ने अब तक नब्बे से ऊपर कहानियाँ लिखी हैं। समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी कहानियों के नौ संग्रह सामने आ चुके हैं और उन्हें पाठकों का अच्छा प्रतिसाद भी मिला है। प्रस्तुत कहानी संग्रह इंडिया नेटबुक्स, नोएडा द्वारा “कथामाला श्रृंखला” के अंतर्गत प्रकाशित कहानी संग्रह है। इस श्रृंखला का उद्देश्य चुनिंदा साहित्यकारों की चयनित कहानियों का गुलदस्ता प्रस्तुत करना है। इसके अंतर्गत डॉ. रमाकांत शर्मा का कहानी संग्रह प्रकाशित होना स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि वे सशक्त और लोकप्रिय कथाकार हैं।<div><br /><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><span style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><a href="https://www.setumag.com/2020/09/Author-Ramakant-Sharma.html"><img border="0" data-original-height="740" data-original-width="574" height="200" src="https://1.bp.blogspot.com/-dMV5YmHs6g0/YMGHWxi4RHI/AAAAAAAARak/YUCKECOxBzozshlzhp19nyF_u7Mzg5IZACLcBGAsYHQ/w155-h200/Ramakant-Sharma.jpg" width="155" /></a></span></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://www.setumag.com/2020/09/Author-Ramakant-Sharma.html">रमाकांत शर्मा</a></td></tr></tbody></table><div>इस संग्रह में उनकी पंद्रह कहानियों का आनंद लिया जा सकता है। विशेष बात यह है कि हर कहानी बिना प्रवचन दिए कोई ना कोई ऐसा संदेश देती है, जिसमें मानवीय मूल्य निहित हैं। सरल भाषा और रोचक शैली में लिखी गई डॉ. रमाकांत शर्मा की कहानियों की विशेषता उनकी पठनीयता है जो पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रखती है। उन्होंने इतनी सारी कहानियाँ लिखी हैं, पर कहीं दोहराव नजर नहीं आता। उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता उन्हें विश्व प्रसिद्ध कहानीकार ओ’हेनरी के समकक्ष ला खड़ा करती है और वह है, लगभग हर कहानी का चौंकाने वाला अंत।</div><div>संकलन की पहली कहानी “खारा पानी-मीठा पानी” मायानगरी मुंबई की जिंदगी, इस शहर की संस्कृति और उसकी छवि पर लिखी गई अनगिनत कहानियों में सबसे अलग हट कर बेहतरीन कहानी है। शुरुआत में यह कहानी एक शहर की जिंदगी का चित्र खींचने भर का अहसास कराती है, पर अंत तक आते-आते पाठक को इतना भावुक कर जाती है कि वह खुद को भीतर तक भीगा हुआ महसूस करने लगता है। वह कहानीकार की इस बात से सहज ही सहमत हो जाता है कि खुद के और दूसरों के कड़वे-मीठे अनुभव किसी शहर की छवि तो बना सकते हैं, पर उसकी अस्मिता नहीं।</div><div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtgxnlqfZqQ1qoGCO8UFmf6MGbvirMXctSDmDv_m4jvM79mLGgwmrT5k5H4lj2HwhV8_Ds32uVHXqrYPgNirviVkBt5zOd-0AhDMIkHRhttNYBU7O2w9Gm-n_JkH6zoaiTminGZfNW9VoonxBEwyTqp2h3WdOQVtGcfXU5eKlASM2ygIe0w_2sVo0enwg/s362/Prof-Awadh-Kishor-Prasad.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="362" data-original-width="282" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtgxnlqfZqQ1qoGCO8UFmf6MGbvirMXctSDmDv_m4jvM79mLGgwmrT5k5H4lj2HwhV8_Ds32uVHXqrYPgNirviVkBt5zOd-0AhDMIkHRhttNYBU7O2w9Gm-n_JkH6zoaiTminGZfNW9VoonxBEwyTqp2h3WdOQVtGcfXU5eKlASM2ygIe0w_2sVo0enwg/w156-h200/Prof-Awadh-Kishor-Prasad.jpg" width="156" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अवधकिशोर प्रसाद</td></tr></tbody></table><br />“शायद आसिफ भी यही सोच रहा होगा” कहानी सेवानिवृत्त प्रिंसिपल अमान और एक मुशायरे में उन्हें मिले शायर आसिफ की कहानी है। आसिफ के व्यक्तित्व और कलाम से वे इतना प्रभावित हुए कि उसे घर आने का निमंत्रण दे बैठे। अनजान आसिफ उनके घर का सदस्य जैसा बन गया। विदेश में रहने वाले उनके बेटों ने अनजान आदमी को घर में आने देने के खतरों के प्रति उन्हें खबरदार भी किया, पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। अचानक आसिफ ने आना-जाना बंद कर दिया तो मियाँ-बीवी ने खुद उसके घर जाने की सोची। पर, आसिफ ने तो अपना पता भी नहीं दिया था। इत्तफाक से मिले उसके घर के पते पर पहुँच कर उन्होंने जो कुछ देखा, उसने उन्हें खुद की नजरों में अपराधी बना दिया। उसके बाद से वे आसिफ के आने का अंतहीन इंतजार कर रहे हैं। वे सोच रहे हैं कि अगर वह आया तो उससे नजरें मिलाने के लिए खुद को कैसे तैयार कर पाएंगे। क्या पता, शायद आसिफ भी यही सोच रहा हो। मानवीय संवेदनाओं को छूती यह कहानी पाठक को द्रवित कर जाती है।</div><div><br /></div><div>कहानी “बोलती रहो माँ” के बारे में बस इतना ही कहना काफी होगा कि हर समय लगातार बोलती रहने वाली माँ जब इस वजह से बेटे के उस पर बरस पड़ने के बाद यकायक चुप हो जाती है तो उसकी यह चुप्पी एक ऐसी कहानी बुन जाती है जो मन में भावनाओं का ज्वार उठा देती है। पाठक को अनायास यह अहसास होने लगता है कि साधारण सी लगने वाली कितनी असाधारण कहानी से वह अभी-अभी गुजरा है।</div><div><br /></div><div>‘बहू जी और वह बंद कमरा’ कहानी पढ़ते हुए शुरू में ऐसा लगता है जैसे पाठक को रहस्य और रोमांच की दुनिया में ले जाया जा रहा हो। पर, यह कहानी ऐसी औरत की कहानी में तब्दील हो जाती है जिसने आदर्श पत्नी और मर्यादित प्रेमिका की भूमिका में जीवन भर संतुलन बनाए रखा। पाठक बहूजी के इस रूप को जानने के बाद उनसे विरत होने के बजाय उनकी संवेदना में उनके साथ हो लेता है, यह इस कहानी की बुनावट और उसके निर्वहन की बड़ी सफलता है।</div><div><br /></div><div>इस संग्रह की दो कहानियाँ, “तूफान थमने की वजह” और “ड्रेस कोड” व्यंग्यात्मक कहानियाँ हैं। “तूफान थमने की वजह” जहां सरकारी कार्यालयों और बैंकों में कामकाज के प्रति उदासीनता और ग्राहकों को हेय समझने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य करती है, वहीं “ड्रेस कोड” हमारे जीवन के हर क्षेत्र में विदेशी संस्कृति की भौंडी नकल करने पर आमादा हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता पर करारा व्यंग्य करती है।</div><div><br /></div><div>“भाई साहब की डायरी” उन दो भाइयों के बीच के रिश्ते की कहानी है, जिसमें बड़ा भाई अपने छोटे भाई को माँ-बाप की कमी महसूस न होने देने के लिए कृतसंकल्प है, इसीलिए वह शादी भी नहीं करता। अपनी क्षमता से बढ़कर वह उसकी हर इच्छा पूरी करता है, उसे ऊंची शिक्षा पाने के लिए दूसरे शहर भी भेजता है। पर, एक बार जब वह छोटे भाई की बहुत छोटी सी जरूरत को पूरा करने के प्रति भी बेरुखी दिखाता है तो छोटे भाई को बहुत बुरा लगता है और उसके दिल में एक फांस सी चुभी रह जाती है। बड़े भाई की असमय मौत के बाद जब उनकी डायरी उसके हाथ लगती है और जो भेद खुलता है, उससे वह हतप्रभ होकर रह जाता है और उसके दिल में चुभी फाँस उसके आँसुओं के साथ बह निकलती है।</div><div><br /></div><div>‘गहरे तक गढ़ा कुछ’ कहानी जवान विधवा के प्यार, उसके किशोर बेटे की मानसिकता और अपराधबोध की कहानी तो है ही, उस उम्र की अकेली विधवा औरत का दर्द समझने का एक गंभीर प्रयास भी है। विधवा होने में उसका क्या कसूर? क्या उसे प्रेम करने और सहज जीवन जीने का अधिकार नहीं है? प्रश्न गंभीर हैं और इस कहानी का अंत इन प्रश्नों पर गंभीरता से सोचने को विवश कर देता है।</div><div><br /></div><div>कहानी “एक पैसे की कीमत” गये जमाने के एक पैसे और उसके मुकाबले आज के रुपयों की कीमत की तुलना करती एक मासूम और रोचक कहानी है। कहानी की बुनावट ऐसी है कि लगता है जैसे मुंशी प्रेमचंद की कोई कहानी पढ़ रहे हों।</div><div><br /></div><div>“हर सवाल का जवाब नहीं होता”, कहानी इस बात को शिद्दत से रेखांकित करती है कि जिंदगी में कुछ सवाल ऐसे उभर आते हैं, जिनका ढूंढ़ने पर भी कोई जवाब नहीं मिलता। शुरुआत में यह कहानी रोमांस और अधूरे प्रेम की कहानी लगती है, पर बाप और बेटे के बीच रिश्ते के उलझाव की यह कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, प्रेम के उफनती नदी-से उस रूप को सामने ले आती है जो अपने उतावलेपन में अच्छे—बुरे सबको समेटकर चलते हुए किनारों के बंध तोड़ देती है। कहानी का अंत कल्पना से परे तो है ही, मन को छूने वाला भी है।</div><div><br /></div><div>संग्रह के पन्ने पलटते हुए जैसे ही हम कहानी “मोना डार्लिंग” पर पहुँचते हैं, मन में अनायास यह विचार उठता है कि हम एक और प्रेम कहानी पढ़ने जा रहे हैं, पर यह हमारे सामने एक ऐसी वृद्धा की मार्मिक कहानी के रूप में सामने आती है जो बिलकुल अकेली रहती है। उसका इकलौता बेटा अपने परिवार के साथ विदेश में बस गया है और वह पराए लोगों में अपनापन ढूंढ़ती फिरती है।</div><div><br /></div><div>संकलन की अगली कहानी “रामलखन दु:खी नहीं हो पा रहा”, मानव मन का बारीकी से विश्लेषण करती जबरदस्त कहानी है। खुद और अपने परिवार के सुख-दुख को नजरअंदाज करके अपने अफसरों की दिन-रात खिदमत करने और फिर भी उनकी डाँट-डपट खाने के लिए अभिशप्त रामलखन अपने मन की खीज और उबाल को मन में ही दबाए रखने के लिए मजबूर है। पर, जब जंगल में एक पिकनिक के दौरान हुए हादसे में अफसरों और उनके परिवारों पर आफत टूट पड़ती हैं, तब उनकी दशा देख कर रामलखन चाह कर भी दु:खी नहीं हो पाता। शायद वह शोषित आदमी अफसरों और उनके परिवार के लोगों को प्रकृति की तरफ से दिए गए दंड में अपने प्रतिशोध को पूरा होते देख रहा होता है।</div><div><br /></div><div>बढ़ती उम्र मनुष्य के भीतर शारीरिक कमजोरियों के साथ मानसिक कमजोरियाँ भी बढ़ाती जाती है और यहां तक कि उसकी दृढ़ मान्यताओं को भी खंडित कर जाती है। कहानी “कमजोर आदमी” इस सत्य को बहुत सलीके से उद्घाटित करती है। यह कहानी जीवन के यथार्थ को तो सामने लाती ही है, वृद्धावस्था में अकेलेपन और उससे उपजे डर का सजीव और दिल छू लेने वाला चित्रण भी करती है।</div><div><br /></div><div>कहानी “फटा बस्ता” छोटी सी कहानी है, पर बड़ा प्रभाव उत्पन्न करती है। छोटे बच्चे का बस्ता इतना फटा हुआ है कि उसे स्कूल ले जाते उसे शर्म आती है। उसके संगी-साथी फटे बस्ते को लेकर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वह अपनी माँ से उसे सिल देने के लिए कहता है, पर अपनी व्यस्तता के चलते वह उसे सिर्फ आश्वासन ही दे पाती है। फटे बस्ते की सिलाई के बहाने यह कहानी विशेषकर गरीब घरों में महिलाओं की दयनीय स्थिति का बड़ा मुद्दा उठाती है। हमेशा दबी-दबी रहने वाली घरेलू महिला समय आने पर तन कर खड़ा होने का साहस भी रखती है, यह इस कहानी का केंद्रबिंदु नजर आता है।</div><div><br /></div><div>संग्रह की अंतिम कहानी “माँ के चले जाने के बाद” डॉ. रमाकांत शर्मा की बहुचर्चित कहानियों में से है। उन्होंने इस कहानी संग्रह की “अपनी बात” में लिखा है कि कथाबिंब में कहानी “माँ के चले जाने के बाद” प्रकाशित होने पर गुजराती-हिंदी के जाने माने साहित्यकार और कार्टून कोना ढब्बू जी के सर्जक आबिद सुरती जी ने उन्हें फोन किया और कहा, “आजकल मैं कहानियाँ पढ़ना शुरु करने के बाद ज्यादातर उन्हें अधूरा छोड़ देता हूँ, लेकिन आपकी यह कहानी मैं पूरी पढ़ गया। आपको फोन इसलिए किया कि जिस शख्स ने अपनी पूरी कहानी मुझे पढ़वा दी, उसे मैं कम से कम फोन पर तो बधाई दे दूं।“ वस्तुत: यह कहानी मां के चले जाने के बाद की स्थिति में पुत्र और पिता के बीच के रिश्ते की ऐसी कहानी है जो पाठक के मन पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती।</div><div><br /></div><div>डॉ. रमाकांत शर्मा कृत्रिम भाषा का प्रयोग किए बिना सीधी-सच्ची और सरल भाषा-शैली में अपनी बात रखते हैं। उनकी यह विशेषता और कहानी का जबरदस्त कथ्य कहानीकार और पाठक के बीच का भेद सहज ही मिटा देता है। इस संग्रह में शामिल सभी कहानियाँ रिश्तों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती हैं और पाठक को बांधे रखने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। जरूर पढ़ें और इनका आनंद लें।</div><div>***</div><div><br /></div><div><b>प्रो. अवध किशोर प्रसाद</b></div><div><span style="font-size: x-small;">WZ, 143/4 D, ग्राउंड फ्लोर, न्यू महावीर नगर, नई दिल्ली- 110018</span></div><div><span style="font-size: x-small;">चलभाष: 9599794129</span></div><span style="font-size: x-small;">ईमेल: akpdkundhur1940@gmail.com</span><hr />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
</div></div>Smart Indianhttp://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6942142568389593096.post-65236373377305295782024-02-29T15:42:00.001-05:002024-02-29T23:22:31.754-05:00सहज जीवन, दार्शनिक चिन्तन और प्रेम की गहरी भावनाओं से भरी कविताएँ<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs8LEs7_pWWcBxsFL9KLrljGakbJnjxHuhUOh22ypG5OtExh1lwwKna_DfuRogP-IXzkJbUE33cia2DgiJg8BayvK88VMj6ph-NkkEgZfS9NU3F7tiVhzpf3GT9dTdHAeVTn1KoZj0j-uL4xut3W14LjpivB7hBeQbmMLKYp-HUssLzfWiYJvf4NGqq70/s400/Toh-Anita-Saini-Deepti.png" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="400" data-original-width="300" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs8LEs7_pWWcBxsFL9KLrljGakbJnjxHuhUOh22ypG5OtExh1lwwKna_DfuRogP-IXzkJbUE33cia2DgiJg8BayvK88VMj6ph-NkkEgZfS9NU3F7tiVhzpf3GT9dTdHAeVTn1KoZj0j-uL4xut3W14LjpivB7hBeQbmMLKYp-HUssLzfWiYJvf4NGqq70/w150-h200/Toh-Anita-Saini-Deepti.png" width="150" /></a></div><h3 style="text-align: left;">विजय कुमार तिवारी</h3></div><div><br /></div><div><b>समीक्षित कृति: टोह (कविता संग्रह)</b></div><div><b>कवयित्री: अनीता सैनी 'दीप्ति'</b></div><div><b>मूल्य: ₹ 150/-</b></div><div><b>प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर</b></div><div><br /></div><div><br /></div><div>लेखन का सम्बन्ध जीवन से है, जीवन से जोड़कर ही देखा जाना चाहिए और प्रायः सभी रचनाकार अपना जीवनानुभव ही लिखते हैं। हम जिस समाज में रहते हैं, वहाँ बहुत कुछ हमारे जीवन को प्रभावित करता रहता है। लेखक उन विसंगतियों, विकृतियों, जटिलताओं व सुखद संगतियों की चर्चा करते हैं और सावधान, सचेत करते रहते हैं। कविता केवल आनंद की वस्तु नहीं है बल्कि वह हमारे हृदय में संवेदना जगाती है और आलोक फैलाती है। कोई अपने दुख से पीड़ित होता है, स्वाभाविक है, साथ ही साहित्य हमें दूसरों की पीड़ा के साथ खड़ा होना सिखाता है। वह हमारे भीतर की प्राण-चेतना को स्पंदित करता है और हमें उत्साहित करके जीवन्त बनाता है। श्रेष्ठ काव्य के पीछे मनुष्य और उसकी संवेदनाएँ होती हैं। सहमति/असहमति के बावजूद हर लेखक, कवि अपना धर्म निभाते हुए मनुष्य और उसके जीवन की उत्तम, सार्थक व्यवस्था के लिए लिखता है। हर रचनाकार के लेखन पर सहजता से विचार करना चाहिए, उसके लेखन की भाव-भूमि और उसके संघर्ष को समझना चाहिए परन्तु किसी भी परिस्थिति में सिरे से खारिज करने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए।</div>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2HjMt8AUWUsumLHKB7Jy1b0yIaNnCjDngGwJxRWVQx9PMr3q4sEXejtLt_YmFrdMHKO9hUJWEWYl9rVAASWhUd9GCvFjAPpYybMOqsd23AixPbhGJWbRjito6n6CK27PmmxzDIGXJhyFD5iVgIiJUrQ6ukXF6hUgkIjiAWmFxPj4tObaGLI9wXo9Y/s387/Vijay-Kumar-Tiwari.png" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="375" data-original-width="387" height="194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2HjMt8AUWUsumLHKB7Jy1b0yIaNnCjDngGwJxRWVQx9PMr3q4sEXejtLt_YmFrdMHKO9hUJWEWYl9rVAASWhUd9GCvFjAPpYybMOqsd23AixPbhGJWbRjito6n6CK27PmmxzDIGXJhyFD5iVgIiJUrQ6ukXF6hUgkIjiAWmFxPj4tObaGLI9wXo9Y/w200-h194/Vijay-Kumar-Tiwari.png" width="200" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe; font-size: x-small;">विजय कुमार तिवारी</span></td></tr></tbody></table>
<div>अभी जयपुर, राजस्थान की कवयित्री अनीता सैनी 'दीप्ति' का दूसरा काव्य संग्रह "टोह" मेरे सामने है। इस संग्रह में गीत, नवगीत के साथ-साथ उनकी कुल 78 कविताएँ संग्रहित हैं। कवि, लेखक, समीक्षक राजाराम स्वर्णकार ने इस संग्रह को लेकर विस्तृत विवेचना की है। उन्होंने लिखा है-'कवयित्री ने मन की अनेक परतें इन कविताओं में खोली हैं और पाठकों की आँखों में उल्लास और उजास भरने का प्रयत्न किया है।' उन्होंने यह भी माना है- 'ये कविताएँ प्रेम से सनी हुई हैं, पर प्रेम के नाटक से नहीं। देह-तृष्णा से इनका कुछ भी लेना देना नहीं है। इनमें कुछ कविताएँ आध्यात्मिक मन की उपज हैं, पर उनमें पाखण्ड का अध्यात्म नहीं है। ये मन की छटपटाहट से उपजती हैं न कि मन की वायवीय तरंगों से।' डा० ऋचा शर्मा ने ''अनंत संभावनाओं की कविताएँ'' शीर्षक से सहज, सटीक टिप्पणी की है। वैसे ही कल्पना मनोरमा ने ''माटी की खुशबू और पीढ़ियों के दर्द की कविताएं'' शीर्षक के अन्तर्गत इन कविताओं पर सम्यक चिन्तन किया है। रवीन्द्र सिंह यादव ने लिखा है- ''स्त्री विमर्श, किशोर वय के अन्तर्द्वन्द्व, आध्यात्मिक चेतना से लेकर प्रकृति चित्रण तक कविताओं में गहन भावों और टोही दृष्टिकोण की प्रधानता है।'' इस तरह इतने सम्यक और पर्याप्त विवेचनाओं के बाद और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXTd2xHTIY2qrrQob5Msz3b6WVIsNA4zt-Ehif_Xi_2JrcRa6BXUwL8UDuxsukn9dK04W1XZBzeX4-y7VCgrMt-TsfjdrM7zMDdwoVBx-n9lmyBnwX6aqAtmcRaCqxPd7XUrfrpMv-vYUf459OPsrJK4q7MlqV2Lx_fwSVgx5MM_VCg4X1MGIcG6LdfNg/s698/Toh-back-Cover.png" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="698" data-original-width="468" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXTd2xHTIY2qrrQob5Msz3b6WVIsNA4zt-Ehif_Xi_2JrcRa6BXUwL8UDuxsukn9dK04W1XZBzeX4-y7VCgrMt-TsfjdrM7zMDdwoVBx-n9lmyBnwX6aqAtmcRaCqxPd7XUrfrpMv-vYUf459OPsrJK4q7MlqV2Lx_fwSVgx5MM_VCg4X1MGIcG6LdfNg/s320/Toh-back-Cover.png" width="215" /></a></div>'बुद्ध' कविता में ममता के पदचाप, मानवता की छाप, पंछी के आलाप और समता के हर जाप में बुद्ध निर्विकार, प्रबुद्ध, मौन व करुणा से भरे हुए दिखाई देते हैं। 'टोह' प्रेम भरी प्रबल भावनाओं को विस्तार देते हुए नायिका के साज-श्रृँगार और मधुरतम समर्पण भावों को दिखाती है। कवयित्री के पास हर भाव-विचार के लिए सम्यक शब्द हैं, शैली और रस, छन्द, अलंकार हैं। 'कैसे लिखूँ?' प्रेम के गहनतम चिन्तन भाव की कविता है जिसे व्यक्त कर पाना सहज नहीं है। उनकी कविताओं में बिंब चमत्कृत करते हैं, कोई आलोक फैलाते हैं और पाठक मन को बाँधते हैं। वह इसे बोधगम्यता कहना चाहती हैं और चित्र खींचती है, गहराई तक बेधने वाला। 'सुन रहे हो न तुम!' कविता में व्यापक चिन्तन करते हुए कविता को परिभाषित करने का प्रयास उनकी गहरी समझ प्रदर्शित करती है-कविता साधना है/तपस्या, तप है किसी का/भूलोक पर देह छोड़/भावों के अथाह सागर में/ मिलती है कविता/ भाव उलझते हैं देह से/देह सहती है असहनीय पीड़ा/तब बहती है कविता। कविता प्राण है, किसी की आत्मा, किसी का प्रेम, किसी का स्वप्न, किसी का त्याग और किसी की वर्षों की तपस्या की देह है। वह विष का प्याला पीती मीरा है, कान्हा के संग थिरकती राधा है और बार-बार अग्निपरीक्षा से गुजरती सीता है। उनकी सहज भावनाएँ देखिए-तुम रौंदते हो वह रो लेती है/तुम सहारा देते हो वह उठ जाती है/तुम प्रेम करते हो वह खिलखिला उठती है। यह बिंब भी देखिए-कविता/कोकून में लिपटी तितली है/उड़ती है/बस उड़ती ही रहती है।</div><div><br /></div><div>हर वर्ष हमारे लिए नए-नए संदेश लाता है, कवयित्री के साथ वर्ष 2022 कहता है- "मैं उल्लास लाया हूँ, साहस का पता, कटोरा भर उजास लाया हूँ और स्वयं प्रीत का लिबास पहनकर आया हूँ।" 'विरह' प्रतीक्षारत विरही जीवन की वस्तुस्थिति से ओतप्रोत कविता है। वह नाना तरह की अनुभूतियों से गुजरती रहती हैं और नाना दृश्य बिंबों में उन भावनाओं को 'दिल की धरती पर' कविता में संजो देती हैं। 'संकेत' कविता पीड़ादायक स्थितियों की ओर इंगित करती है-प्रकृति का असहनीय पीड़ा को/भोगी बन भोगते ही जाना/संकेत है धरती की कोख में/मानवता की पौध सूखने का। उनके पास बिंब भरे पड़े हैं, वे जीवन के नाना प्रसंगों से जोड़ती रहती हैं, प्रश्न करती हैं, उत्तर तलाशती हैं, भीतर ही भीतर बेचैन होती हैं और गहन अनुभूतियों के साथ 'मरुस्थल' कविता लिखती हैं। प्रबल भावनाएँ अक्सर दायरे में बँध नही पातीं, यह उनका भटकाव नहीं बल्कि उड़ान है जिसे पाठक एक कविता को दूसरी से जोड़कर समझ सकते हैं। 'हूँ' देखने में सहज संवाद, सीधी-सादी बातचीत की कविता लगती है परन्तु भाव बहुत गहरे हैं जिसे प्रेमी, प्रतीक्षारत मन ही समझ सकता है। 'निमित्त है तू' जीवन में हौसला भरती, आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती, दार्शनिक चिन्तन की कविता है। कवयित्री के मन की परतें खुलती हैं इन कविताओं में, उनके जीवन में धैर्य और प्रतीक्षा है, भावनाओं का उबाल है। 'तर्कशील औरतें' की पंक्तियाँ देखिए- तर्कशील औरतों ने/भटकाव को पहलू में/बिठाना छोड़ दिया है/लीक पर चलना/सूरज के इशारे पर/छाँव की तलाश में/पेड़ की परिक्रमा करना/सामाजिक वर्जनाओं को/धारण करना भी छोड़ दिया है। यह एक तरह का विरोध या बगावत है। यह पंक्ति बहुत कुछ कह देती है-उपेक्षाओं के परकोटे को तोड़/रिक्तता की अनुभूति उन्हें/ऊर्जावान/और अधिक ऊर्जावान बनाती है। गहन बेचैनी, पीड़ा के नाना उदाहरणों से भरी कविता है 'उसके तोहफे' और शायद कवयित्री का मन किसी व्यंग्य भाव से भरा हुआ है। उनकी कविताओं का आसमान बड़ा है, बहुत कुछ समेट लाता है-संगतियों-विसंगतियों के अनेकों दृश्य। 'कैसा करतब है साहेब?' या 'बोलना चाहिए इसे अब' जैसी कविताओं का विस्तार बहुत कुछ खोलकर रख देता है। भाव-संवेदनाओं से भरी कविता है 'ममतामयी हृदय'। 'उस रोज' में स्वीकार भी है और गहन पीड़ा भी, पंक्तियाँ देखिए-उस रोज/घने कोहरे में/भोर की बेला में/सूरज से पहले/तुम से मिलने/आई थी मैं/लैंप पोस्ट के नीचे/तुम्हारे इंतजार में/घंटों बैठी रही/एहसास का गुलदस्ता/दिल में छुपाए। कवयित्री आगे लिखती हैं-पहनी थी उमंग की जैकेट/विश्वास का मफलर/गले की गर्माहट बना/कुछ बेचैनी बाँटना/चाहती थी तुमसे। ऐसी सहज कविताएँ बहुत कुछ कह देती हैं सरलता से, सहजता से।</div><div><br /></div><div>वे वर्तमान में जीती हैं और बेचैनी बाँटना चाहती हैं, 'आज' में लिखती हैं-हवाओं में छटपटाहट/धूप में अकुलाहट है। यह कोई बेचैन मन ही अनुभव कर सकता है। 'अबोलापन' त्रासद स्थितियों का मनोविज्ञान बताती है और मौन के पीछे की बेचैनी भी। श्रृँगार के साथ उल्लसित मन-भाव लिए कविता 'मेहँदी के मोहक पात' किन्हीं सुखद क्षणों का दर्शन करवाती है। ऐसा कम ही होता है पर जब होता है तो खूब होता है। 'समय दरिया' उल्लास, कर्तव्य-निष्ठा और किंचित जीवन-दर्शन लिए जीवन बोध की कविता है। 'शब्द' सुखद बिंबों से भरी प्रेम-यात्रा की कविता है। ऐसे भाव की रचना साहित्य की धरोहर तो है ही, कवयित्री के शुद्ध मन की सुखद उड़ान भी है। सच ही कहा गया है, संयोग से अधिक वियोग के क्षण जीवन को सार्थक गति देते हैं। उन्होंने प्रश्न की शैली को अपनी कविताओं में अपनाया है, जब भी कोई प्रश्न पूछती हैं साथ में उभरता है कोई व्यंग्य भी। 'हे कवि!' पूरी की पूरी कविता में यह भाव-प्रवणता और अन्तर्विरोध अनुभव किए जा सकते हैं। अजन्मा एक गीत, घुट्टी और धूलभरे दिनों में जैसी कविताएँ पाठकों को किन्हीं अबूझ भावनाओं में सहजता से उतार लाती हैं। कवयित्री को भीतर प्रश्रय प्राप्त भावनाओं की समझ है और वे सहजता से कविता में रच देती हैं। उनके पास शब्दावली है, शैली है और दृश्य चित्रित करने की कला भी। वे कुछ भी छिपाना नहीं चाहती, सहजता से स्वीकार करती हैं अपना प्रेम, अपनी पीड़ा और पाठकों के मन को सहला देती हैं। उनकी विशेषता यह भी है, वे जीवन-दर्शन का पाठ पढ़ाती चलती हैं। 'एक यथार्थ' कविता के सारे बिंब जीवन-दर्शन समझाते हैं, वीभत्स दृश्य झकझोरते हैं और सच्चाई लहूलुहान करती है।</div><div><br /></div><div>इस संग्रह में प्रेम, विरह, प्रतीक्षा जैसी भाव-संवेदनाओं की अनेक कविताएँ हैं मानो उनके जीवन के ये स्थायी भाव हैं और भीतर उथल-पुथल मचाए रहते हैं। सहज नहीं होता इनसे बच निकलना। उन्होंने सहजता से स्वीकार किया है और साथ जीना सीख लिया है।</div><div><br /></div><div>'कुछ पल ठहर पथिक' उम्मीद जगाती, दुनियादारी सिखाती और सहजता के साथ कुछ ठहर कर विश्राम का संदेश देती कविता है। हिन्दी, उर्दू, राजस्थानी शब्दों के साथ उनकी कविताएँ गहरे अनुभवों में ले जाती हैं और अंतस में आलोक फैलाती हैं। 'मैं और मेरा अक्स' स्वयं का स्वयं के साथ कोई मूल्यांकन परक संवाद है। हम नाना अन्तर्विरोधों, संयोगों में जीते हैं और उलझते-सुलझते रहते हैं। 'समझ के देवता' स्वतः स्पष्ट कविता है, सब कुछ व्यक्त कर रही है। ऐसी अनुभूतियाँ तभी होती हैं जब हमारी प्राण-चेतना जगी रहती है और सब कुछ देख पाती है। 'माँ कहती है' कविता नाना बिंबों के साथ औरत का कोई विराट मानवीय स्वरूप चित्रित करती है जहाँ प्रेम है, करुणा, सौन्दर्य और पीड़ा से भरी संवेदनाएँ हैं, पंक्तियाँ देखिए-परन्तु मां कहती है/औरतें गमले में भरी मिट्टी की तरह होती हैं/खाद की पुड़िया उनकी आत्मा की तरह होती है/जो पौधे को पोषित कर हरा-भरा करती है। ऋतु वसंत, साथी, प्रेम, समर्पण, दुछत्ती और यथार्थ जैसी कविताएँ प्रकृति, मौसम और मानवीय भावनाओं को सहजता से बुनती हुई दिखाई दे रही हैं। कवयित्री सर्वत्र जीवन सूत्र पकड़ लाती हैं और भिन्न अनुभूतियों से भर देती हैं। यथार्थ को लेकर कविता का व्यंग्यात्मक दृश्य देखिए-हर कोई यथार्थ के चंगुलों में/यथार्थ खाते हैं, यथार्थ पहनते हैं/यथार्थ संग सांसें लेते हैं/यथार्थ के आगोश में बैठी/जिंदगियाँ हिपनोटाइज हैं/जिन्हें समझ पाना बहुत कठिन/समझा पाना और भी कठिन है।</div><div><br /></div><div>'31 दिसंबर' का मानवीकरण स्वरूप, उसके साथ व्यवहार और संवाद अद्भुत है। किसी के चुपचाप चले जाने के प्रभाव का मार्मिक चित्रण हुआ है इस कविता में। 'सुराही पर' प्रेम की गहन भावनाओं से भरी प्रतीक्षारत नायिका की विरह-व्यथा, उत्साह और उम्मीदों की अद्भुत कविता है। कवयित्री ने बहुत ही सहज, स्वाभाविक और सच्चाई से भरा दृश्य लिखा है। वह प्रियतम बड़भागी है जिसे ऐसी प्रियतमा मिली है। शब्द, कैसे?, बहुत बुरा लगता है जैसी कविताओं में उनके प्रश्न और स्थिति-परिस्थिति का चित्रण झकझोरते हैं, विह्वल और दुखी करते हैं। 'बहुत बुरा लगता है' कविता की पंक्तियाँ हर स्त्री के मन की आवाज है-परन्तु बहुत बुरा लगता है तुम्हारे द्वारा/पुकारे जाने की आवाज को अनसुना करना। 'देखो, तुम अपने पैरों की तरफ मत देखो' सहज, सकारात्मक भाव-चिन्तन की कविता है। उसी की अगली कड़ी है 'चलिए कुछ विचार करते हैं'। संदेश यही है, हमें दुखों में पड़े रहना नहीं है, यह दुनिया बड़ी खूबसूरत है, हमें इसके साथ सुखद जीवन जीना है। 'एक साया' जीवन में व्याप्त अतृप्ति, सुषुप्तावस्था, कुंठा, लिप्सा, तृष्णा, कलुषता, असंख्य रोगों से भरा, चिंता रूपी ज्वरों से ग्रसित, मानवीय मूल्यों का हनन करता, संकीर्णता, कुकर्म करता आदि के दृश्य दिखाती यथार्थ कविता है। पिता और पति की अनुपस्थिति में बेटी का जन्मदिवस मनाने के सहज, प्रेमिल भावनाओं से भरे दृश्य किसी को भी भावुक कर सकते हैं, कवयित्री के भाव देखिए-भेंट नहीं मन्नत में मांगी थी दुआ/अगले जन्मदिवस पर हो/शीश पर तुम्हारा हाथ। 'कौन हूँ मैं?' हर माँ की ओर से पूछा गया प्रश्न है। हर स्त्री जिसका पति कहीं दूर किसी सीमा पर है या किसी दूसरे शहर में, ऐसा ही करती है-वह कभी पिता बनती है, कभी मूर्तिकार और कभी माँ ताकि बच्चों के प्रति सारी जिम्मेदारियाँ निभा सके। स्त्री का विराट व्यक्तित्व उभरा है इस कविता में और उन्होंने सहज भाव से समर्पित, श्रमशील स्त्री का चित्रण किया है जिसे मान-सम्मान, मर्यादा सबका ध्यान है। ऐसी रचनाएँ सहज, सुलझे मन से ही निःसृत हो सकती हैं। अनीता सैनी 'दीप्ति' परिपक्व, समझदार और प्रेम से भरे मन की उम्मीदों वाली कवयित्री हैं।</div><div><br /></div><div>'सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए' स्मृतियों के सहारे सहज स्वीकार की कविता है। 'आँखोड़ा' रथ में जुते घोड़े की पीड़ा अनुभूति करती मार्मिक रचना है-आँखों पर आँखोड़ा/खुरों में लोहे की नाल को गढ़ा/दौड़नेवाले की पीड़ा का आकलन नहीं/दौड़ानेवाले को प्राथमिकता थी। यहाँ प्रश्न हैं, उत्तर और पीड़ित मन की भाव-संवेदनाएँ भी हैं। 'तुम्हारी याद में' और 'जब भी मिलती हूँ मैं' कविताएँ स्मृतियों के सहारे सुखद क्षणों को मार्मिकता के साथ मूर्त करती हैं। भीतरी पीड़ा से निजात पाने की अद्भुत कला है कवयित्री के पास और बिंबों के साथ विस्तार पाता सृजन चमत्कृत करता है। 'परिवर्तन सब निगल चुका था', 'वर्तमान की पीर' और गुजरे छह महीने कोरोना काल की दुःसह स्थितियाँ चित्रित करती रचनाएँ हैं जिसमें मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन प्रभावित हुआ था। 'क्षितिज पार दूर देखती साँझ' प्रतीक्षारत आँखों में भावशून्यता के बोध की कविता है। बिंब यहाँ भी चमत्कृत करते हैं और पीड़ित मन की व्यथा चित्रित हुआ है इन पंक्तियों में। 'मैं और मेरा मन' कविता सहज स्वीकारती है-आँखों में आसुरी शक्ति का सार/वैचारिक द्वन्द्व दिमाग पर हावी/भोग-विलास में लिप्त इच्छाएँ अतृप्त। वह मनुष्य की दशा पर मार्मिक दृश्य रचती हैं-मन सुबक-सुबककर रोया/आँख का पानी आँख में सोया। 'मर्तबान' और 'यादें' कविताएँ उन्हें स्मृतियों में ले जाती हैं-मर्तबान को सहेज रखती थी रसोई में/मखमली यादें इकट्ठा करती थी उसमें/जब भी ढक्कन हटाकर मिलती उनसे/उसी पल जुड़ जाती अतीत के लम्हों से। यादें कविता का भाव देखिए- विहग दल की भाँति/डैने फैलाए लौट आती हैं यादें। उनकी हर कविता में बिंब धमाल मचा देते हैं और अद्भुत दृश्य चित्रित करते हैं। यह कवयित्री के व्यापक अनुभव और गहन अनुभूतियों के चलते ही सम्भव होता है। </div><div><br /></div><div>विरह उनकी कविताओं में चतुर्दिक पसरा हुआ है फिर भी उनके मनोभाव सब कुछ सम्हालने के ही हैं, बिछुए कविता में लिखती हैं-जीवन मूल्यों की धनी/जबान पर सुविचार रखती/संस्कार महकते देह पर/अपेक्षा की कसौटी पर सँवरती/सत्कर्म हाथों में पहन/मृदुल शब्दों का दान करती/उलझनें पल्लू में दबा/आँगन में चिड़िया-सी चहकती/कोने-कोने से बटोरती प्रीत/कभी पेट पकड़ भूखी सो जाती। ये सारे बिंब किसी वियोगिनी के बिछुए-सा उनकी अंगुलियों में उलझे रहते हैं। 'घर से भागा लड़का' वस्तुस्थिति और सच्चाई व्यक्त करती कविता है। ये सारे अनुभव यथार्थ हैं और किसी को आसपास देखे हुए हैं। नागफनी और बादल के टुकड़े की मार्मिक स्थितियाँ उभरी हैं इस कविता में-बादल की प्रीत में खोई-खोई बौराई/बरसा न गरजा जीवन पर रोई नागफनी/नुकीले कांटे हेय दृष्टि का भार बढ़ा/ सजी न सँवरी न आँगन का मान मिला। कलम की व्यथा, जिंदगी और सरहद जैसी कविताएँ वेदना की गहन अनुभूति रचती हैं। 'वह देह से एक औरत थी' हमारे समाज में अस्तित्वहीन होती औरत की स्थिति पर सटीक चित्रण है, कवयित्री की स्थिति देखिए-मैंने भी अपने अंदर की औरत को/आहिस्ता-आहिस्ता खामोश किया/पूर्णरूप से स्वयं का जामा बदला/उस औरत को मिटते हुए देखने लगी। 'इंसानियत' कविता में उनकी सोच का व्यापक विस्तार हुआ है। अतीत की ओर से 'एक चिट्ठी वर्तमान के नाम' लिखी गई है, कवयित्री द्वारा यह कोई साहित्य का नूतन प्रयोग है और कविता का विस्तार आँखें खोलने वाला है। भूत, भविष्य और वर्तमान की स्थितियों का सटीक चित्रण हुआ है, बिल्कुल ऐसा ही होता है। उपदेशात्मक कहानी की तरह यह कविता ऐतिहासिक संदर्भों का उल्लेख करती है और भूत से वर्तमान और भविष्य की जीवन यात्रा का सच बताती है।</div><div><br /></div><div>कवयित्री को शायद नागफनी की एकांतिकता सहज प्रिय है, कहीं कोई साम्यता का भाव जागता है, लिखती हैं-नितांत निर्जन नीरस/सूखे अनमने/विचारशून्य परिवेश में/पनप जाती है नागफनी/जीवन की तपिश/सहते हुए भी/मुस्करा उठती है/महक जाते हैं/देह पर उसके भी/आशा के सुंदर सुमन। यह प्रसंग देखिए-जीवन जीने की ललक में/पनप जाते हैं/कांटे कोमल देह पर। यह उम्मीद जगाती, संघर्ष का संदेश देती कविता है। सालों बाद मुझे 'पन्ना धाय' पर कुछ पढ़ने को मिला है। बचपन में कोई पुस्तक पढ़ी थी जिसमें पन्ना धाय के विराट चरित्र पर कहानी थी। अक्सर उनके त्याग की कथा पढ़ते हुए भावुक हो रो पड़ता था। यह भी याद है मुझे, बार-बार पढ़ता था और बार-बार विह्वल होता था। मेरा बाल मन दूसरे विकल्पों पर बार-बार विचार करता और दुखी हो उठता था। तब कर्तव्यनिष्ठा, संकल्प, देशप्रेम और त्याग की अवधारणाओं से परिचित नहीं था। इस कहानी ने मुझे बहुत बदल दिया और बाद के दिनों में जो कुछ भी हूँ, सहज मन से पन्ना धाय का प्रभाव मानता हूँ। बीज तो पड़ ही चुके थे। पन्ना धाय के अपूर्व बलिदान के समकक्ष कोई दूसरी कहानी नहीं है संसार में। उनकी पंक्तियाँ देखिए-चित्तौड़ के किले की ऊँची सूनी दीवारों में/गूँजता तुम्हारा कोमल कारुणिक रुदन/सिसकियों में बेटे चंदन की बहती पीड़ा/दिलाती याद अनूठी स्वामीभक्ति की। मीँ की ममता जनित उस पीड़ा को उन्होंने अपनी पंक्तियों में सहेजने, समझने और अनुभव करने की कोशिश की है। प्रेम के गहन भाव की कविता है 'दुआ में'। सारी तैयारियाँ गहन समर्पण के साथ तरंगित करने वाली और सारे मनोभाव आनंद देने वाले हैं।'सफेदपोशी' वर्तमान दौर की सच्चाई है, उनकी प्रार्थना देखिए-सौन्दर्यबोध के सिकुड़ रहे हों पैमाने/दूसरों का भी हड़पा जा रहा हो आसमां/तब खुलने देना विवेक के द्वार/ताकि पुरसुकून साँस मानवता लेने लगे। मीराबाई के कान्हा-प्रेम और उदात्त जीवन की कहानी पर 'मीराबाई थी वह' कविता है। नाना बिंबों में कवयित्री ने उनके कथ्य-कथानक को अपनी कविता की सहज पंक्तियों में सहेजा है।</div><div><br /></div><div>'निर्वाण(मनस्वी की बुद्ध से प्रीत)' संग्रह की सशक्त, बड़ी कविता है जिसमें कवयित्री ने अपनी सम्पूर्ण अनुभूतियों को समर्पित किया है और मन के नाना भाव चित्रित हुए हैं। इस कविता में 'टोहती' शब्द है जिसके आधार पर अनीता सैनी 'दीप्ति' ने अपने संग्रह का नामकरण "टोह" किया है। यहाँ बिंब हैं, प्रसंग हैं, भाव-संवेदनाएँ हैं और संवाद भी है। बुद्ध की स्वयं की खोज और तत्वज्ञान की समझ ही इसके मूल में है, पंक्तियाँ देखिए-बुद्ध तत्व की अन्वेषणा, मनस्वी कानन-कानन डोले/बुद्ध छाँव बने, बुद्ध ही बहता झरना बन बोले/हे प्रिय! पहचानो नियति जीवनपथ की/कंकड़-पत्थर, झाड़-झंखाड़ गति जीवनरथ की। यह भाव देखिए-हे प्रिय! तुम करुणा के दीप जलाना/दग्ध हृदय पर मधुर शब्दों के फूल बरसाना/अंकुरित पौध सींचना स्नेह के सागर से/प्रेम-पुष्प खिलेंगे छलकाओ सुधा मन गागर से। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण दार्शनिक चेतना का बुद्ध तत्व में विस्तार देते हुए किंचित जटिल भावों के साथ सृजन किया है। 'नेम प्लेट' कविता बहुत कुछ कहती है और सारी स्थितियाँ स्पष्ट हैं। घर का मुखिया कहीं दूर परदेश में रहता है, कभी-कभार आता है पर घर के दरवाजे पर उसके नाम 'नेम प्लेट'लगा हुआ है। अद्भुत भाव-चिन्तन उभरा है इस नेम प्लेट के साथ। 'कैसी हवा बुन रहे हो साहेब?' भिन्न भाव-दृश्य लिए झकझोरने वाली कोई व्यंग्य-सी कविता है। कभी-कभी उनके मन की उड़ान को समझ पाना सहज नहीं लगता, शायद स्वयं में या उनके जीवन में, चिन्तन में कोई भटकाव, बेचैनी, व्यथा, पीड़ा स्थायी रूप से बिखरा हुआ है। यह भी हो सकता है, मनुहार के साथ, प्रेम से, मुस्कराते हुए आत्मीय क्षणों में पूछती हों-'कैसी हवा बुन रहे हो साहेब?' उन्होंने बहुत पहले से सब कुछ पढ़ना सीख लिया था जब कोई नही पढ़ पाता था, 'मौन से मौन तक'' कविता की पंक्तियाँ देखिए-बुजुर्गों का जोड़ों से जकड़ा दर्द/उनका बेवजह पुकारना/पिता की खामोशी में छिपे शब्द/माँ की व्यस्तता में बहते भाव/भाई-बहनों की अपेक्षाएं/वर्दी के लिबास में अलगनी पर टंगा प्रेम। यह शिक्षा जीवन के अनुभवों से मिलती है। कवयित्री की यह पंक्ति व्यथित करने वाली है-उस समय जिंदा थी वह/स्वर था उसमें/हवा और पानी की तरह। यह गहन मौन हो जाने की कविता है। संग्रह की अंतिम कविता है 'ग्रामीण औरतें' जिसमें स्त्री के अस्तित्व को लेकर समान चिन्तन दिखता है। कवयित्री खुलकर कहना चाहती हैं, ग्रामीण औरतों के लिए सब कुछ वैसा ही होता है-माताएँ होती हैं इनकी/ये खुद भी माताएँ होती हैं किसी की/इनके भी परिवार होते हैं/परिवार की मुखिया होती हैं ये भी। अंत की पंक्तियाँ देखिए-सावन-भादों इनके लिए भी बरसते हैं/ये भी धरती के जैसे सजती-सँवरती हैं/चाँद-तारों की उपमाएँ इन्हें भी दी जाती हैं/प्रेमी होते हैं इनके भी, ये भी प्रेम में होती हैं। अद्भुत भाव-चिन्तन है इस कविता में।</div><div><br /></div><div>इस तरह देखा जाए तो अनीता सैनी 'दीप्ति' के अनुभव का दायरा व्यापक है, प्रकृति के सारे बिंब उन्हें काव्य रचना में सहायक हैं, विरह-वियोग से भरा प्रतीक्षारत जीवन उनकी रचना में स्वतः उभरता है। वे रुकती नहीं, सक्रिय होती हैं, कोई सकारात्मक राह तलाशती हैं और अपना दायित्व निभाती हैं। उनकी शैली आकर्षित करती है, भाषा में सहजता और चिन्तन में दार्शनिकता है। विरह-वियोग में भटकाव की संभावना को उनकी कविताएँ नकारती हैं और मान-सम्मान, मर्यादा की रक्षा करना उनका उद्देश्य है।</div>
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<a href="https://www.setumag.com/2024/02/Top-Hindi-Lit-Journal.html">सेतु, फ़रवरी 2024</a>
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