प्रकाशक - जी एस पब्लिशर डिस्टिब्यूटर, दिल्ली
पृष्ठ - 133
मूल्य : ₹ 395/-
बदलती सदी की धमक है - 'मूल्यहीनता का संत्रास'
वर्तमान समय में लघुकथा सर्वाधिक मान्य व चर्चित विधा है। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा व
आपाधापी के दौर में कम से कम समय में पढ़ी जाने वाली लघुकथा का मानव जीवन पर
बहुआयामी प्रभाव देखा जा सकता है। लघु आकारीय, कथ्य की सुगढ़ता, सार्थक शीर्षक, मारक व प्रभावी अंत के कारण यह छोटी सी रचना
मनुष्य की दशा और दिशा दोनों ही बदलने की सामर्थ्य रखती है। लघुकथा की स्वीकार्यता
का प्रमुख कारण है कि इसमें समसामयिक विसंगतियों, विद्रूपताओं को समेटने की अपूर्व क्षमता है।
अनेकानेक लब्धप्रतिष्ठित लघुकथाकारों, आलोचकों ने इस विधा को प्रतिष्ठित विधा बनाने
में निरंतर प्रयास किया है। सुविख्यात लघुकथाकार एवम लघुकथा के सशक्त हस्ताक्षर
श्री बलराम अग्रवाल एवम डॉ अंजना अनिल की भूमिका से महत्वपूर्ण भूमिका के साथ नारी
जीवन की कुंठाओं,
त्रासदी, संवेदना तथा पुराने खोल से बाहर निकलने की तड़फ
से परिपूर्ण डॉ लता अग्रवाल का नारी चेतना पर आधारित लघुकथा संग्रह प्राप्त हुआ।
अनुभवी साहित्यकार डॉ
लता अग्रवाल द्वारा रचित 'मूल्यहीनता का सन्त्रास' उनका पहला लघुकथा संग्रह है। 133 पृष्ठ के इस संग्रह में 100 लघुकथाएँ समाहित हैं जो निम्न वर्गीय, मध्यम एवम उच्च वर्गीय तीनों ही समाज की नारी को
केंद्र में रखकर लिखी गई लघुकथाएँ हैं। संवेदनशील लघुकथाकार ने परिवेशगत पुरानी
मान्यताओं के दबावों के साथ-साथ नई पीढ़ी के बदलते तेवर को सफलता पूर्वक अभिव्यक्त
किया है। दरअसल तेजी से बदलती परिस्थिति में नारी की भूमिका भी बदली है। समाज में
अपनी उपस्थिति दर्ज कराने, समानता का हक पाने व अन्य अधिकारों के प्रति
नारी सजग हुई है। अब वह प्रतिप्रश्न करती है, अपने खिलाफ हो रहे षडयंत्र एवम अत्याचार के
खिलाफ आवाज उठाती है इतने पर भी बात न बने तो विद्रोह के स्वर तेज करती है।
प्रस्तुत संग्रह में लता जी ने ऐसी बहुसंख्यक बढ़िया लघुकथाएँ दी हैं जिन्हें
वास्तव में नारी चेतना की लघुकथाएँ कहा जा सकता है, यथा – ‘मोक्ष’, ‘एकलव्य’, ‘प्रतिमा’, ‘विसर्जन’, ‘सांझा दुख’, ‘आशीष’, ‘मैं ही कृष्ण हूँ’, ‘संशय का भूत’, ‘सुहाग चिन्ह’, ‘शोध’ आदि लघुकथाएँ इस श्रेणी की लघुकथाएँ हैं। काम वाली बाई को लेकर लिखी लघुकथा ‘ईमान’, ‘मर्दानगी’ पुरुष वर्चस्व वादी सोच के चलते शोषण व अन्याय
को दर्शाती हैं। ‘ना का मतलब ना’ जैसी कथा अपनी देह की स्वतंत्रता को लेकर नारी की दृढ़ता है।
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डॉ शील कौशिक |
आज मूल्यहीनता के दौर
में देख, सुन और भोग सभी रहे हैं मगर
इन विषयों पर खुलकर कहने, विद्रोह करने और समाधान ढूंढने से परहेज करते हैं। इस पक्ष से
लेखिका बधाई की पात्र है उन्होंने नारी के अंतर्मन की संवेदनाओं को झिंझोड़ने वाले
यथार्थ को वाणी दी है। इस दृष्टि से ‘सुहाग चिन्ह’ उत्तम लघुकथा है जो तार्किक
आधार पर बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा करती है साथ ही पुरातन मान्यताओं का विखंडन करती है। ‘बलात्कार’ लघुकथा में एक बार दैहिक
दुष्कर्म की शिकार लड़की को जब बार-बार समाज के तानों, घूरती निगाहों, अपनों के उलाहनों व अदालतों में प्रश्नों का
सामना करना पड़ता है तो वह उस कुछ पल की पीड़ा से कहीं अधिक तकलीफ देह होती है।
लघुकथा का यह वाक्यांश,
"तन से एक बार, मन से बार-बार पूरा समाज अपने तरीके से तान्या
का बलात्कार कर रहा था।" लेखिका इस मर्म को स्थापित करने में सफल रही है।
समृद्ध बनाम गरीब लोगों
की संवेदना के अंतर को दर्शाती लघुकथा है ‘अवतार’ गरीब
रिक्शा चालक हृदयाघात पीड़ित व्यक्ति को अस्पताल ले जाकर उसकी जान बचाता है जबकि
स्वार्थपरता के चलते अमीर अनदेखी कर देता है। लेखिका ने ऐसे लोगों पर तंज कसते हुए
कहा है -'किंतु, कार पर चढ़े काँच की तरह लोगों की भावनाओं पर भी काँच
चढ़े थे।' जीवन सन्ध्या की ओर अग्रसर
बुजुर्गों की समस्याओं और विवशताओं का जीवंत चित्रण डॉ लता ने
किया है। कहीं अकेलापन दूर करने के लिए ‘व्हाट्सएप’ लघुकथा में व्हाट्सएप
का सहारा लेने की बात है तो वहीं ‘वादा’ लघुकथा में बच्चों की अवहेलना की
पराकाष्ठा दर्द दे गई जब जीते जी बेटा माँ की उपेक्षा करते माँ को गंगा स्नान न
करवा पाने की स्थिति में मरने के बाद माँ की पार्थिव देह को गंगा स्नान कर करा
अपने वादे की इतिश्री करना चाहता है। प्रासंगिक तथ्य है यह जो डॉ लता ने कथा में
पिरोया है। साहित्य समाज का आईना है इस कथा के आधार पर हम कह सकते हैं।
‘साँझ बेला’ में पति को पत्नी की मृत्यु के बाद उसके
योगदान का एहसास होता है, ‘छूत का रोग’ लघुकथा में जन्म देने वाली माँ को कूड़ा करकट समझ वृद्धाश्रम छोड़ आना अपनी
जन्नत को ठुकराना है। माँ का दर्द छू गया, "मेरे बेटे-बहू को भी घर की साफ-सफाई का रोग लग
गया है" युवा पीढ़ी से प्रश्न करती कथा है। नई पीढ़ी द्वारा माता पिता के प्रति
कुंद होती संवेदना प्रदर्शित करती एक और अच्छी लघुकथा है ‘31 जा महीना' जो नए कलेवर में पीढ़ी के दर्द को अभिव्यक्त करती
है।
समग्रतः डॉ लता का यह
प्रथम लघुकथा संग्रह अपने आस पास के देखे सुने अनुभवों की आँच पर पके कथ्यों से
सुसज्जित है। उन्हें लघुकथा के मानदंडों का भली भांति ज्ञान है, इससे लघुकथा की तकनीकी सम्बन्धी त्रुटियों के प्रति
वे खासी सावधान रहीं हैं। यद्यपि कुछ लघुकथाओं में अभी भी सम्भावनाएँ नजर आती हैं।
किन्तु सरल सहज भाषा के कारण ये लघुकथाएँ पाठकों पर अपना समुचित प्रभाव छोड़ती हैं। ‘अनसुनी आवाज’, ‘कही अनकही’ तथा ‘सास का मान’ जैसी लघुकथाओं ने
पात्रानुकूल भाषा गढ़कर लघुकथा की अर्थवत्ता एवम विश्वसनीयता को बढ़ाया है।
डॉ अग्रवाल ने अधिकांश
लघुकथाओं में कथोपकथन शैली का प्रयोग किया है। जिसके कारण लघुकथाओं की सम्प्रेषणीयता तीव्र
हुई है। कुछ लघुकथाओं यथा ‘अनसुनी आवाज’, ‘झांकी’, ‘थके कदम’, ‘प्रतिप्रश्न’, ‘अबूझ पहेली’, ‘मुहावरा जीवन का’, ‘मुखौटा’, ‘एकलव्य’ आदि के शीर्षक अर्थपूर्ण एवम सठीक हैं। व्यंगात्मक व व्यंजना शैली
में प्रयुक्त वाक्य प्रशंसनीय है जिससे लघुकथा को कसावट मिली। जैसे- "मतलब यह
कि जो पिछले छतीस बरसों में अपनी पत्नी के मन को न पढ़ सका अब उसने इन चन्द बरसों
में ऐसा क्या तीर मार दिया? अब यह मेरे शोध का विषय है।
"(शोध) "मेरी सम्वेदनाएँ ठहर
नहीं रही थी (संवेदना)"
"पति ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा, हे भगवन! क्लेश के
पौधे का कोई बीज नहीं होता। "(क्लेश) "यही
कि मैं आपको द्रोणाचार्य बनकर पुनः इतिहास कलंकित करने का अवसर नहीं दूँगी" (एकलव्य) आदि।
यह सुनिश्चित है कि जब
भी, जहाँ भी लघुकथा के क्षेत्र में
नारी विमर्श की चर्चा होगी डॉ लता अग्रवाल का यह 'मूल्य हीनता का सन्त्रास' लघुकथा संग्रह अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज अवश्य
कराएगा। वे भविष्य में और सुदृढ़, सार्थक लघुकथा लिखें ऐसी शुभकामनाओं के साथ...
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