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अंजु लता सिंह |
पनघट की पुकार
जब जाती हूँ गाँव देहात
'पनघट' मुझसे करता बात
देखो नज़र उठाकर मुझको
सुन लो मेरी व्यथा पुकार
संसाधन का दोहन करके
मस्तक पर हाथों को धरके
कब तक जल को यूँ तरसोगे
अब तो बंधु करो विचार
चलो कूप फिर से खोदो
हर्ष-बीज फिर से बो दो
पनघट वाली चहल-पहल से
परिवेश कर दो गुंजार
ताल-तलैयों से बेहतर हूँ
दु:ख है बस इतना बेघर हूँ
आंगन के कच्चे कोने में
मेरा करो पुन: उद्धार
पनघट मुक्तक - 1
सुंदर स्वरूप दिखता था पहले-मेरे देश के गाँव गाँव में,
पनघट पर दिखतीं पनिहारिन-
कूप मिले थे ठाँव ठाँव में,
पानी पी लेता हर प्यासा -
झट से ही आकर गागर से,
अब तो जल बिकता है बंधु -
अच्छे खासे मोल भाव में.
पनघट मुक्तक - 2
गाँव गली की शोभा पहले-कुँए और पनघट से थी,
मीठा जल वरदान, सिंचाई-
सुविधा मिलती झट से थी,
अब तो सूखे ताल तलैया-
दूभर हुआ स्वच्छ पानी,
हर घर में है प्यूरीफायर-
पहले ममता घट घट से थी।
हाइकु - हिन्दी
(1)ये प्यारी हिन्दी
सरल, सहज सी
सज्जित बिन्दी
(2)
होवे उत्कर्ष
दिवस, माह, वर्ष
हिन्दी विमर्श
(3)
सूर, तुलसी
मीरा, देव, कबीर
हिन्दी हुलसी
(4)
चले कलम
हिन्दी तुझे नमन
हर्षित मन
(5)
करो प्रणाम
सुबह और शाम
हिन्दी को जान
सुन्दर गाँव की छवि प्रस्तुत की है बधाई जी
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