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लिजेल मूलर |
औरत की हँसी लगा देती है आग
अन्याय के सभागृहों में
उस हँसी से जल उठते हैं झूठे सबूत
वह कर देती है तब्दील उन्हें एक खूबसूरत श्वेत प्रकाश में
वो हँसी हिला देती है नींव संसद के कक्षों की
ला देती है भूचाल
कर देती है विवश खिड़कियों को खुल जाने को
कर देती है मजबूर बेतुकी भाषणबाजियों को
सर पे पाँव रख भागने को
औरत के ठहाके पोंछ डालते हैं
बुढ़ा चुके पुरातनपंथियों के चश्मे के लेंसों पर जमी सारी धुंध
और कर बैठती है उन्हें संक्रमित खुशियों के बुखार से
और फिर हँस पड़ते हैं वो वृद्ध भी
ऐसे जैसे कि हो उठे हों पुनर्युवा
सीलन भरे, अँधेरे तहखानों में बंद कैदी खो जाते हैं
दिन के सुनहरे प्रकाश की कल्पनाओं में
जब वो करते हैं याद औरत की खिलखिलाहट को
जब दौड़ पड़ती है ये हँसी बहते हुए पानी के उद्गम से अंत तक
ये करा देती है पुनर्मिलन परस्पर द्वेष से भरे दो किनारों में
और दो विरोधी तट एक हो बन बैठते हैं उस प्रकाशस्रोत के मानिंद
जिसका कि होता है उद्देश्य
हर किसी को पहुँचाना प्रेम का सन्देश।
एक गज़ब ही है औरत की कहकहों की भाषा
जो पहुँचा सकती है ऊँचाई पर और रच सकती है विध्वंस भी
हमने सुनी थी वो हँसी
धर्मग्रंथों और इंसानी कानूनों के आने से भी सदियों पहले
और समझे थे असल पर्याय आज़ादी का...