कला एवं भाषा संकाय, लवली प्रोफ़ैशनल यूनिवर्सिटी, फगवाड़ा (पंजाब), मोबाइल: 9876758830
सार:
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डॉ. विनोद कुमार |
परिचय:
साहित्य की प्रेरणा, साहित्य की संकल्पना, साहित्य की प्रयोजना और साहित्य की परियोजना में जो सबसे महत्वपूर्ण आधार है, वह है समाज। समाज के कल, आज और कल अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्य की तस्वीर को उसकी सजीवता, गुणवत्ता और प्राणवत्ता के साथ यदि कहीं देखा जा सकता है, तो वह साहित्य ही है। साहित्य की सभी विधाओं में नाटक जीवन की सबसे सशक्त प्रतिकृति बनकर उभरी है। नाटक का प्रवाह एवं प्रभाव क्षेत्र अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक होने और जीवन के निकट होने का कारण यह है कि नाटक में पाठ्य और दृश्य दोनों होता है। नाटक में कहानी का सा घटना-गुम्फन, निबन्ध की सी विचारशीलता और काव्य की सी भावमयता एक साथ रहती है। यही कारण है कि नाटक को जीवन का प्रतिरूप कहा जाता है।
समीक्षा:
हिन्दी में नाट्य-लेखन की परम्परा को सामाजिकता से जोड़ने का
कार्य गम्भीरता एवं प्रयोजनवत्ता के साथ भारतेन्दु जी से प्रारम्भ होता है। भारतेन्दु
के समय का समाज अनेक रूढ़ियों, परम्पराओं, आडम्बरों और दुष्प्रवृतियों से सना हुआ
था। धर्म, राजनीति, अर्थ और संस्कृति सभी क्षेत्रों में असंख्य बेड़ियां समस्त समाज
को जकड़े हुए थीं। भारतीय जनता में सामाजिक जागृति का जो बीड़ा स्वामी दयानन्द
सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, राजा राममोहन राय, तिलक आदि ने उठाया था; उसी से
प्रेरणा ले हिन्दी साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं को इसी पुनीत कार्य का साधन
बनाया। भारतेन्दु ने अपने नाटकों अन्धेरनगरी, भारत-दुर्दशा आदि में भारतीय समाज को
झकझोरने का और जागृत करने का अद्भुत प्रयास
किया है। भारतेन्दु युग के अन्य नाटककारों ने भी इसी प्रेरणा के प्रभाव से समाज की
जड़-परम्पराओं, रूढ़ियों पर कुठाराघात किया है। ‘जिस समय भारतीय समाज राजनीतिक,
सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तनों से गुजर रहा था उस समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने
उसकी उद्योन्मुखी शक्ति को पहचाना और उसे विकासशील बनाने में अपनी सारी शक्ति लगा
दी।1
डॉ.
दशरथ ओझा का कथन उनके बारे में बिल्कुल सत्य है कि भारतेन्दु ने अपने नाटकों में
समयानुकूल वस्तु विषय को चुनकर जीवन और राष्ट्र की समस्याओं को अपनी सूक्ष्म
दृष्टि से परखा और नाटक की राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने का प्रमुख साधन बनाया।2
चन्द्रावली,
नीलदेवी, अन्धेर-नगरी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति. प्रेमयोगिनी आदि नाटक इस दृष्टि
से अन्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ‘उन्होंने अपने मौलिक नाटकों- सामाजिक, राजनैतिक,
ऐतिहासिक- में युगीन जीवन को जी भरकर उभारा और तत्कालीन जीती जागती समस्याओं और
प्रश्नों को उन नाटकों द्वारा अभिव्यक्त किया है।’3
नीलदेवी
में नारी जागरण, अन्धेर नगरी में शासन-व्यवस्था, भारत दुर्दशा में भारतीय समाज की
विडम्बना के सजीव चित्र अंकित किए हैं। इस प्रकार अपने सभी नाटकों में उन्होंने
किसी न किसी सामाजिक समस्या के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित कर जागने का आह्वान
किया है। भारतेन्दु से प्रेरणा ले उस समय क अन्य नाटककारों ने भी इस दिशा में
प्रयास किया है।
भारतेन्दु
के पश्चात हिन्दी नाटक परम्परा में प्रसाद युग आता है, जिसमें इस दिशा में काफी
चेतनता दिखाई देती है। प्रसाद के साहित्य में समाज को लेकर नई चेतना का प्रयास है।
‘प्रसाद का युग व्यवहारिक और वैचारिक संघर्ष का युग था जिसमें देश उठकर उस भावभूमि
पर खड़ा हुआ था, जहाँ प्राचीन नवीन और नवीन प्राचीन का साक्षात्कार करने के लिए
सक्षम था।4
इतिहास
और पुराण की पृष्ठभूमि प्रसाद को अत्यन्त प्रिय रही है। उनके बहुधा नाटक इसी धरतल
पर अवस्थित हैं। प्रसाद की नाट्य कृति ‘सज्जन’ में युधिष्ठिर, ‘प्रायश्चित’ में
जयचन्द, ‘कल्याणी परिणय’ में चाणक्य के माध्यम से देश और समाज की परिस्थितियों और
उनसे दो चार होने की सामर्थ्य जगाने का उपक्रम किया है। ‘विशाख’ जहाँ भारतीय जन-जन
की जागृति का सन्देश है तो ‘अजातशत्रु’ मानवीय जीवन की संतप्तता का जीवन्त उदाहरण
है। ‘कामना’ के माध्यम से मूल्यों और सामाजिक अर्थवत्ता के प्रश्नों को प्रकट किया
है, ‘जिसमें संतोष, विनोद, विवेक, लीला, लालसा आदि पात्रों के माध्यम से महात्मा
गाँधी के उपदेशों के परिणाम स्वरूप रूई ओटना, चर्खा कातना, संयम और परिश्रम आदि
प्रवृतियों को प्रस्तुत कर तत्कालीन सामाजिक सन्दर्भों को प्रस्तुत किया है।’5
प्रसाद के अतिरिक्त उस समय के अन्य नाटककारों
में लक्ष्मीनारायण मिश्र, हरिकृष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, गोविन्द वल्लभ पंत,
वृंदावन लाल वर्मा आदि में भी सामाजिक चेतना के स्वर सुनाई पड़ते हैं।
प्रसादोत्तर
हिन्दी नाटकों में भी सामाजिकता की स्पष्ट और तीव्र अनुभूति और अभिव्यक्ति देखी जा
सकती है। समाज में आ रहे बदलावों से समाज की जो तस्वीर बदल रही थी; खान पान, रहन
सहन और रीतिरिवाजों में जो नवीनता और सुधारात्मक परिवर्तन दिखाई दे रहे थे, उनकी
झलक उस समय के नाटकों में अनुभव की जा सकती है। इस दृष्टि से हरिकृष्ण प्रेमी, सेठ
गोविन्द दास, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, बेचन शर्मा उग्र, उपेन्द्र नाथ अश्क आदि के
नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। बहुत से नाटककारों ने राष्ट्रीयता को भी अपने नाटकों में
प्रमुखता दी, जिस कारण सामाजिकता थोड़ी कमजोर होती लगती है। लक्ष्मीनारायण मिश्र के
अनुसार ‘इस काल में राष्ट्रीय भावनाओं को उभारने वाले साहित्य की ओर लेखकों का
अधिक झुकाव दिखाई पड़ा। इसलिए इस युग में सामाजिक प्रश्नों तथा उलझनों से मुक्ति के
प्रश्न को गौण समझकर राजनीतिक मुक्ति के लिए प्रेरित करने को आवाज उठाई गई।’6
लेकिन देखने वाली बात यह है कि यह भी समाज की चेतना का ही एक रूप अथवा पक्ष ही है।
हरिकृष्ण प्रेमी के नाटकों ‘रक्षा बन्धन’ ‘शिवसाधना’, ‘प्रतिशोध’, ‘स्वप्नभंग’ तथा
आहुति कुछ ऐसे नाटक हैं जिनमें राष्ट्र और सांस्कृतिक एकता को दिखाया गया है। अतीत
से ज्ञान ले वर्तमान को सुधारने की बात उनके नाटकों में भरी हुई है। चन्द्रगुप्त विद्यालंकार के ‘रेवा’ और अशोक,
सेठ गोविन्द दास का ‘अन्नदाता, उदयशंकर भट्ट के ‘चन्द्रगुप्त मौर्य और
विक्रमादित्य नाटकों में भी सामाजिक चेतना के गम्भीर स्वर हैं। इसी प्रकार ‘गरुड़
ध्वज, वत्सराज, नारद की वीणा, सन्यासी और राक्षस का मन्दिर आदि भी विशेष रूप से
उल्लेखनीय हैं।
अश्क
जी का नाम इस युग में अत्यन्त सम्मान के साथ लिया जाता है। अश्क जी हिन्दी नाटक को आधुनिक भाव बोध से जोड़ने वाले
पहले नाटककार माने जाते हैं।7 उनके नाटकों में ‘स्वर्ग की झलक’, ‘छटा
बेटा’, ‘कैद और उड़ान’ ‘अलग-अलग रास्ते’ सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
इनके अतिरिक्त कौशिक जी के ‘परिणाम और हिन्दु विधवा नाटक, गोविन्द वल्लभ पंत के
कन्जूस की खोपड़ी तथा अंगूर की बेटी और सुदर्शन का नाटक ओनरेरी मजिस्ट्रेट भी इसी
आधारभूमि की अच्छी रचनाएँ है।
हिन्दी
नाटक परम्परा के अगले चरण अर्थात् स्वातंत्र्योत्तर युगीन नाटकों में भी सामाजिकता
की यह भवना बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रदर्शित हुई है। स्वतन्त्रता के उपरान्त
लोगों के जीवन में बहुत से परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। नई उम्मीदें, नये स्वप्न, नई
सरकार, नई नीतियां हर ओर से नई उम्मीदें बढ़ी हुई थीं। लेकिन धीरे-धीरे कल्पना का
रंग उतरने लगा और यथार्थ का बदरंग रंग सामने आने लगा। राजनीतिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक अपकर्ष हर क्षेत्र में साफ दिखाई देने लगा था। चूंकि ‘स्वातंत्र्योत्तर
हिन्दी नाटक अपने वर्ण्य विषय और भाव बोध में परिवर्तित भारतीय परिवेश की यथार्थ
अभिव्यक्ति है।8 अत: नाटकों ने भी सच्ची तस्वीर को आशा को निराशा में
बदलती स्थितियों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है।
इस
परिप्रेक्ष्य में शेखर शर्मा का कथन अत्यन्त सटीक है कि ‘परिवर्तित परिस्थितियों
के संदर्भ में सचेतन बुद्धिजीवी का मानसिक आक्रोश बढ़ा और वह विद्रोही स्वर प्रधान
नाटकों की रचना करने लगा। इस प्रकार के हालात में उसने जिस जीवन-यथार्थ को भोगा,
जो कुछ उसने अपने अनुभव और ज्ञान से देखा एवं महसूस किया उसने उसकी संवेदना का
मिजाज ही बदल दिया। अत: साहित्य की अन्य विधाओं की भान्ति नाटक ने भी नयी समकालीन
संवेदना को पूरे दायित्व के एहसास के साथ वहन किया। सन् 1950 से सन् 1975 ई. के
अन्तराल में और अब सन् 1980-81 तक जितना भी नाटक साहित्य रचा गया है, वह समकालीनता
और आधुनिकता की चेतना का नाटक है। इस काल खण्ड के नाटकों में 25-30 वर्षों के
बहुआयामी जीवन को विभिन्न कोणों से देखा एवं प्रस्तुत किया गया है।9
अब
मनुष्य तर्क एवं विज्ञान के सम्पर्क आया और उसने जीवन और सोचने का ढंग कुछ बदल
लिया। अब वह हर चीज को अन्धानुकरण कर नहीं अपनाता। शेखर शर्मा का कथन बिल्कुल सत्य
प्रतीत होता है कि स्वतन्त्रता के पश्चात नाटककारों ने मानव को नया मानव होने का
सन्दर्भ देने का प्रयत्न किया है। नये युग-बोध के साथ साथ व्यक्ति ने अपने ऊपर चढ़ी
हुई धर्मान्धता को ही नहीं, सामाजिक और नैतिक परतों को भी खुरचकर और मानवोपरि
सत्ता की छाया हटाने का प्रयास कर अपने अस्तित्व को एक स्वतन्त्र गरिमा प्रदान
करने का मार्ग अपनाया है।10 लेकिन इसमें कहीं सांस्कृतिक मूल्यवान
विरासत भी खण्डित होने लगी। जिसका अंकन भी नाटकों में दिखलाई पड़ता है।
इस
समय में इस दिशा में रचना करने वालों में विष्णु प्रभाकर, जगदीश चन्द्र माथुर,
मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल, मुद्राराक्षस, सुरेन्द्र वर्मा, धर्मवीर भारती,
ज्ञानदेव अग्निहोत्री, रमेश बख्शी, गिरिराज किशोर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मन्नु
भण्डारी, मृदुला गर्ग, शरद जोशी आदि का नाम लिया जा सकता है। ‘इस नाट्य धारा के
अन्तर्गत वे कृतियां आती हैं, जिनमें स्वातन्त्र्योत्तर सामाजिक, राजनैतिक तथा
आर्थिक शोषण मूलक व्यवस्था में शोषित जन जीवन को विविध समस्याओं का व्यापक एवं
सशक्त अंकन हुआ है। साथ ही इस शोषण के लिए संघर्षशील जन चेतना की अभिव्यक्ति हुई है।’11
समाज
में नारी के प्रति हेय दृष्टि को चित्रित करते हु लक्ष्मीनारायण लाल की नाट्यकृति
‘अन्धा कुंआ’ भी उल्लेखनीय है। यह ‘नारी-जाति में व्याप्त अन्धविश्वासों एवं पुरुष
द्वारा नारी के प्रति हो रहे अन्याय के विरुद्ध नयी संवेदना का नाटक है।’12
नारी की मुक्ति पर यह संवाद कितना
प्रयोजनीय है- ‘इन रस्सियों को तैयार करने वाले और इनसे गांठे बनाने वाले जब तक वे
हाथ मौजूद हैं, तब तक केवल रस्सियों को कुछ नहीं होगा।’13
लहरों
के राजहंस के माध्यम से मोहन राकेश भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर विमर्श करते हैं।
इस नाटक के द्वारा ‘नर-नारी के सम्बन्धों के सन्दर्भ में अनिर्णय अनिश्चय और अलगाव
की स्थिति से उत्पन्न मानव-जीवन की त्रासदी के दस्तावेज के रूप में लाया गया है।14
‘रुपया
तुम्हे खा गया’ के माध्यम से भगवतीचरण वर्मा ने सामाजिक विभीषिका में पिसते जा रहे
मनुष्य की झांकी को प्रस्तुत किया है। इस नाटक में यह दिखाने का प्रयास किया गया
है कि अर्थपिशाच मनुष्य की ममता, दया, प्रेम आदि कोमल भावनाओं का गला घोंट देता है
और मानव की मानवता को खा जाता है।15
‘आंधी
और घर’ मोहन चोपड़ा कृत ‘समाज में व्याप्त विसंगतियों, विषमताओं की घुटन,
परम्परावादी, रूढ़ीग्रस्त जर्जर मान्यताओं की टूटन तथा पुराने और नये स्वस्थ
जीवन-मूल्यों के समन्वय को उजागर करने वाला नाटक है।16
आधुनिक
यांत्रिक जीवन के प्रभावान्तर्गत मानव के खण्डित व्यक्तित्व, टूटते पारिवारिक
परिवेश जीवन-व्यापी घुतन और तनावपूर्ण सम्बन्धों को चित्रित करने वाली नाट्यकृति’
सिरेन्द्र वर्मा कृत द्रौपदी है।
हमीदुल्ला
की रचना ‘उलझी आकृतियां’ भी समाज की तस्वीर को सजीवता से बयान करती है। जिसमें
मशीनीकरण के भयावह परिणामों, देश के सर्वव्यापी एवं बहुमुखी भ्रष्टाचार, व्यक्ति-जीवन
की मजबूरियों तथा मानव-मूल्यों के ह्लास का चित्र उहेरने वाले हैं।17 धर्मवीर भारती का ‘अन्धा युग’ युद्ध की
विभीषिकाओं से समाज की चिन्ता को सामने लाने का प्रयास है। यह रचना युद्धों को
जन्म देने वाले कारणों से अवगत करवाने वाली एवं आधुनिकता-बोध कोगहरी संवेदना के
स्तर पर अभिव्यक्ति देने वाली नाट्यकृति है।18 जहाँ नाटककार का मूल कथन
और एक तरह से चेतावनी भी है- यदि यह लक्ष्य सिद्ध हुआ ओ नरपशु!/ तो आगे आने वाली
सदियों तक/ पृथ्वी पर/ रसमय वनस्पति नहीं होगी/ शिशु होंगे विकलांग और
कुण्ठाग्रस्त/ सारी मनुष्य जाति बौनी हो जाएगी।19
स्वतन्त्रता
के पश्चात हिन्दी नाटकों में धर्म-भेद, सामाजिक असहिषणुता, परम्परित जीवन-मूल्यों
के विघटन, पारिवारिक सम्बन्धों के अवमूल्यन, राजनीतिक भ्रष्टाचार, नैतिक पतन, युवा
पीढ़ी के उच्छृंखल आचरण, यौन स्वतन्त्रता आदि और उसके कारणों की खोज के प्रयास भी
दिखाई देते हैं।20
नये
युग में नये नाटक में यथार्थ की ठोस भूमि अपेक्षाकृत अधिक दिखाई देती है। ‘आधुनिक
नाटक पहले की तुलना में यथार्थ-बोध की संवेदनात्मक स्तर पर अनुभूति कराने का नाटक
है। जगदीश चन्द्र माथुर, दुष्यन्त कुमार, मोहन चोपड़ा, मोहन राकेश, सुरेन्द्र
वर्मा, नरेन्द्र कोहली, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शंकर शेष, सुशील कुमार सिंह के
नाटक इस दृष्टि से अत्यन्त ख्यात हैं।21 इस दिशा में बहुत सी रचनाओं की
चर्चा हो सकती है, जिनमें से कुछ के संकेत यहाँ दिये जा रहे हैं। मादा कैक्टस (लक्ष्मीनारायण लाल), एक कण्ठ विष्पायी (दुष्यन्त कुमार), शुतुर्मुर्ग (ज्ञानदेव
अग्निहोत्री), फंदी (शंकर शेष), देवयानी का कहना है (रमेश बख्शी), तिलचट्टा (मुद्राराक्षस), त्रिशंकु (बृजमोहन शाह), टूटते परिवेश (विष्णु प्रभाकर), दरिन्दे (हमीदुल्ला), शम्बूक की हत्या (नरेन्द्र कोहली), प्रजा ही रहने दो (गिरिराज किशोर)।
हिन्दी नाटक साहित्य के सन्दर्भ में सामाजिक चिन्तन की दृष्टि से अपनी पुस्तक नाटक
परम्परा-परिवेश में लक्ष्मीनारायण भारद्वाज अपना मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि युग की सामाजिक व्यवस्था में
क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। व्यक्ति समाज जीवन की नवीन प्रणाली से परिचित हुए।
सामाजिक बन्धनों तथा अन्धविश्वासों के प्रति जो विद्रोह का स्वर नाटकों में
दिखाई देता है, वह इसी परिवर्तित जीवन दृष्टि का ही परिणाम है। जीवन की यथार्थवादी
अभिव्यक्ति इन रचनाओं में हुई है।22
निष्कर्ष:
साहित्यकार समाज का चित्रकार होता है। वह समाज की वास्तविक परिस्थितियों को भलिभान्ति समझता है और उन परिस्थितियों की पृष्ठभूमि पर किस प्रकार का भवन बनेगा, बन सकता है अथवा बनना चाहिए; इस तथ्यों पर अत्यन्त गम्भीरता से चिन्तन करता और और अपनी रचनाओं के माध्यम से कभी समाज के स्वरूप के दर्शन कराता है तो कभी उसे भावी आशंकाओं से चेतन्न भी करता है। हिन्दी के नाटककारों ने अपने इस उतरदायित्व को बखूबी निभाया है। देशकाल और समाज के सुन्दर और वीभत्स दोनों ही पक्षों को अपनी तुलिका से संचित किया है। समय की परिस्थितियों के सन्दर्भों को कभी पौराणिक, ऐतिहासिक तो कभी वर्तमान कथापट के माध्यम से इस प्रकार से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी नाटककारों ने अपनी रचनाओं में सामाजिक जीवन और उसकी उलझनों को दिखाने का सफल प्रयास किया है, जो समय की स्थितियों और संभावनाओं को अपने नाटकों का विषय बनाकर सामाजिक चेतना का भरपूर प्रयास है।
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संदर्भ:
2. डॉ. दशरथ ओझा, आज का हिन्दी नाटक-प्रगति और प्रभाव, पृ.128
3. डॉ. दशरथ ओझा, आज का हिन्दी नाटक-प्रगति और प्रभाव, पृ.128
4. गोविन्द चातक, प्रसाद नाट्य परम्परा और रंग शिल्प, पृ.11
5. श्रीमती विनोद जैन, हिन्दी महिला नाटककार और सामाजिक चेतना, पृ.32
6. लक्ष्मीनारायण मिश्र, हिन्दी नाटक, पृ.388
7. डॉ. नगेन्द्र, आधुनिक हिन्दी नाटक, पृ.251
8. डॉ. दिनेशचन्द्र वर्मा, स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी नाटक: समस्या और समाधान, पृ.31
9. शेखर शर्मा, समकालीन संवेदना और हिन्दी नाटक, पृ.11
10. शेखर शर्मा, समकालीन संवेदना और हिन्दी नाटक, पृ.137
11. डॉ. माधव सोनटक्के, समकालीन नाट्य विवेचन, पृ.11
12. शेखर शर्मा, समकालीन संवेदना और हिन्दी नाटक, पृ.158
13. लक्ष्मीनारायण लाल, अन्धा कुंआ, पृ.68
14. शेखर शर्मा, समकालीन संवेदना और हिन्दी नाटक, पृ.173
15. दशरथ ओझा, हिन्दी नाटक उद्भव और विकास, पृ.282
16. शेखर शर्मा, समकालीन संवेदना और हिन्दी नाटक, पृ.196
17. हमीदुल्ला, उलझी आकृतियां, पृ.34
18. शेखर शर्मा, समकालीन संवेदना और हिन्दी नाटक, पृ.153
19. धर्मवीर, अन्धायुग,पृ.93
20. शेखर शर्मा, समकालीन संवेदना और हिन्दी नाटक, पृ.138
21. शेखर शर्मा, समकालीन संवेदना और हिन्दी नाटक, पृ.139
22. लक्ष्मीनारायण भारद्वाज, नाटक परम्परा-परिवेश,पृ. 18
Thanks a lot sir
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