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संगीता गांधी |
अत्याचार की धरोहर
दफ्तर से अपनी स्कूटी पर लौटती वसुधा को सड़क के उस पार रुचि दिखी। रुचि, वसुधा की बचपन की सहेली थी। साथ -साथ पढ़े, बड़े हुए। वसुधा समृद्ध उच्च वर्गीय परिवार से थी। रुचि मध्यम वर्गीय अनुसूचित वर्ग की थी। जातीय व आर्थिक अंतर के बाद भी दोनों में बहनों सा प्रेम था। वसुधा के दादा जी, मम्मी, पापा रुचि को बेटी ही मानते थे। रुचि का परिवार भी दोनों में कोई अंतर न करता था। रिक्शा में जाती रुचि को वसुधा ने पुकारा। आवाज़ शायद पहुँची नहीं! वसुधा ने स्कूटी मोड़ कर रुचि के रिक्शे के पीछे लगा दी।उसे याद आ रहा था। विवाह के बाद वो गुड़गाँव आ गयी। रुचि का विवाह पूना में हुआ। कुछ समय मेलजोल रहा फिर तीन साल से सम्पर्क खत्म सा हो गया। रुचि के माता -पिता भी बेटे के साथ विदेश चले गए। रुचि को गुड़गाँव में देख वसुधा बहुत प्रसन्न थी। वसुधा ने स्कूटी रुचि के रिक्शा के आगे लगा दी। रुचि को उतारा और ज़ोर से गले मिली, “कितनी आवाज़ें दी। सुनी नहीं क्या? यहाँ कैसे? खबर तो करनी थी। कितने फोन किये, पर तेरा नम्बर ही बन्द रहता है!” वसुधा ने गले लगकर प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
रुचि चुप थी। बहुत ठंडी! कोई उत्साह नहीं। “वसुधा सड़क पर सब देख रहे हैं। छोड़ो मुझे।” वसुधा को परे करते हुए रुचि ने कहा।
वसुधा ने महसूस किया रुचि उससे मिलकर खुश नहीं हुई। बात को संभालते हुए बोली, “चल रेस्तरां चलते हैं। सारी यादें ताजा करेंगे।”
रुचि के न न कहते हुए भी वसुधा उसे खींचकर पास के रेस्तरां में ले गयी। रुचि चुप थी। वसुधा कुछ आर्डर करने लगी। रुचि ने चुप्पी तोड़ी, “देखो, साफ साफ कहती हुँ, मैं तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहती।”
वसुधा अवाक थी। उसकी गलती क्या थी?
रुचि ने घूर कर उसे देखा, आवाज़ में वितृष्णा घोल कर बोली, “मैं अब एक राजनीतिक संस्था की सदस्य हूँ। जहाँ से मुझे ज्ञात हुआ है कि हम पर कितने अत्याचार किये गए हैं। तुम भी उसी समाज से हो। तुम लोगों ने 5000 साल से हमपर अत्याचार किये हैं। पहले मुझे ये पता नहीं था। संस्था के कार्यक्रमों में जा कर, सोशल मीडिया पर सक्रिय रह कर बहुत कुछ पढ़ा है। ये सब जाना कैसे तुम लोगों ने हमारे हक़ छीने।”
रुचि बोल चुकी थी। वसुधा को काटो तो खून नहीं वाली स्थिति थी। वसुधा ने रुचि का हाथ अपने हाथ में लिया, “रुचि, ये सब राजनीतिक संस्थाएँ, सोशल मीडिया की फेक पोस्ट - राजनीति के अखाड़े हैं। जिनका मकसद जातीय विषमता बढ़ाना है। इनका उद्देश्य समाज में जातीय वैमनस्य बढ़ा कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करना है बस।”
“हम बचपन से प्रेम से रहे हैं। क्या कभी जाति हमारे बीच आयी? तो फिर अब ये द्वेष क्यों? हम सभी को इनकी राजनीति का मोहरा नहीं बनना है। समाज को द्वेष से बचाना है।”
“कुछ नहीं सुनना मुझे। अपना उपदेश बन्द करो।”
इतना कहकर रुचि रेस्तरां से बाहर निकल गयी।
वसुधा बुझे दिल व बोझिल कदमों से स्कूटी के पास आयी। उसे स्मरण आ रहा था वह दिन, “रुचि बिटिया, तू फिक्र न कर। तेरी ट्यूशन की सारी फीस मैं दूंगा। तू बस मन लगा कर पढ़।”
दादा जी ने रुचि के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था। कितने प्यार से रुचि बोली थी, “आप मेरे बहुत प्यारे वाले दादू हो!”
वसुधा ने स्कूटी स्टार्ट कर दी। मन में तूफानों के उमड़ते सायों के बीच वेदना में ढले शब्द चिल्ला रहे थे, “हम सवर्ण हैं! हमने 5,000 साल से अत्याचार किये हैं! हाँ तुम्हारी पढ़ाई हमारे अत्याचार की ही धरोहर है!”
“उफ़ ये मैं क्या सोच रही हूँ!” वसुधा ने स्वयं को संभाला, “नहीं नहीं मैं भी उसी द्वेष में फँस रही हूँ। मुझे यह नफरत नहीं पालनी। मेरे दिल और घर के दरवाजे हमेशा तुम्हारे लिए खुले हैं। कभी भी लौट आना रुचि ... मेरी बहन!”
चरित्र का नैतिक बल
सारा रास्ता चलते चलते सुनील का मन बहुत खिन्न था। कई प्रश्न उमड़ रहे थे।“ये कैसे हो सकता है? वो इतना असहाय कैसे हो गया? उसकी बहादुरी की तो लोग कसमें खाते हैं! कहाँ गयी वो बहादुरी!”
आज दफ्तर से लौटते हुए घर जल्दी पहुँचने की ललक थी। मुख्य सड़क पर भीड़ थी तो उसने अंदर वाला कच्चा रास्ता ले लिया।ये रास्ता कुछ सुनसान रहता है।
यहीं कुछ आगे चलने पर यकायक एक आदमी सामने आया। हाथ में चाकू पकड़े!
“जो कुछ है सब निकाल दो वरना!”
सुनील सकपकाया, डर के मारे उसकी घिघ्घी बंध गयी। बिना किसी प्रतिरोध के सब दे दिया। पैसे, मोबाइल, घड़ी, सोने की अंगूठी! लुटेरे के जाने के बाद सुनील की चेतना लौटी।
“मुझसे आधा था। मैं कुछ प्रतिरोध तो कर सकता था!”
इन्हीं भावों को लिए घर पहुँचा। चाचा जी को सब बताया। चाचा के साथ ही वो शहर में रहता था। माँ, पिताजी गाँव में थे।
“सुनील, तुमने ज़रा सा भी विरोध न किया?” चाचा जी की प्रश्नसूचक मुद्रा आँखों में कई सवाल लेकर सामने थी।
“नहीं, मैं बहुत डर गया था।”
“सुनील, तुम वही हो न, जिसने 12 साल की उम्र में गाँव के घर पर आये चार चोरों से मुकाबला किया था। उनके पास भी हथियार थे। उन्हें पकड़वा कर बहादुरी का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था।”
चाचा जी सुनील के झुके हुए सिर के पीछे छुपे भाव पढ़ने की चेष्टा कर रहे थे।
आगे बोले, “वो देखो सामने दीवार पर तुम्हारा चित्र। राष्ट्रपति जी से बहादुरी का पुरस्कार लेते हुए!”
सुनील निशब्द था। उसके शब्द भी उसकी बहादुरी की तरह शायद जम गए थे।
अपने शब्द समेटते हुए सुनील बोला, “चाचा जी, मैं … मैं बहुत लज्जित हूँ। तब मेरे पास चरित्र का नैतिक बल था। पर आज ... आज जो पैसे गए, जो सोने की अंगूठी व मोबाइल गया! वह सब मेरी रिश्वत की कमाई थी!”
यह कहते हुये सुनील की नजरें झुकी हुई थीं।
“हमारा स्वतन्त्रता सेनानियों का खानदान है। जब 12 साल का था तब अपने परिवार के संस्कारों पर बड़ा मान था। उसी नैतिक बल के कारण चोरों से लड़ गया था।”
सुनील कुछ रुका पलकों पर उमड़े आँसू रोक कर रुंधे गले से बोला, “रिश्वत की भेंट सारे संस्कार चढ़ा चुका था। पर ये न मालूम था कि मेरी बहादुरी का नैतिक बल भी रिश्वत की भेंट जा चुका है।”
बेहतर हैं।
ReplyDeleteउपदेशात्मक लघुकथाएं।
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