डॉ. उर्मिलेश शंखधार
जनपद बदायूँ (उत्तर प्रदेश) के क़स्बे इस्लामनगर में 6 जुलाई सन् 1951 को जन्मे डॉ उर्मिलेश के गीतों ने हिंदी साहित्य में एक अलग पहचान बनाई है। मानवीय संवेदना और जीवन के यथार्थ को उन्होंने अपनी रचनाओं में लय और शिल्प के संगम से खूबसूरती के साथ व्यक्त किया है। वार्षिक बदायूँ महोत्सव के संस्थापक डॉ उर्मिलेश नेहरू मेमोरियल शिवनारायण दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बदायूँ में हिंदी के प्राध्यापक थे। उनका देहावसान 6 मई सन् 2005 को 54 वर्ष की अल्पायु में हुआ।
- हिन्दी ग़ज़ल
भीड़ की तनहाइयों में हम जिए
इस तरह कठिनाइयों में हम जिए
शब्द ओढ़े हम न सड़कों पर पुजे
अर्थ की गहराइयों में हम जिए
आपके, हाँ आपके ही वास्ते
उम्र भर रुसवाइयों में हम जिए
फूल बनकर आप गंधाते रहे
भूल से अमराइयों में हम जिए
जादुई स्वर हम न दे पाए कभी
दर्द की शहनाइयों में हम जिए
आपने बख्शे हमें जो चार पल
धूप की परछाइयों में हम जिए
इसलिए फ़हरिस्त से हम कट गए
क्योंकि कुछ अच्छाइयों में हम जिए।
धरोहर
बहुत सुंदर ग़ज़ल है.
ReplyDeleteमहेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
यहाँ भी एक ही ग़ज़ल। अब यहाँ क्या परेशानी थी? अनुवाद भी नहीं करना था। आठ-दस ग़ज़लें तो दे ही सकते थे। पत्रिका निकाल रहे हैं या ख़ानापूरी कर रहे हैं?
ReplyDeleteयह शेर बहुत अच्छा है --
ReplyDeleteफूल बनकर आप गंधाते रहे
भूल से अमराइयों में हम जिए
कितना मारक व्यंग्य है इसमें!